उनकी लड़ाई सन् 1947 के बाद शुरू हुई और आज तक चल रही, चलेगी भी क्यों नहीं , देश के नागरिक जो है! सच तो ये भी है की 1974 में बस पाव की जंजीरे बदली गयी और हमने उसे आज़ादी समझ लिया . आज मैं ऐसे तबके के बात कर रहा हूँ जो इस आज़ाद भारत के फुटपाथ पर शर्दी, गर्मी और बारिश भरी रात गुजारने को विवश है. नए नए अनुसन्धान , तकनीक चेतना के युग में नए नए गाड़िया आने लगे है तथा ऐशो–आराम के हर असंभव खोज हो चुके है, पर फिर भी वो तबका रिक्शा खींचने को मज़बूर हैं. भरपेट भोजन के लिए व्याकुल है, सड़क पर सोने को मज़बूर हैं. और हम आज़ादी के बिगुल बजाये फिर रहे हैं. हद्द तो तब हो जाती है जब हमारे देश के उन तबको की सूचि भी काँट –छांट लैर पेश की जाती है. आखिर ऐसा क्यों? कौन जिम्मेदार है ऐसी भयावह परिस्थिति का ? पहले वाले या अभी वाले? चलिए ये तो वाद विवाद के लिए मुद्दा बन कर बस रह जायेगा। शायद उनमे साहस नहीं हैं. शिक्षित नहीं है , या हमारे देश में उनकी कोई सुनता नहीं है बजाये नेताओं के वो भी चुनाव के दौरान. आज हमारे देश के राजनेताओ या यूँ कहे की राजकुमारों और राजकुमारियों को इन तबको की याद बस चुनावी बर्फ़बारी में ही आती है और चुनाव संपन्न होने तक ही याद रहती भी है उसके बाद चलते फिरते नज़र आइये और हम आपके है कौन ! ऐसा नहीं है की उन तबको के पास कोई ताकत नहीं है, मगर कभी कभी एहसास होता है वो ताकत काम और बच्चों की खेलने वाली झुन–झुना अधिक मालूम पड़ती है जो एक–आध बार बजा कर अपने आपको आज़ाद कह कर गर्व महसूस कर लेते है, और तो और चुनावों के समय उन्हें नगद कैश भी दिए जाते हैं और उनके लिए इससे ज्यादा ख़ुशी क्या होगी , जिसे दो वक्त की रोटी का भरोसा न हो खुद से उसे कुछ वक्त के रोटियों के दाम मिल जाये तो ख़ुशी तो होगी ही!दुःख की बात है की इन्हे पता भी नहीं की आज़ादी किस चिड़िया का नाम हैं. समय– समय पर सरकार इन तबको के लिए विकास की योजनाएं निकलती है मगर खामियां भी इतनी है की सही से विकास पैदा नहीं हो पाया, होगा भी कैसे! पैदाइश करने के मुलभुत तरीके में ही खामियां भरी पड़ी हैं. एक तो मुद्रा राशि काम ऊपर से इन तबके के लोगो तक पहुंचते पहुंचते बसेंगे तब ना! आज गांधी पटेल और अंबेडकर होते तो रो रो भरते जो देश की परिकल्पना उन्होंने किया वो तो कल्पना बन के रह गयी. तो क्या ये मेरा आपका और हमारा देश ऐसे ही रहेगा? असल मायने मे आज़ादी तभी सम्भव होगी जब हममे से हर एक की मानवीय चेतना जागृत होगी हमसभी परायेपन से ऊपर उठकर एक दूसरे को अपना मानेंगे और एकजुट होकर एक कठोर आवाज़ उठाएंगे. इसे केवल मुद्दा बनाकर न सिर्फ पहल हो बल्कि इसपर उचित कार्यवाही भी हो जिसमे आम जनता की प्रमुख भागीदारी हो , देश के कोई नागरिक पीछे ना छूटे , देश का हर नागरिक खुश रहे , ख़ुशी का पैमाना में आगे बढे, उदहारण के लिए पड़ोस का देश भूटान सबसे बढ़िया है,जहाँ बाकी देश अपने देश का विकास सकल घरेलु उत्पाद के पैमाना पे मापते है मगर भूटान अपना विकास ख़ुशी के पैमाना पे मापता है और वो बाकि सभी देशो से खुश है. सिखने की जरुरत है हमे भूटान से. तब जाकर कही होगी असल मायने में आज़ादी और तभी होगी विकास, वर्ण कदापि नहीं।
एक तबका तड़पता हुआ
“भारत” आज़ाद है, और आज़ाद भारत का सही अभिप्राय यही है की हमलोग अर्थात भारत के सभी नागरिक आज़ाद हो गए है। मगर किससे आज़ादी मिली? अंग्रेज़ो की गुलामी से। हमने अंग्रेज़ो से तो आज़ादी पा लिया मगर सच्चाई तो ये आज भी हमारे देश के ऐसे तबके है जो आज़ाद होने को व्याकुल हैं। सच तो ये भी है की 1974 में बस पाव की जंजीरे बदली गयी और हमने उसे आज़ादी समझ लिया.
और हाँ एक बात लिखना भूल गया था भारत माता की जय।