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जिंदगी है यूँ ही मरीचिका

बहुत पुरानी बात है करीब सन् 1972-1973 की
मैं एक साल विद्यालय नहीं जा पाई थी… गाँव में रहना पड़ा था… सुविधा नहीं था… प्रतिदिन विद्यालय जाने के लिए… दिनभर छत के बरामदा में बैठी, नाद से बंधे गाय बैल को खाते जुगाली करते देखती थी…

अभी बैंगलोर में ,वही याद आ रहा है… नाद से बंधी हूँ और खाना जुगाली करना जारी है…

#सोच_रही_हूँ_ना_जाने_कब_तक_यहाँ_हूँ_समय_का_सदुपयोग_करूं_स्कूटर_चलाना_सीख_लूँ…

डर गया सो….
सच पूछो तो कल जब स्कूटी पकड़ी तो अजीब सा डर समाया कि ना बाबा ना इस उम्र में अगर हड्डी टूटी तो जुड़ेगी भी नहीं…
बहुत भारी लगी स्कूटी पीछे से भगनी जबकि पकड़ी हुई थीं…
भगनी बोलीं चलिये मामी मैं भी अभी सीख ही रही हूँ… आपकी सहायता करती हूँ…
कल(28-12-2017) पहली बार उनके सपोर्ट पर पकड़ ही ली हेंडिल..
आज(29-12-2017) जब स्कूटी छुई तो लगा अरे मैँ लिए दिए धड़ाम होने वाली हूँ कोई पकड़ने वाला भी नहीं था
आज दिन भर हर थोड़ी देर पर पकड़ी घिसकाई…
अब डर नहीं है कि गिर जाएगी स्कूटी…

यूँ जाड़ों में धड़कन बढ़ाना ठीक नहीं…

सत्यता से आँखें क्या चुराना
कल की कल देंखेगे फसाना
छीजे तन मन स्व बोझ बनता
चिंता फिक्र को लगाओ ठिकाना

 

 

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