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क्या कल क्रिसमस पर आपको भी तुलसी दिवस वाला व्हाट्सएप मिला?

क्रिसमस की सुबह जब अपना व्हाट्सएप चेक किया तो क्रिसमस के साथ-साथ ‘तुलसी दिवस’ की भी शुभकामनाएं थी। मैं हैरान था, जीवन के इतने वर्षों में पहली बार इस नए दिवस के बारे में ज्ञान प्राप्त हो रहा था। कितनी किताबें इस उम्र में मैंने छान मारी हैं, लेकिन लगा कि जैसे सारा ज्ञान अधूरा ही रह गया।

युवा दिवस, गणतंत्र दिवस, स्वतन्त्रता दिवस इस तरह के कई दिवसों का रट्टा लगा चुका हूं, पता नहीं ये एग्ज़ाम वाले कहां से पूछ दें? लेकिन व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के इस ज्ञान ने तो मेरे सालों की मेहनत पर झटके में सवालिया निशान लगा दिया।

डरते-डरते कुछ हिम्मत जुटाकर उस व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के सदस्य से मैंने जानना चाहा कि आखिर ये ‘तुलसी दिवस’ है क्या? और कब से और क्यों मनाया जाता है? उसने जो उत्तर दिया वह सुनकर मैं हैरत में पड़ गया, महाशय ने मुझसे कहा, “बच्चो में क्रिसमस ट्री को लेकर तो क्रेज़ बढ़ता जा रहा है, लेकिन हमारी संस्कृति की पहचान तुलसी को हमारे बच्चे भूलते जा रहे है। इसे (हमारी संस्कृति) को बचाने की ज़रूरत है, इसलिए ये तुलसी दिवस मनाया जा रहा है।” यह सुनकर मैं समझ गया कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की ठंड की छुट्टियों में इस बार बच्चों को यही प्रोजेक्ट वर्क मिला है और वो इसे शिद्दत के साथ बिना सोचे-समझे एक दूसरे को तुलसी दिवस की शुभकामनाएं भेजकर पूरा कर रहे हैं।

अब सवाल यह है कि मनुष्यों और चुनिंदा पशुओं के बाद अब पेड़-पौधों का भी धर्म होगा? मैंने जब से होश संभाला है, मेरे घर में तुलसी का पौधा है जिस पर मेरी मां रोज़ जल चढ़ाती हैं। अगर कभी वो बाहर जाती हैं तो मुझसे कह जाती हैं जल चढ़ाने को और मैं भी श्रद्धा के साथ उसमे नहाकर जल चढ़ाता हूं। मैंने अपने पड़ोसियों को भी ऐसा ही करते देखा है, सबके घर में तुलसी का पौधा है। ऐसे में अचानक से ये तुलसी खतरे में कैसे आ गई? कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश में क्रिसमस मनाने को लेकर बवाल और अब ये तुलसी दिवस! आखिर ये हो क्या रहा है? क्या वाकई हम अपनी संस्कृति को लेकर इतने चिंतित हैं? क्या वाकई लोग अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं?

मैं कहूंगा कि हां, वाकई हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति तो सर्वधर्म सद्भाव की संस्कृति थी, लेकिन आज हर त्यौहार सवालों के घेरे में आ जाता है। हर धार्मिक क्रियाकलाप, हर धार्मिक सुधार सवालों के घेरे मे आ जाता है। हम तो सुधारवादी संस्कृति वाले लोग थे, लोगों को गले लगाने वाले लोग हुआ करते थे, दूसरों की खुशियों में शरीक होने वाले लोग थे।

आज हम साथ में त्यौहार मनाना तो दूर, खुशियों और खुशी मानाने के तरीके पर ही सवालिया निशान लगाने लगे हैं। ये ‘तुलसी दिवस’ 24 दिसम्बर को भी मनाया जा सकता था या 26 दिसम्बर को भी मनाया जा सकता था। साल के 364 दिनों को छोड़कर आखिर यही एक दिन क्यों मिला? आखिर क्यों जानबूझकर आपसी बैर को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है? क्या वाकई में यह हमारी संकृति है?

इन सब सवालों से जूझता जब मैं अपने शहर के चर्च पहुंचा तो इन सभी सवालों का जवाब वहां मौजूद लोगों से मिल गया। हर धर्म के लोग, बच्चे, बूढ़े सभी क्रिसमस की खुशियों में सराबोर एक दूसरे को क्रिसमस की बधाईयां दे रहे थे।

तभी मेरे एक मित्र ने हैप्पी क्रिसमस कहते हुए मेरा स्वागत किया, ये मेरे वही मित्र थे जिन्होंने सुबह-सुबह मुझे ‘तुलसी दिवस’ की शुभकामनाएं दी थी। मैंने हैरानी जताई तो उन्होंने कहा भाई वो तो बस व्हाट्सएप ग्रुप पर आया था, मैंने सबको फॉरवर्ड कर दिया। बचपन से क्रिसमस मना रहा हूं तो इस साल कैसे छोड़ दूं? अब छुट्टियों में अपने शहर आया हूं तो इसी बहाने दोस्तों और पुराने शिक्षकों से मुलाकात भी हो जाती है।

अंततः एक बात मुझे समझ में आई कि जैसा आज मीडिया में या सोशल मीडिया साइट्स पर दिखाया जाता है, असल धरातल पर वैसा कुछ है नहीं। लोग सोशल साइट्स और कुछ लोगों के बातों में आकर बहक जाते हैं, लेकिन जब उनका सामना वास्तविक दुनिया से होता है तो अपनी असल संस्कृति को वो फिर से गले लगा लेते हैं। वो संस्कृति जो दूसरों की खुशियों में शरीक होने की बात कहती है, खुशियां बांटने की बात कहती है, लोगों को बांटने की नहीं।

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