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प्रधानमंत्री को हमने चिट्ठी क्यू लिखी साहब ?

खैर अब इस ज़माने में तो चिठ्ठी-पत्री का काम रहा नहीं, ‘वाट्सएप’ के मैसेज से काम चल जाता है, लेकिन मुझे चिट्ठियां लिखना काफी पसंद था और आज भी है। मेरी आखिरी चिट्ठी शायद मैंने चार साल पहले लिखी होगी। वैसे भी चिट्ठी एक ‘निजी’ मसला होता है, लेकिन जब हमारे ‘निजी’ जीवन पर ही हमला हो तो कुछ बातें बोलनी ही पड़ती हैं। मुद्दा यह है कि, हमने प्रधानमंत्री जी को एक चिट्ठी लिखी जिसमें आने वाले ‘द ट्रांस पर्सन्स (सुरक्षा एव अधिकार) बिल 2016’ को रोककर इसमे से सार्वत्रिक ट्रांस समुदाय के लिए घातक साबित होने वाले मुद्दों को हटाकर बुनियादी सुधारों की बात लिखी। अब आगे की बात।

कोई चिट्ठी भले ही निजी मसला हो लेकिन सही माने तो हम ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’ पढ़ते है। मुंबई स्थित ‘टाटा इंस्टीट्यूट’ के कैंपस में हम चर्चा करते हैं और समतामूलक समाज का सपना बुनते हैं। हमारे साथ पढ़ने वाले साथी भी कभी-कभी निराशा से बोल देते हैं, ‘भाई, कुछ नहीं होगा, ये व्यवस्था तो पत्थर है, जितना सर पटकोगे, चोट उतनी ही मोटी होगी।’ खैर, सपना देखेंगे ही नहीं तो पूरा कैसे होगा?

हम बदलाव की बात करते हैं, मानते हैं कि हमारा भी कुछ दायित्व ,है लेकिन हम ठहरे सीधे-साधे विद्यार्थी, कर-कर के क्या और कितना ही करेंगे? अब भले ही ज़्यादा कुछ ना कर सकें लेकिन आज किया हुआ विरोध, असहिष्णुता, धर्मान्धता, दहशतगर्दी, जाती, वर्ग, वर्ण या लिंग के आधार पर भेद करने वाली व्यवस्था के खिलाफ फेका गया एक छोटा सा पत्थर है। भले ही आज वह पत्थर दीवार पर खरोंच भी पहुंचा पाए, लेकिन एक दिन हम ये दीवार ज़रूर गिरा देंगे और एक नई इमारत की नींव रखेंगे।

खैर, इंस्टीट्यूट की कृत्रिम आकादमिक व्यवस्थता से समय निकालकर हमने पत्थर फेंकने की तो नहीं, लेकिन चिट्ठी लिखने की सोची। लेकिन भाई, लोग मर जाते है और उनकी कोई नहीं सुनता तो हमारी चिट्ठी क्या खाक पढ़ी जाएगी? पढ़ भी ली तो क्या हो जाएगा? इस असमंजसता के बीच ही हमने अपनी आवाज़ उठाने की सोची, आखिर यही तो लोकतंत्र है।

बात यह है कि, आज सुबह की ‘क्लास’ खत्म होते ही वैष्णवी हमारे बीच आयी और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने के बारे में बताने लगी। वैष्णवी हमारे साथ ‘सोशल वर्क’ पढ़ती है और मेरी अच्छी दोस्त है। पुराने मुद्दे पर ही वह बोल रही थी, लेकिन उस बात का औचित्य तब और भी बढ़ जाता है जब कोई सरकार जबरन उपयोजन के बिना कुछ विचार किए बिना ही कोई कानून लागू करने को आतुर हो जाए। वह ‘ट्रांस बिल’ के बारे में हमें बता रही थी, हम भी गंभीर हो गए।

आखिरकार ये मसाला है क्या? उसने हमारे हाथ में ‘टिस क्वियर कलेक्टिव’ का छपा हुआ एक पर्चा थमा दिया। हमारी अगली क्लास होने वाली थी, रोज़ की तरह ही ‘मुद्दा’ छोड़ हम इस बार भी चले गए। बहाना भी कोई नया नहीं था। लेकिन मुद्दे की उत्सुकता ने मुझे घेर लिया। मेरे दोस्त गंधा, अर्कजा, विद्या आदि सभी साथियों ने प्रधानमंत्री को विरोध की चिट्ठी लिख ली थी और मुझे ‘रिमाइंड’ कराते-कराते थक चुके थे। इसी बिच, इस विषय पर लगातार आवाज उठाने और ट्रांस समुदाय के हित में वैचारिक आंदोलन की बात करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता साईं तेजोजी से भी मेरी बात हुई।

आखिर मुद्दा क्या है? सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री थावरचंद गहलोत ने 2 अगस्त 2016 को लोकसभा में ‘ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का सांरक्षण) बिल, 2016’ पेश किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने भी 19 जुलाई 2016 को इस विधेयक को मंजूरी दे दी। अच्छा है, लेकिन जब इस बिल के बारे मे हमने पढ़ा तो पाया कि यह बिल ऊपरी तौर पर तो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की बात तो करता है, लेकिन इसमें लिखे मुद्दे इसी वर्ग के लिए आखिरकार घातक और समता सिद्धांत को नकारने वाले साबित होते हैं।

यह बिल ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित करता है जो, ‘पूरी तरह ना ही महिला हैं और ना ही पुरुष हैं, बल्कि दोनों का संयोजन हैं। ऐसे व्यक्तियों का जन्म के समय का लिंग, नियत लिंग से मेल नहीं खाता।’ सरकार की इस व्याख्या को हम प्रमाण माने तो, भारतीय संविधान द्वारा सभी को दी गए बराबरी और समानता के अधिकारों का लाभ ट्रांस जेंडर व्यक्तियों को भी हो इस इस उद्देश्य से ‘राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (एनएएलएसए)’ के साथ मिलकर कुछ लोग तथा संगठनों ने देशभर में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ होती बर्बरता, शोषण और असमानता के विरुद्ध सर्वोच्च अदालत में एक जनहित याचिका दाखिल की थी। सही माने तो देश के स्वाधीनता के 70 सालों बाद भी समाज में ही नहीं बल्कि अपने घर में भी ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को अमानता और शोषण का सामना करना पड़ता है।

भारत के प्रागतिक आंदोलन में इस विषय पर सातत्यपूर्ण चर्चा होती आयी है। महाराष्ट्र के जेष्ठ समाजकर्मी महर्षी धोंडो केशव कर्वेजी के सुपुत्र रघुनाथ कर्वेजी ने लैंगिक शिक्षा के प्रसार हेतू ‘समाजस्वास्थ्य’ नामक एक पत्रिका का संपादन किया था. सन १९३४ के फरवरी में उनको उनके पाठकोको प्रश्न क्रमांक ३, ४, १२ के उत्तर देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. जो प्रश्न समलैंगिक संबधोपर पूछे गये थे. जिसको अपीलकर्ताने विकृत तथा अश्लीलता फैलानेवाला कहा था. कर्वेजी के इस केस को डॉ. बाबासाहब आंबेडकरजी ने न्यायालय में लढने ठानी. बाबासाहब कि माने तो, ‘समलिंगी संबंध पूर्णतः नैसर्गिक है और जिसमें कुछ भी गैर नही. जिसे जिसमें आनंद आता हो किसीके अधिकारोका हनन ना करते हुवे वह प्राप्त करना हर एक नागरिक का अधिकार है.’ इस संदर्भ में बाबासाहब हॅवलॉक एलिस जैसे जनकारोका संदर्भ देते है. बाबासाहब के यह विचार सदैव प्रासंगिक है. मात्र, आज भी ‘ट्रान्स जेंडर’ समुदाय को पारिवारिक और सामाजिक शोषण का सामना करना पडता है. यह समुदाय आज भी कानूनी पहचान के अभाव से जूझता हुवा किसीभी तरह की सुरक्षा न होने के कारण सभी प्रकार के नागरी अधिकारों से वंचित रहनेको मजबूर है.  इसी कारण, समता के पक्ष में दिखिल इस जनहित याचिका की सुनवाई करते सर्वोच्च अदालत ने यह मंजूर किया कि, ‘भारत के हर एक नागरिक को ‘अपना जेंडर’ निर्धारित करनेका हक़ है.’ इसी बिच अदालत ने सदियोसे चलते आ रहे सामाजिक शोषण को ख़त्म करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुवे ट्रांस जेंडर व्यक्तियोंको सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुवे शिक्षा तथा रोजगार में आरक्षण का प्रावधान करनेकी सरकार से सूचना की. इस वर्ग की संविधानिक हितो को मान्यता देते हुवे सरकार को अपनी जवबदेही निभानेकी सलाह दी.

सर्वोच्च अदालत ने अप्रैल 2014 में तथकथित सामान्य पुरुष और नारी से भिन्न लैंगिकता वाले व्यक्तियोंको तीसरे लिंग के रूप में पहचान दी थी. ‘राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण’ की ही अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था. न्यायालय के इस फैसले के कारण ही हर तृतीय पंथीय व्यक्ति को जन्म प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पासपोर्ट तथा ड्राइविंग लाइसेंस में ‘थर्ड जेंडर’ के तौर पर पहचान प्राप्त करनेका अधिकार मिला. इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि, उन्हें एक–दूसरे से शादी करने और विभक्त होने का भी अधिकार मिला. उत्तराधिकार कानून के तहत वारिस होने एवं वारिस लेने के उनके अधिकार के साथ ही अन्य अधिकार भी प्राप्त हुए.

इस विषय में कानून बनाकर सही मायनो में इसे घटनात्म स्वरुप देने की और ट्रांस जेंडर समुदाय के हित की रक्षा के दिशा में दिसंबर २०१४ में राज्यसभा सांसद तिरुची शिवा ने एक प्रगतिशील निजी विधेयक प्रस्तावित किया जो राज्य सभाने पारित किया. मात्र, राज्य सभा द्वारा पारित इस विधेयक को दरकिनार कर सरकार द्वारा २०१५ को नया मसौदा लाया गया. आगे इन दोनों विधेयकों से भिन्न विधेयक लोकसभा में २०१५ पेश किये गए. जिसमे ‘राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण’ द्वारा दाखिल फैसला और २०१४ के उपरोक्त विधेयक के कई महत्वपूर्ण बिंदु सिरेसे नकारे गए. इस विधेयक को देश भर में होते भारी विरोध के चलते इस विधेयक पर ‘विचार करने के लिए’ केंद्र सरकारने एक संसदीय स्थाई समिति का गठन किया है. मात्र, मुंबई के ‘टिस क्युअर कलेक्टिव्ह’के अधिकृत पर्चे की माने तो, ‘माध्यमों से हाल ही में मिली सूचना से यह पता चलता है कि इस समिति की सारी प्रगतिशील सूचनावोंको नजरअंदाज कर सरकार दोबारा अपना वही २०१६ का पुराना विधेयक १५ दिसंबर से शुरू होने वाले इस शीतकालीन सत्र में लाना चाहती है.’ खैर, सर्वोच्च अदालत ने प्रत्येक व्यक्ति को अपना लिंग निर्धारित करनेका अधिकार दिया है. मात्र, इस विधेयक के पारित होतेही ‘जिला स्क्रीनिंग कमिटी’ के पास जाकर शारीरिक जांच करवानी पड़ेगी. इस कमिटी के मान्यता के बादही आपको वैधानिक ‘ट्रांस जेंडर’ कहा जाएगा. मूलतः सरकार इस मुद्देके माध्यम से व्यक्ति के ‘निजता के अधिकार’ को अमान्य कर सर्वोच्य न्यायालय कि भी अवमानना करती है. हल ही में निजता के अधिकार को सर्वोच्च अदालत के एक खण्डपीठ ने इसे ‘जीने के अधिकारो’में समाविष्ट किया है.

सभी भारतीय नागरिकोंको रोजगार का अधिकार प्राप्त है. मात्र, आज भी समाज का एक ऐसा तबका रोजगार से वंचित होकर हाशियेका जीवन जिनके लिए विवश है. इस तबके में सदियोसे सामाजिक असमानताका शिकार हुये दलितोसे लेकर घुमंतू तथा अर्ध घुमंतू समाज और ‘ट्रांस जेंडर’ लोग शामिल है. जैसे-तैसे गुजर-बसर करते यह लोग मानवाधिकारोंसे सदैवही वंचित रहे है. ‘ट्रांस जेंडर’ की बात करे तो सातत्यपूर्ण सामाजिक बहिष्कार के चलते यह लोग भिक मांगने पर मजबूर है. यह विधेयक ‘मंगती’ को अपराध घोषित करता है और इसके विरोध में ६ महीनो से लेकर २ साल तक कारावास तथा जुर्मानेका प्रावधान करता है. इस के चलते पुलिस और राज्य द्वारा ट्रांस समुदाय के प्रति हिंसा और भी बढ़ जायेगी. सर्वोच्य अदालत तथा २०१४ के विधेयक द्वारा दी गयी आरक्षण के अधिकार को भी यह विधेयक खारिज करता है. जिसके चलते सामाजिक तथा रोजगार एवं शिक्षा के माध्यम से मिलने वाले सुरक्षा अधिकार को भी नकारा गया है.

मूलतः भारतीय संविधान सामजिक समता तथा न्याय के उपयोजन का आग्रह करता है. सरकार भी ऐसे अल्पसंख्यांक तबकोके हितो तथा नागरी अधिकारोंकी रक्षा के दावे करती है. मात्र, समकालीन परिपेक्ष में सरकार द्वारा उठाये जानेवाले कदम हमें सार्वत्रिक शोषण कि खाई में फिरसे धकेलेनेमे लगे पड़े मालूम पड़ते है. सही मायनो में जरुरत है घटनकर्तावोंके सपनेके संविधानिक उपयोजन कि. साहब, इसी लिये हमने एक छोटासा पत्र प्रधानमंत्रीजीको भेजा है.

– कुणाल रामटेके

विद्द्यार्थी, दलित और आदिवास अध्ययन एवं कृति विभाग.

टाटा सामजिक विज्ञानं संस्थान, मुंबई.

ईमेल – ramtekekunal91@gmail.com

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