जब से बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के द्वारा ‘दहेज मुक्त बिहार हमारा’ की शुरुआत हुई है, तब से हर शहर, गांव, गली-मोहल्ले, घरों में इसकी चर्चाएं बढ़ गई हैं। लोगों की ज़बान पर मुख्यमंत्री की कही बातें ही सुनने को मिल रही हैं कि दहेज लेने और देने वाली शादियों का बहिष्कार करें या अगर कोई भी दहेज लेते पकड़ा गया तो सीधे जेल की हवा खानी पड़ेगी आदि।
पैगम्बर मुहम्मद साहब ने कहा है कि सबसे अच्छा विवाह वो है, जिसमें वर और वधू दोनों के परिवार पर कम से कम आर्थिक बोझ पड़े। निकाह/शादी में वलीमा और मेहर शौहर की ज़िम्मेवारी है। इस मामले में वधू को एक पैसा भी खर्च नहीं करना होगा। अगर वर पक्ष प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी तरह का भी दबाव डाले या कन्या पक्ष से उपहार ले तो इसे दहेज माना जाएगा और उन्हें अल्लाह के दरबार में इसका हिसाब देना होगा।
अगर आंकड़ों पर नज़र डालें तो साफ़ हो जाता है कि दहेज को लेकर लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। जहां एक ओर संपन्नता और शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर हमारे समाज और परिवार की पुरानी और ढकोसलों से भरी मानसिकता बदलने की नाम नहीं ले रही है। कुछ लोग तो इसे परंपरा की नाम देते हुए भी हिचक महसूस नहीं करते हैं।
जो जितने ज़्यादा अमीर हैं वो उतने ही ज़्यादा दहेज की मांग करते हैं या यूं कहें कि जिसके बेटे का पद जितना बड़ा हो उसके हिसाब से रक़म तय की जाती है। डॉक्टर, इंजीनियर, सरकारी अफसर, बैंक पी.ओ., क्लर्क और चपरासी आदि सबके रेट तय हैं। फिर इनके दाम के अनुसार वधूपक्ष के लोग अपनी आर्थिक हैसियत के हिसाब से वर को ख़रीदते हैं। अगर इन सबके बावजूद लड़की के घर वाले उनकी मांगों को पूरा नहीं कर पाते तो इनकी बेटी को दहेज की भेंट चढ़ा दिया जाता है।
दहेज के लिए औसतन हर रोज़ 20 से 21 हत्याएं देश में हो रही हैं। साल दर साल दहेज के नाम पर होने वाली इन हत्याओ का बढ़ता आंकड़ा इस बात का प्रमाण है कि देश में दहेज विरोधी कानूनों को सख्त बनाने और दहेज के खिलाफ व्यापक स्तर पर अभियान चलाने का भी कोई खास असर नहीं हो पा रहा है।
अगर आंकड़ों की बात करें तो उत्तर प्रदेश के बाद बिहार दहेज हत्याओं के मामले में दूसरे स्थान पर है। यहां हर रोज़ लगभग तीन बेटियां दहेज के लिए मार दी जाती हैं। किसी भी समाज की पहचान इस बात से होती है कि उस समाज में महिलाओं की स्थान क्या है? महिलाओं के साथ बढ़ रहे अपराध यह दर्शाते हैं कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
अभी कुछ हफ्ते पहले की ही बात है, मैं घर पर अखबार पढ़ रही थी, उसमें बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी के द्वारा ‘दहेज मुक्त बिहार’ के बारे में कुछ बातें दी हुए थी। मैं ये ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रही थी। उस वक्त मेरे घर पर एक हमारे एक रिश्तेदार आए हुए थे, मेरा उद्देश्य इस बारे में उनके विचार जानना था और मैं इस प्रयास में सफल भी रही। मैंने उनसे पूछा कि इस बारे में आपका क्या कहना है? उन्होंने कहा, “मैं दहेज लेने में पीछे नहीं रहूंगा, आखिर मैं भी तो एक बेटे का बाप हूं।”
एक शिक्षित और अच्छे पद पर कार्यरत व्यक्ति से ये सुनकर मैं हतप्रभ थी। जब पढ़े-लिखे लोगों की सोच इतनी दयनीय है तो हम बाकी लोगों से क्या आशा कर सकते हैं?
कहा जाता है कि भारत में दहेज एक पुरानी प्रथा है। मनुस्मृति में ऐसा उल्लेख आता है कि माता-पिता, कन्या के विवाह के समय दायें भाग के रूप में धन संपत्ति, गउवें (गायें) आदि कन्या को देकर वर को समर्पित करे। यह भाग कितना होना चाहिये, इस बारे में मनु ने उल्लेख नहीं किया। समय बीतता चला गया और स्वेच्छा से कन्या को दिया जाने वाला धन, धीरे-धीरे वर पक्ष का अधिकार बनने लगा और वरपक्ष के लोग तो वर्तमान समय में इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार ही मान बैठे हैं।
मगर सवाल यहां है कि इसे रोके कैसे? ज़ाहिर है कि कानूनी स्तर पर दहेज समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता। उसके लिए परिवार और समाज को अपनी सोच और मान्यताओं को बदलना होगा जिसमें हम जैसे युवा ही अहम भागीदारी निभा सकते है।