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राजस्थान में हत्या, शोर के समय में शांत बातें

लव जिहाद : शम्भू लाल और अफराजुल

प्रेम संघर्ष ? जी हाँ इस शब्द युग्म के लिए वदतोव्याघात, आकाश कुसुम, बंध्यापुत्र कुछ इसी तरह की व्याख्या तर्क शास्त्र की पुस्तकों में हमको मिलती है. प्रेम भाव है इससे तो ईश्वर भी बंध जाता है यह अवर्णनीय है I जिहाद दो प्रकार के होतें है जिहाद ऐ असगर छोटा संघर्ष जो दुनियावी बुराइयों के लिए किया जाता है जबकि जिहाद ऐ अकबर बड़ा संघर्ष है जो खुद की बुराइयों के खिलाफ किया जाता है I लेकिन असमझनीय और उद्देश्यपूर्ण राजनीतिक ‘लव जिहाद’ एक प्रभाव पैदा करता है जो शम्भू लाल के तर्क तथा उसकी कुल्हाड़ी में दिखता है I

हिंसा : मिथ्या चेतना नहीं

दादरी लिंचिंग। इसके लिये हमारे यहाँ कोई परिचित शब्द नहीं है। शब्दावली आयोग इसके लिये अबूझ सा “अपहनन” शब्द गढ़ता है। अपहनन बिना किसी व्यवस्थित न्याय प्रक्रिया के अनौपचारिक भीड़ द्वारा दिया गया प्राणदण्ड है। यह सिर्फ हत्या नहीं है। दादरी लिंचिंग की हत्यारी भीड़ के दुष्कृत्य के साथ ही देश में घट रही कुछ अन्य घटनाओं ने हमारे सामाजिक राजनीतिक ताने बाने को झकझोर कर रख दिया है। जहाँ सजग नागरिको में इन घटनाओं को लेकर बेचैनी व्याप्त है वही राष्ट्रपति महोदय भी चिंता ज़ाहिर कर चुके हैं। इन घटनाओं की व्याख्या मात्र साम्प्रदायिकता की मिथ्या चेतना के आधार पर कर के ख़ारिज नहीं किया जा सकता है बल्कि इसके ठोस सामाजिक राजनीतिक पहलू हैं। जहाँ भारत के सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में लंबे समय से इकठ्ठा हुए असंतोष को अब हवा मिल रही है वहीँ दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में चिंता की लहरे उठाई जा रहीं हैं। परिणाम स्वरुप सामुदायिक शिकायतें समाधान के लिए स्वतंत्र कार्यवाही को अंज़ाम दे रही हैं। इस तरह की कार्यवाही अभिव्यक्ति के सभी रूपों तथा लोकप्रिय माध्यमों में और समाज के हर स्तर पर बढ़ रही है।

चिंता : पंथनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक

अपने तर्कों और समर्थकों के साथ अपने को अल्पसंख्यक कहने वाला देश का दूसरा सबसे बढ़ा धार्मिक समुदाय अभी भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में पचा नहीं पा रहा है। यही नहीं उसे भारतीय राष्ट्र राज्य की अन्य संस्थाओं से भी बदस्तूर शिकायतें है इसे हम याकूब के प्रकरण से देख सकतें हैं। राज्य की कुछ कार्यवाही, योग को सरकारी प्रोत्साहन, समारोहों, टेलीविजन के सीरियल और सबसे बढ़ कर सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों के वक्तव्य इत्यादि भी इनके लिए शक और चिंता के दायरे में हैं। इन्हें लगता है कि भारत का पंथनिरपेक्ष स्वरुप कहीं कमजोर हो रहा है।

असंतोष : पंथनिरपेक्षता और बहुसंख्यक

जो धार्मिक बहुसंख्यक समुदाय है उसके लिए इस तरह की सभी चिंताएं असंतोष का कारण हैं। इन चिंताओ को वह राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल मान रहा है। साथ ही इन्हें भारत की पंथनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवाद का ही दूसरा रूप लगता है। यह सेकुलरवाद के लिए पहले हिन्दी में धर्मनिरपेक्षता शब्द लाता है और फिर इसके वर्तमान प्रतिरूप को वह विरोधाभासी घोषित कर के इसे असंभव परियोजना सिद्ध कर देता है। यह अपनी चयनित परंपरा को पंथनिरपेक्षता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति घोषित करता है जिसे वह सर्वधर्मसमभाव कहता है।

नवसाम्प्रदायिकता : धर्म का सेकुलर इस्तेमाल

स्वयम्भू सेकुलर जो अपने लिए अक्सर धर्मनिरपेक्ष शब्द का ही प्रयोग करतें हैं। इनमें से ज्यादातर की फ़ितरत ऐसे उद्देश्यपूर्ण बयान जारी करने की है जिनसे धार्मिक लोगों की भावनाएं आहत हों। चूँकि ये ज्यादा से ज्यादा लोगों को आहत करना चाहतें हैं अतः इनके निशाने पर अधिकत्तर बहुसंख्यक ही होतें हैं। स्वघोषित नास्तिक सेकुलर तो अपने लिये पूरा आसमान खुला रख छोड़ें हैं इनके लक्ष्य पर सभी धार्मिक समुदाय के लोग हैं। ये समाज उत्तेजक लोग मिथ्या चेतना को हक़ीक़त में बदलने की क्षमता रखतें है। यह एक तरह से धर्म का सेकुलर इस्तेमाल है जिसे हम नव साम्प्रदायिकता कह सकतें हैं। यहाँ पर अपवादों को ध्यान में रखना चाहिए।

टेलीविजन और सोशल मिडिया : दुःस्वप्न का अंतहीन प्रवास

टेलीविजन हमारे घरों में सामूहिक दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास लाता है यह मुद्दो के बारे ठीक ढंग से सोचने और समझने की हमारी क्षमता में कमी ला देता है। अब हमारा जीवन परदे और मोबाइल स्क्रीन पर दिखने वाले यथार्थ से भिन्न नहीं रहा। सभी तरह की चिन्ता, असंतोष और विवाद को टीआरपी की चाह वाला इलेक्ट्रानिक मिडिया तथा पसंद और नफरती चाह वाला सोशल मिडिया अंतहीन प्रवास पर रखे हुए है।

इतिहास : आविष्कार और राजनीतिक इस्तेमाल

आज हम सब पहले से ज्यादा ”जटिलताओं की सामान्य स्थिति” में रहने को अभिशप्त हैं, जहाँ पर इतिहास क्या ज्यादातर विज्ञान का सच भी उद्देश्यपूर्ण शब्दों की बाज़ीगरी है। सभी प्रकार के ज्ञान की खोज सत्ता और प्रभुत्व की राजनीति से सीधे तौर पर जुडी हुई है। इन सब में इतिहास इस बात में अनोखा है की यह सभी को उसकी जरुरत के अनुसार सामग्री प्रदान करता है। लिखे गए इतिहास से कोई संतुष्ट नहीं है , सभी को इससे शिकायत है। हाँ ! कुछ को तो इतिहास से ही शिकायत है। उपरोक्त तीनो शक्तियां अपनी सामग्री इतिहास अर्जित करतीं है तथा उसकी अपनी उद्देश्यपरक व्याख्या अपने औपनिवेशिक इतिहास की साम्राज्यवादी धारणा से ग्रहण करती हैं।

चरित्र : तार्किक लोग

जब ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करना कठिन हो जाता है तो हम उसे सिद्ध करने की कोशिश करतें हैं और जब पड़ोसी के लिए हमारे दिल में मुहब्बत ख़त्म हो जाती है तो हम खुद को इस कायल करने की कोशिश करतें हैं कि उनसे नफ़रत करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। सभी समुदाय अपनी तर्क क्षमता का प्रयोग एक दूसरे को नीचा दिखाने तथा हराने में कर रहें हैं।

धर्मयोद्धा : धर्महीन चरित्र

आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च समानमेतत्पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
अगर किसी मनुष्य में धार्मिक लक्षण नहीं है और उसकी गतिविधी केवल आहार ग्रहण करने, निंद्रा में,भविष्य के भय में अथवा संतान उत्पत्ति में लिप्त है, वह पशु के समान है क्योकि धर्म ही मनुष्य और पशु में भेद करता हैं| दस लक्षण जो कि धार्मिक मनुष्यों में मिलते हैं वह हैं।
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
धैर्य न छोड़ना , बिना बदले की भावना के लिए क्षमा करें ,मन को नियंत्रित करे ,अस्तेयं, विचार, शब्द और कार्य में पवित्रता, इंद्रियों को नियंत्रित कर के स्वतंत्र होना, विवेक जो कि मनुष्य को सही और गलत में अंतर बताता हैं , भौतिक और अध्यात्मिक ज्ञान , जीवन के हर क्षेत्र में सत्य का पालन करना, क्रोध का अभाव क्योंकि क्रोध ही आगे हिंसा का कारण होता हैं। सभी धर्मों के यही मूल लक्षण यही हैं। क्या इनमें से एक भी मुम्बई या दादरी जैसे धर्म योद्धाओं के चरित्र का भाग है।

आयात : संस्कृतियों के बीच संघर्ष

सैमुअल पी हटिंगटन ने अपनी किताब क्लैस ऑफ़ सिविलाइजेशन एंड रिमार्किंग वर्ल्ड ऑर्डर में जहाँ इतिहास की अग्र गति के लिए सभ्यतामूलक रास्ते पर जोर दिया और इस्लाम कनफ्यूसियस बौद्ध और हिन्दू भारत की चुनौतियों को इतिहास का नया मोर्चा करार दिया। वहीँ अपनी एक अन्य पुस्तक हू आर वी में आंग्ल सैक्सन प्रोटेस्टेंट शुद्धता एकता तथा इनकी अन्यों से भिन्नता पर जोर दिया। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक राजीव मल्होत्रा हिन्दू कार्यकर्त्ता हैं जिनकी प्रसिद्धि बढ़ रही है। इनकी दो चर्चित किताबें ब्रेकिंग इंडिया और बीइंग डिफरेंट अपने नाम से ही बहुत कुछ कहती है। पहली किताब जहाँ भय पैदा कराती है वहीँ दूसरी किताब इसका समाधान अन्यों से अलगाव की समझ को देती है। इसी तरह के विचार मुस्लिम दुनिया में चर्चित जाकिर नायक के हैं। आईएसआईएस की गतिविधियों से भी अन्य समाजों में हलचल व्याप्त हो रही है।

समुदाय : राष्ट्र का शनीचर

राष्ट्र नागरिको से बनता है न की समुदायों से लेकिन इसके आधुनिक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया के पहले ही सामुदायिक लामबंदी प्रारम्भ हो गई थी। प्लासी के युद्ध को प्लासी क्रांति कहा गया और हिन्दुओ को समझाया गया
कि यह मुस्लिमों के क्रूर शासन से उनकी मुक्ति है। सोमनाथ पर आक्रमण से हिंदुओं की आत्मा हज़ार सालों से तड़पती रही इसका पहला दावा 1848 में ब्रिटेन की कॉमन सभा में किया गया। 1857 की क्रांति के बाद हंटर की इंडियन मुस्लमान के माध्यम से मुसलमानों से यह कहा गया कि हिंदुओं से अलग रहने में ही उनकी भलाई है और इसके लाभ गिनाये गए।
1906 में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ और 1924 में हिन्दू महा सभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे सामुदायिक संगठन भी अस्तित्व में आ गए। जब इनके अस्तित्व और दंगों को देख कर गांधी ने 1927 में ही कहा कि हिन्दू मुस्लिम संबंधों की समस्या का समाधान अब मनुष्य के बस से बाहर और सिर्फ भगवान के हाथों में है। क्या हुआ इतिहास इसका गवाह है। समुदाय की राजनीति से हमेशा समुदाय में एक अलग राष्ट्र बनने की संभावना होती है। अब फिर समुदाय राजनीति के केंद्र में हैं।

समाधान : सीमाबद्ध समझ को तोड़ना

लोगों के लिए किसी सीमाबद्ध समझ की रुझान को त्यागना आसान नहीं है, वह भी तब जब यह व्यक्ति की सामाजिक पहचान और समझ के आधार पर विकसित हुआ हो। वास्तव में ये सामाजिक संरचना के वे पहलू हैं, जिन्हें बदलना मुश्किल है। लेकिन कुछ चुने हुए पहलुओं में सुधार लाया जा सकता है या उनके कठिन प्रभाव को विमर्श और कार्यवाही के संयुक्त असर से कम किया जा सकता है। इतिहास में ऐसा हुआ है। राज्य को समस्याओं के समाधान के लिए अनेको उपाय करने पड़ेंगे तथा साथ ही जनता के ध्यान को धार्मिक समस्याओं से हटा कर दूसरी ओर ले जाने की कोशिश भी करनी होगी। धर्म का आलोचनात्मक आदर विकसित करना होगा।

पथप्रदर्शक : हमारा संविधान

हम सभी नागरिको और राज्य की पथप्रदर्शक पुस्तक भारत के संविधान की प्रथम पँक्ति का प्रथम शब्द जब “हम” आता है जो भारत के लोग हैं, तो अधिकारों के साथ ही इस हम से कुछ पवित्र दायित्व भी जुड़ जातें हैं। वह दायित्व जो इसे एक राष्ट्र बनातें हैं। अपने साथ ही भारत राज्य को भी हमने कुछ अधिकार और कर्तव्य सौपें हैं जिसके दम पर वह हमारे कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है। हमारे और भारत राज्य के बीच कैसा सम्बन्ध हो इसका मार्गदर्शन करने के लिए हमारे पास लिखित संविधान हैं। हम और राज्य तथा इसके बीच का सम्बन्ध यह तीनो चीजे उलझन और बेचैनी के दौर में हैं इन्हें हमें दूर करना होगा।

कर्तव्य : भारत के लोग और राज्य

संविधान का “हम” सवा अरब बेटे बेटियों का सामूहिक मानस है जिसे भारत माता कहतें हैं और जिसकी हम जीत चाहतें हैं। यह तभी होगा जब नागरिक के रूप में हम संविधान में निहित अपने कर्तव्य को याद करें और उसका पालन करें। जैसे संविधान , इसके आदर्श और संस्थाओं का आदर करें। राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का पालन करें। भारत की प्रभुता एकता अखंडता की रक्षा का करें। समरसता और सामान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करें। सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझें और उसका परिरक्षण करें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानववाद ज्ञानार्जन और सुधार की भावना का विकास करें हिंसा से दूरी रखे । हम भारत के लोगों ने भारतीय राज्य को अधिकारों के साथ ही कुछ कर्तव्य सौंपा है जिसके दम पर वह हमारे कल्याण के लिए कटिबद्ध है। राज्य लोक कल्‍याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्‍यवस्‍था बनाने, एक समान नागरिक संहिता विकसित करने, दुधारू पशुओं को संरक्षण देने और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए निर्देशित किया गया है।

पंथनिरपेक्षता : राज्य का धर्म

भारतीय राज्य के लिए पंथनिरपेक्षता संवैधानिक धर्म है। इसका पालन करना प्रत्येक सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है। इसकी पंथनिरपेक्ष धारणा सामुदायिक हितो से ऊपर है। इसका मानना है कि धर्म निजी जीवन की चीज है सार्वजनिक जीवन की नहीं है। समन्वित संस्कृति पर आधारित राष्ट्र समुदाय से ऊपर है। यह आशा करता है कि सेकुलरवाद की मदद से राष्ट्र के प्रति निष्ठा धार्मिक दावेदारियों से ऊपर समझी जायेगी। राज्य सभी पंथो से खुद को अलग रखेगा तथा किसी को भी शाही चर्च नहीं बनने देगा।

विरासत : समागम और तार्किक आदर

भारत में उत्तर वैदिक काल में ही वेदों की आलोचना शुरू हो गई थी। यहाँ तक की ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में ईश्वर की सीमा बता दिया गया है। विश्व का पहला निरीश्वरवादी धर्म भारत में फला फुला। अशोक, अकबर, दाराशिकोह , गांधी आज हमारे लिए ही नहीं दुनिया के लिए अनुकरणीय हैं। विभिन्न धर्मो और संस्कृतियों के लंबे और और नतिज़ाबक्श टकराव का विनम्र योगदान बेहद रचनात्मक रहा है। जिससे हम समृद्ध हुए हैं। सोलहवीं सदी की बात है भक्त कवि से मिलने सूफी पधारे , अनुयाइयों को गरमागरम बहस की उम्मीद थी । पर ये क्या दोनों मिलते ही गले लग कर रोने लगे फिर अलग हुए और बिना एक शब्द बात किये चले गए । भक्त अनुयाई से न रहा गया पूछ बैठा । आपने बहस नहीं किया ? भक्त कवि बोले जो मुझे पता है वो उसे पता है और जो उसे पता है वो मुझे पता है दुनिया में बहुत झगड़े और दुःख हैं और हम कुछ कर नहीं पा रहें हैं यही सोच कर रोने लगे थे। हम अपने आधुनिक कर्मो से अपनी महान सभ्यता को क्षुद्र समझना सीख रहें हैं।

धर्म : अब शिक्षा आवश्यक

इस्लाम हिन्दू या दूसरे अन्य धर्मो से नफ़रत करने वालों में एक समानता होती है कि वे दूसरे धर्म के बारे में, यहाँ तक की अपने ही धर्म के बारे में, या ठीक से कहा जाय तो धर्म के बारे में ही कुछ नहीं जानते। अगर जानते भी हैं तो उन लोगों के माध्यम से जो इसका चयनित सन्दर्भ देतें हैं खुद की तारीफ और दूसरे धर्मों की निंदा जिनका उद्देश्य रहता है। भारतीय समाज एक धर्मप्रधान समाज है। भारत सरकार को अपने नागरिकों में धर्म के आधार पर नासमझी नहीं पैदा होने देना चाहिए। भारत सरकार और उसकी शैक्षणिक संस्थाओं को खुद इस बात की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। दसवीं तक के पाठ्यक्रम में ही सभी धर्मों की आधारभूत अवधारणाओं को रखना चाहिए। जिससे सभी को एक दूसरे के धर्म को जानने पहचानने का अवसर मिले। इससे समरसता बढ़ेगी।

व्यवहार : सहिष्णुता नहीं बंधुता चाहिए

भारतीय परिप्रेक्ष्य में सहिष्णुता एक पूर्णतया नकारात्मक शब्द और विचार है जो संविधान विरुद्ध भी है। ज्यादा सहज शब्दों में कहा जाय तो सहिष्णुता का अभिप्राय उन चीजों को सहन करना या बर्दास्त करना है जिसे हम नापसंद करतें हैं। यह मन का बोझ है। प्रश्न उठता है कि गलत चीजों को हम क्यों और कब तक बर्दास्त करें और अगर बात सही है तो हम उसे क्यों स्वीकार नहीं करें। सवाल यह भी उठता है कि हम कोई गलत बात करें ही क्यों जिससे उसे किसी को बर्दास्त करना पड़े। किसी को गाली देकर हम कब तक उससे सहिष्णुता की उम्मीद रख सकतें हैं। अपराध के शिकार व्यक्ति के प्रतिरोध को हम असहिष्णु कह कर कब तक उसका खून जलातें रहेंगे। सहिष्णुता और असहिष्णुता का खेल वर्चश्व के शोर से ज्यादा कुछ नहीं है। यह प्रतिरोध के स्वर को मुर्दा शांति से भर देने का एक षड़यंत्र मात्र है। यह एक सामाजिक पाखंड है जो अस्वीकार्यता को स्वीकृति देता है। समाज को हमेशा उस दहलीज पर रखता है जहाँ कोई भी छोटी चिंगारी इसमें आग लगा देती है। सहिष्णुता का विचार हमें ऐसा समाज मुहैय्या कराता है जिसमे नफ़रत का विचार साथ साथ चलता है जो सहमति और स्वीकार्यता में बाधा बनता है। सहिष्णुता से इतर बंधुता एक संविधान सम्मत शब्द और विचार है। यह हमारी परंपरा से भी मेल खाता है। अशोक का बारहवां दीर्घ शिलालेख अपने सम्प्रदाय को आदर देने के साथ ही दूसरे सम्प्रदाय को भी आदर देने की बात करता है। यहाँ आदर की बात हो रही है न कि बर्दास्त करने की। 1948 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत मानव अधिकार’ की घोषणा के अनुच्छेद 1 में यह कहा गया है कि ‘‘सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से स्वतंत्र और समान हैं। उन्हें बुद्घि और अंतश्चेतना प्रदान की गयी है। उन्हें परस्पर “भ्रातृत्व” की भावना से रहना चाहिए।’’ भारत के संविधान की कुंजी उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग समस्त नागरिकों में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, “बंधुता” बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ उद्देश्य भारतीय नागरिकों के मध्य “बंधुत्व” की भावना स्थापित करना है, क्योंकि इस के बिना देश मे एकता स्थापित नही की जा सकती है। संविधान में “सहिष्णुता” नहीं बल्कि “बंधुता” की भावना के साथ रहने को कहा गया है। बंधुता पूर्णतया सकारात्मक मन का उल्लास है जिसमे स्वीकार्यता भरी है। यह सामाजिक प्राण वायु है। जिस प्रकार एक भाई को चोट लगे और आह दूसरे की निकले, एक की संवेदनाएं दूसरे के साथ इस प्रकार एकाकार हो जाएं कि उन्हें अलग करना ही कठिन हो जाए तो वास्तविक बंधुता वही कहलाती है। नागरिकों की ऐसी गहन संवेदनशीलता राष्ट्र निर्माण का परमावश्यक अंग है।

निष्कर्ष : हम खुद को पहचाने

अब तक के बेहतरीन हथियारों के साथ देश की फ़िज़ा में बेहद ताकत चतुराई और धूर्तता के साथ एक ज़हरीली हवा का संक्रमण किया जा रहा है। यह एक खास तरह की समझ का आतंकी प्रसार है जो लोगों के दिमाग में डाला जा रहा है। शब्दों और सामाजिक अवस्थापनाओं के मायने की हमारी समझ पर डाका डाला जा चुका है। यह हम सवा अरब लोगों का सामूहिक मानस ही है जो इसको असफल कर सकता है। जरुरत है खुद को पहचानने कि और यह इतना भी मुश्किल नहीं है क्योंकि यह बस यह है कि हम भारत के नागरिक हैं। हमारे कुछ साझे दुनियावी शत्रु हैं जिनसे हमें लड़ना है वह हैं भूख ,बीमारी ,बेरोजगारी ,अशांति , कलह। हम एक होकर इनसे जितेंगे। इस तरह से भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक विकासशील लोकतंत्र में छोटी मोटी असहमति आती जाती रहेगी और उसका विमर्शात्मक हल निकलता रहेगा

राजीव कुमार पाण्डेय

असिस्टेन्ट प्रोफेसर इतिहास

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