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शहर में छूटता हमारा गाँव

हम अपना गाँव छोड़ शहर में कमाने आ जाते हैं और बस भी जाते हैं लेकिन इन सब में कहीं न कहीं हमारा गाँव पीछे छूट जाता है । शहर में आने के बाद कमाई के कई सारे अवसर हमारे सामने होते हैं । लेकिन गांव में इसकी सुविधा नहीं है या तो आप खेती कर सकते हैं या कोई छोटी सी दुकान चला सकते हैं । जहाँ तक देखा जाये तो एक गाँव का इंसान शहर आ कर कुछ कमाता नहीं है सिर्फ खर्च होता है । अपनी मूल ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अगर आपको अपने घर परिवार छोड़ना पड़ रहा है तो ये चिंता का विषय है । चाहे वो बीज हो,खेती का सामान हो या फिर घर का कोई सामान उसे लेने के लिए घंटो की यात्रा करना फिर वापस जाना पैसे और समय दोनों की खपत है ।

युवाओं को उनके घर के पास रोज़गार के अवसर नहीं मिलते इसलिए उन्हें अपना घर छोड़ दूसरे शहर भागना पड़ता है । जहाँ सिर्फ उनका शोषण होता है और कुछ नहीं । पैसे कमाने के लिए जब ख़ुद को गवाने पड़ जाये तो ये भी कोई ठीक फैसला नहीं लगता मुझे ।

सरकार अगर इन समस्याओं को ज़िम्मेदारी से ले तो हम उन खत्म होते गाँवों को बचा सकते हैं। क्यों कि अगर वहाँ कोई बचेगा ही नहीं तो अनाज कहाँ पैदा होगा। मुझे नहीं लगता कि हम तकनिकी में इतने विकसित हो चुके हैं कि खाने की ज़रूरत ना पड़े।

या फिर ये समस्या इतनी छोटी है जिसके ऊपर बात करना बेकार है ?

-सूरज सरस्वती

 

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