मौजूदा समय को अगर एक शब्द में बताना हो तो मेरे लिए वो शब्द होगा ‘डर’| ‘डर’, क्योंकि आजकल जैसा मैं महसूस कर पा रहा हूँ हर आम इंसान जो हिंसावादी नहीं है, डरा हुआ है | क्या पहले भी लोग इतना ही डरे हुए थे, या फिर whatsapp, facebook ने मेरा दिमाग खराब कर रखा है ? ये मेरा भ्रम है या सच्चाई ? एक साल हुआ मुझे नियमित रूप से इंटरनेट का इस्तेमाल करते, उससे पहले मैं अख़बार पढता था पर इंटरनेट पर उपलब्ध खबरें visuals के साथ बहुत ज्यादा विचलित करती हैं ,’दृश्य’, ‘शब्दों’ से ज्यादा प्रभावी साबित हुआ है | पहले भी अख़बार में हत्या, डकैती, बलात्कार की खबरें पढ़ी मैंने पर मन कभी इतना विचलित नहीं हुआ जितना की आज एक वीडियो क्लिप देखकर हो जाता है | ज्यादातर मौकों पर मेरी हिम्मत जवाब दे जाती है और मैं नहीं देख पाता।
मुझे समझ नहीं आता कि मेरा अनजान हो के खुश रहना ठीक था या अब ये सब देख के दुखी रहना, लेकिन एक बात मैं जरूर कह सकता हूँ कि इंटरनेट और सोशल मीडिया ने अपराध को नंगा ज़रूर किया है |लेकिन जब मैं अपने आस पास के लोगों से बात करता हूँ तो वो बोलते हैं कि अपराध तो पहले भी होते थे | जी हाँ ! अपराध पहले भी होते थे पर उनकी संख्या वो नहीं होती थी जो आज है, अपराधियों का मनोबल इतना नहीं बढ़ा था जितना कि आज है | पहले भीड़ की इतनी हिम्मत नहीं पड़ती थी की आये दिन अभियुक्तों को थाने से जबरदस्ती छुड़ा ले जाए, रक्षा में लगी पुलिस का ही बलात्कार और हत्या होने लगे , दिन -दहाड़े महिलाओं, बूढ़ों के हाथ पैर तलवार से काट दिए जाएँ,युवकों के सीने चाक कर दिए जाएँ ,उनके घरों में आग लगा दी जाये और उन्ही को दंगा भड़काने के जुर्म में जेल में डाल दिया जाये| किसी को भी, कोई भी अफवाह उड़ाकर आसानी से काटकर – पीटकर मार दे और चूँकि ये भीड़ ने किया है (या किसी अकेले हत्यारे ने धर्म के नशे में किया है) तो इसके खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई भी न हो | और तो और ऐसे कृत्यों को एक बड़े जन समूह का ‘अविरोध’ (मैं इसे मौन समर्थन कहूंगा) भी प्राप्त हो | कहने का मतलब ये है कि,अपराधियों की संख्या और उनके action में वृद्धि हो रही है तथा एक हिंसक ‘भीड़तंत्र’ का निर्माण हो रहा है| “अगर इंसान की ज़िन्दगी ही सुरक्षित नहीं तो बाकी सारी बातें बेमानी हैं|”
आजकल मैं बहुत डरा हुआ हूँ, मेरा ये डर मेरे सीने के नीचे और पेट के ऊपर जहां डायाफ्राम होता है न, वहाँ उबलता रहता है| मैं इस उबलते डर को हर समय महसूस करता हूँ, कभी-२ ये इतनी तेज़ उबलता है कि गले को चीरते हुए मुँह तक आ जाता है| मुझे कभी-२ लगता है कि मेरा ये डर किसी किस्म का phobia यानि मानसिक रोग है, फिर मैं सोचता हूँ कि अपनी बहन के साथ हुई छेड़खानी का विरोध करने पर पीट दिए जाने का डर क्या फोबिया है? किसी लड़की के साथ दोस्ती रखने के ‘अपराध’ में उसके possesive बॉयफ्रेंड से पिटाई हो जाने का डर क्या फोबिया है? बेवजह किसी के गाली देने का विरोध करने पर पीट दिए जाने का डर क्या फोबिया है? किसी अपराधी पृवृत्ति के सहकर्मी के भौंडे मजाक का विरोध करने पर पीट दिए जाने का डर क्या फोबिया है? या फिर ये डर इसलिए है कि मैं इन स्थितियों का बचाव नहीं कर सकता| कौन हैं ये लोग जिनसे मुझे डरना पड़ता है?और क्यों मैं अपना बचाव नहीं कर सकता?
ये कुछ सामान्य सी लगने वाली स्थितियाँ थीं जिनका सामना ‘मुझे’ करना पड़ा है पर मैं बिलकुल निश्चित तौर पे कह सकता हूँ कि बहुत से लोगों को इससे भी बुरी स्थितियों से गुजरना पड़ता होगा, कुछ लोगों को अपनी जान जाने का डर होगा, कुछ को एसिड अटैक , बलात्कार या अन्य शारीरिक हमलों का (क्योंकि धमकी इन्ही सब की मिलती है)| मैं फिर से अपना सवाल दोहराता हूँ, कौन हैं ये लोग जिनसे हमें डरना पड़ता है? और क्यों हम अपना बचाव नहीं कर सकते?
मुझे ‘मार’ यानि ‘शारीरिक क्षति'(तात्कालिक प्रभाव के रूप में, दीर्घकालिक प्रभाव के रूप में मानसिक क्षति भी) से बड़ा डर लगता है |क्या डरा हुआ व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ दे पायेगा? क्या डरे हुए व्यक्ति में आत्मविश्वास पनप पायेगा? क्या डरा हुआ व्यक्ति या समाज उतना ही उत्पादक होगा जितना की निर्भय व्यक्ति या समाज? मेरा पूरा बचपन मार खाते बीता है; स्कूल से छूटे तो घर में, घर से छूटे तो स्कूल में , मतलब कहीं राहत नहीं इसलिए अब मैं नहीं चाहता कि मुझे मार पड़े| मार – पिटाई यानि ‘शारीरिक क्षति’ का उपयोग टूल के तौर पर हमारे विद्यालयों में शिक्षकों द्वारा और घर में अभिभावकों द्वारा अनुशासन बनाये रखने यानि ‘लाइन सीधी’ रखने और ‘आवाज़ बंद’ करने के लिए आधिकारिक तथा मान्य रूप से होता आ रहा है, ज़रा ध्यान से देखिये इस टूल का जानलेवा इस्तेमाल आज कौन और किस तरह से कर रहा है?
‘शारीरिक क्षति’ की अंतिम परिणिति किसी की ‘हत्या’ के रूप में सामने आती है, मतलब आप सर झुका कर लाइन में चलने का विरोध करते हैं या अपनी बेहतरी की मांग करते हैं या फिर किसी ज्यादती के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं, या इनमें से कुछ करते भी नहीं और किसी खास कम्युनिटी से सम्बन्ध रखते हैं तो भी आपके खिलाफ ‘शारीरिक क्षति’ की अंतिम डिग्री यानि ‘हत्या’ नामक ‘टूल’ का इस्तेमाल किया जा सकता है।
जी हाँ ! मैं बिल्कुल एक निराशावादी, अवसादग्रस्त और बेहद नाकारात्मक विचार रखने वाला व्यक्ति हूँ, जिसे सिर्फ बलात्कार, हिंसा, हत्या और मरते हुए लोग ही दिखाई देते हैं|
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मुझे देश – दुनिया की तरक्की, ऊँची इमारतें
, जहाज, पनडुब्बी, चमचमाती सड़कें, कारें, आराम पहुंचाने वाली मशीनें बिल्कुल नहीं दिखाई पड़ती, मुझे दिखाई पड़ते हैं फुटपाथ पर भीख मांगते कूड़ा बिनते बच्चे, कुपोषण से मरते मासूम, गोलियां खाते, आत्महत्या करते किसान|
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नहीं दिखाई देतीं मुझे बड़े-२ संस्थानों, कंपनियों को चलाती महिलाएं, मुझे दिखती हैं एसिड से, आग से जला दी जाती , बलात्कार के पहले या बाद में गला रेतकर, जलाकर मार दी जाती लड़कियां|
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मुझे नहीं दिखतीं देश की तरक्की का पर्याय कही जाने वाली कंपनियाँ, मुझे दिखाई पड़ते हैं अपनी जान, इज़्ज़त और ज़मीन से हाथ धोते आदिवासी|
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नहीं दिखाई पड़ती मुझे सांस्कृतिक महानता, दिखाई पड़ती हैं मुझे लेखकों के घर की उन्ही के खून से रंगी दीवारें|
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नहीं दिखाई पड़ते मुझे गर्व से सीना चौड़ा कर देने वाली मिसाइलें, तोपें या परमाणु बम, मुझे दिखता है जीप के बोनट से बँधा असहाय युवक, अपनी आँखे pellet gun से गँवा चुका और सुरक्षाबलों से अपनी उंगलियां कटा चुका एक बच्चा, ठण्ड में जली रोटी खा के ठिठुरते जवान, गाय चोरी- बच्चा चोरी, बीफ के शक में पीट-२ कर मार दिए गए मुसलमान, अपने ही घरों से बेरहमी से बेदखल कर दिए गए ,अपने ही देश में शरणार्थी बने कश्मीरी पंडित|
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नहीं दिखाई देता मुझे संभ्रांत, सक्षम, शिक्षित मध्य वर्ग, दिखते हैं मुझे वीभत्स, पितृसत्तात्मक, संवेदनहीन, लोलुप परिवार|
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नहीं दिखाई देते मुझे दुनिया भर में नाम कमाते IT पेशेवर और कम्पनियाँ, दिखाई देते हैं मुझे blog लिखने वालों, RTI एक्टिविस्टों, पत्रकारों, मजदूरों, लड़कों, लड़कियों के क्षत शरीर और गालियाँ बकते फेसबुक ट्रॉल्स|
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नहीं दिखाई देते मुझे AIIMS, IIT, IIM, JNU जैसे प्रतिष्ठित संस्थान , दिखाई पड़ते हैं मुझे स्तरीय प्राथमिक शिक्षा और मिड डे मील के इंतज़ार में देश का भविष्य कहे जाने वाले करोड़ों बच्चे, जीवन भर गरीबी भुखमरी के दुश्चक्र को तोड़ने का संघर्ष करते और अगली पीढ़ी को भी विरासत में यही देकर जाने वाले गरीब, लूट के अड्डों यानि प्राइवेट हॉस्पिटलों और नर्सिग होमों में प्राण रक्षा हेतु अपनी गाढ़ी कमाई लुटाते और कर्ज़दार बनते यही बेहद गरीब लोग|
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नहीं दिखता मुझे विश्वप्रसिद्ध ‘योग’, दिखता है मुझे विकलांगो (दिव्यांग लिखने से सब ठीक हो जायेगा क्या?) की सुविधा व स्थिति की अवहेलना और उपहास करता इंफ्रास्ट्रक्चर और समाज|
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नहीं दिखाई देती ‘विश्व विजेता भारतीय क्रिकेट टीम’, दिखाई देती है मुझे भीख मांग कर पदक लाती एक लड़की|
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और नहीं दिखाई देता मुझे चंद्रयान, मंगलयान, GSLV ,PSLV, दिखते हैं अपने नंगे हाथों से सर पर ‘इंसानी’ मल ढोते इंसान (अगर कोई माने तो)और सुरक्षा उपकरणों के अभाव में घुट-घुट कर सीवर में दम तोड़ते दलित और देश का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करते निर्माण क्षेत्र के मजदूर।
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(अगर सोशल मीडिया और इंटरनेट ने मुझे विचलित किया है तो एक उम्मीद भी दी है कि कोशिशों से ये सब बदल भी सकता है| सोशल मीडिया और इंटरनेट ने मुझे ऐसे लोगों से जोड़ा है जो पहले से इस अव्यवस्था से लड़ रहे हैं, लिख रहे हैं, शोध कर रहे हैं, लोगों को जागरूक कर रहे हैं, अपनी आपबीती सुना रहे हैं या फिर ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे उठा रहे हैं जो लोगों कि आँखों के सामने ही रहते थे लेकिन किसी को महसूस नहीं होते थे| इन सबसे मेरा ‘डर’ थोड़ा कम तो होता ही है|)