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“दिल्ली के उस बच्चे से टक्कर ने मानो मेरा पूरा बचपन फ्लैशबैक में दिखा दिया”

दिल्ली के बवाना की तंग गलियों में एक मासूम के हाथ में झाड़ू देखी तो लगा कि ये बच्चा खेल-खेल में अपने घर से झाड़ू उठा लाया होगा। मैं उसको नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ ही रहा था तो देखा कि चार-पांच बच्चे उसको आवाज़ लगाते हुए उसके पीछे भागे आ रहे थे। गली में आड़े-तिरछे भागते इन बच्चों को सामने से आते लोगों की कोई परवाह नहीं थी। किसी की कमीज़ फटी हुई थी, तो किसी की कमीज़ के बटन गायब थे। काले-पीले से दिखने वाले इन बच्चों में बस बचपन की एक उमंग नज़र आ रही थी।

भागते हुए आ रहे उन बच्चों में से एक बच्चा जल्दबाज़ी में मेरे पैर से टकराकर गिर गया। बच्चे को गिरा हुआ देखकर पहले तो मैं झुंझला गया, लेकिन फिर उस मासूम को प्यार से उठाकर खड़ा किया और पूछा, “बेटा कहीं लगी तो नहीं?” जवाब में उस बच्चे ने न तो सॉरी कहा और न ही मेरी तरफ उठकर देखा। लगभग चार साल का ये बच्चा मेरी किसी बात का जवाब दिये बिना ही आगे बढ़ गया। लगता था उसे अपनी टोली के दूसरे बच्चों के साथ जाने की जल्दबाज़ी थी। वैसे भी उसके साथ वाले बाकी बच्चे काफी आगे निकल चुके थे।

फोटो प्रतीकात्मक है।

मैं अभी पीछे मुड़कर देख ही रहा था कि एक आवाज़ आयी, “बाबूजी ये बच्चे किसी की नहीं सुनते, आप आगे बढ़ो। हमारे इलाके में झाड़ू वाली पार्टी जीती है तो इऩ बच्चों को कहीं से मुफ्त में झाड़ू मिल गई होगी, इसलिए ये बच्चे झाड़ू के साथ उधम मचा रहे हैं।” पान की पीक थूकते हुए लुंगी में खड़े मोटे से एक युवक ने मुझसे ये बातें कही।

मैं अचानक सोचने लगा कि चुनाव, कौन से चुनाव? दिल्ली में तो कोई चुनाव हैं ही नहीं, फिर ये पार्टी कौन से चुनाव जीत गई? मुझे लगा कि शायद यहां के लोग कम पढ़े-लिखे हैं, इसलिए इनके यहां हर रोज़ चुनाव का माहौल होता होगा। फिर अपनी मंजिल की तरफ आगे बढ़ते हुए मैने इलाके में कई जगह पोस्टर और बैनर लगे देखे तो मुझे समझ आया कि हां यहां तो बवाना विधानसभा के उपचुनाव हुए हैं।

गली में लगे हर पोस्टर में नेता जी का मुस्कराता हुआ चेहरा नज़र आ रहा था। किसी ने टोपी में फोटो खिंचवाई थी तो किसी के गले में पार्टी के सिंबल वाला पटका था। हर पोस्टर जैसे कुछ कह रहा था। इन पोस्टरों में नेताओं के मुस्कराते हुए चेहरे देखकर मुझे भी हंसी आ गई। मैं हर पोस्टर को देख मंद-मंद मुस्कुरा रहा था।

यकीन मानिये मैं इन पोस्टरों की बनावट और नेताओं के चेहरे देखकर नहीं हंस रहा था बल्कि ये सोचकर हंस रहा था कि शायद मैं हंसना भूल गया हूं और खुद हंस कर देखूं कि मैं कैसा लगता हूं। मैं पास ही खड़ी एक गाड़ी की खिड़की के साईड वाले शीशे पर अपना चेहरा देखने लगा। मेरे गाल फूले हुए थे, चेहरे पर एक बनावटी हंसी थी और कंधों पर पीछे एक भारी सा बैग लटका हुआ था।

चेक वाली कमीज़ पहने हुए मैं खुद को काफी देर तक इस शीशे में देखता रहा। अचानक मुझे भी मेरा बचपन याद आ गया। वो चेहरे की खिलखिलाहट, वो दोस्तों का साथ स्कूल की छुट्टी की घंटी बजते ही सबसे पहले बस्ता लेकर भागना। स्कूल के बाहर खड़े बूढ़े अंकल की रेहड़ी से मक्की चुराकर खाना। आज अचानक न जाने कैसे बचपन फिर से हिलोरे मारने लगा था, शायद उस झाड़ू वाले बच्चे की एक मासूम टक्कर ने मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया था।

ज़िंदगी की भागदौड़ में कैसे 24 साल पीछे छूट गए, पता ही नहीं चला। आज यह सब सोचकर काफी हंसी आ रही थी। वो ट्यूशन सेंटर के बाहर सीढ़ियों पर बैठे रहना। मास्टर जी के डर से किसी के आगे गिड़गिड़ा कर उसे अपना रिश्तेदार बनाकर स्कूल में ले आना। बचपन की नादानियां और नटखट शैतानियां आज आंखों के आगे घूम रही थी। स्कूल से घर तक का सफर तय करते हुए भी डरने वाले वो नन्हे कदम आज कैसे बवाना की इन तंग गलियों में बेखौफ घूम रहे थे।

मन में सोचते-सोचते आगे बढ़ रहा था तो कंधे पर लटका मेरा ऑफिस का बैग मानों मुझे दर्द देने लगा। कॉलोनी में पास में लगी एक सरकारी बेंच पर बैठकर मैं अपने अतीत के बारे में सोचने लगा। तीन कमरों के मकान में, मैं अपने माता-पिता की एकलौती संतान था। सरकारी नौकरी से रुखसत होने के बाद पिताजी ने तीन कमरों का अपना मकान खरीदा था। स्कूल के बाद, कॉलेज और फिर मेरी एमबीए की पढ़ाई पर उन्होंने अपने जीवन भर की पूंजी खत्म कर दी थी।

ज़िंदगी की इस दूसरी पारी में आज खुद को मैं काफी तन्हा महसूस कर रहा था। पिताजी का मेरी नन्ही उंगुलियों को पकड़कर मुझे पार्क में घुमाना, सुबह अपनी फटफटिया से मुझे स्कूल छोड़कर आना। शाम को मुझे बाज़ार लेकर जाना, अपनी पाई-पाई को मेरे उपर खर्च करना। मैं आज एक काबिल इंसान तो बन गया था, लेकिन मेरी काबिलियत पर ताली बजाने वाले मेरे अपने नहीं थे। आज मुझे याद आया कि ऑफिस में जब-जब मेरा प्रमोशन होता तो ऊपरी मुस्कान दिखाने वाले मेरे कई कलिग तो थे, लेकिन मेरी पीठ थपथपाने वाले अपने नहीं थे।

अचानक मेरी जेब में कुछ कंपन होने लगा। मेरा मंहगा फोन वाईब्रेशन के साथ जोर-जोर से बज रहा था। फोन उठाते ही ज़ोर से डांटने वाली आवाज़ में वंदना मैडम ने पूछा, “योगेश आज कितनी सेल हुई? जल्दी बताओ रिपोर्ट फाइल करनी है।”

मैं यादों के झरोखे से अचानक बाहर निकल आया। घड़ी में देखा तो शाम के चार बज चुके थे और मुझे याद आया कि मैं तो एक सेल्समैन हूं। मेरे सपनों की कोई कीमत नहीं, बस अपने बॉस के सपने पूरे करने के लिए मैं इस गली में घूम रहा हूं। मैं जल्दी-जल्दी चलता हुआ इस गली से आगे बढ़ा। पोस्टर वाले नेता जी अभी भी हंस रहे थे और मेरे चेहरे की हंसी गायब थी।

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