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कितना बदले हमारे गाँव?

मिंकु मुकेश सिंह की कलम से…..

अपने गाँव से प्रेम-स्नेह करने वाले जरूर पढ़े…

पिछले दिनों घर से दूर एक मित्र के यहाँ “दही,देशी गुड़ और चिउड़ा” खाने गया…गन्ने की खोइया (पेराई के बाद बचा अवशेष) पर बैठा, अगल-बगल ट्रैक्टर, झोपड़ी,गाय आदि पूरी तरह से देशी परिवेश पर ये माहौल कोई डोमिनोज,पिज्जा हट नही दे सकता चाहे आप जितना खर्च कर ले.

क्या “हमारे गाँव” अब पहले जैसे नही रहे या आधुनिकता को देख कर बदल गए है?
मेरा मानना है कि उसे बदलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। शहर में रह रहे ग्रामीणों से पुछें तो वह कभी भी दिल से शहरी जिन्दगी को स्वीकार नहीं करेंगे, चाहे वे शहर में ऐशो-आराम की जिन्दगी ही क्यों ना बिता रहे हों। (कुछ अपवाद लोगो को छोड़कर) गर्मी की छुट्टी आते ही उन्हें अपने गांव की याद सताने लगती है। गर्मी की छुट्टी आने के कई महीने पहले से ही गांव जाने की प्लानिंग करने लगते हैं। अपने गांव को कभी भी भूल नहीं पाते। ग्रामीण अब पहले जैसे भोले-भाले, बेवकुफ़ और देहाती नहीं रह गए हैं। अपने और अपने बच्चों के कैरियर व भविष्य के बारे में वे काफी सजग हो गए हैं। और उसके लिए उसने अपने मिट्टी से थोड़े समय के लिए तन से दूरी अख्तयार कर ली है, लेकिन मन से व अपने गांव से ही जुड़े रहते हैं। भारत गांव का देश है, अब भी देश की आबादी का 65 प्रतिशत से अधिक लोग गांव में ही रहते हैं। गांव में पहले लोग खुशी-खुशी रहते थे, अब ऐसा नहीं है, ऐसा क्यों हुआ, क्यों हो रहा है, यह विचारणीय है, पर हमारे तथाकथित जनता के सेवक व ब्युरोक्रेट्स इसपर न कभी गौर करते हैं, और न ही आगे विचार करैंगे। अपने उत्थान के लिए हम ग्रामीणों को ही जागरूक होना पड़ेगा। और जिन्दगी के सारे गुर हमें सिखने पड़ेंगे जो इन तथाकथित जनसेवकों और ब्युरोक्रेट्स से लड़ सकें। शहरी क्षेत्रों में जिस तरह से औद्योगिक विकास हो रहा है, और जिसके चलते लोगों के स्वास्थ्य में दिनों दिन गिरावट आ रही है, इसे देखते हुए अपने ग्रामीण क्षेत्रों में इस अंधाधुंध विकास के नाम पर खतरनाक कारखाने अपने क्षेत्र स्थापित में नहीं होने देने चाहिए, जिससे वातावरण दूषित होता हो। हमारी भूमि अगर कृषि योग्य है तो वहां खेती के लिए सतत् प्रयासरत करते रहना चाहिए। शहर अब इतना दूषित हो चुका है कि आने वाले दिनों में लोग गांव का ही रूख करैंगे। वैसे अब गांव में रहकर आप कुछ कर भी नहीं सकते, वहां बुनियादी सुविधाओं की इतनी कमी है कि लोग जीवित नहीं रह सकते। गांव में न तो पीने के लिए पानी उपलब्ध है, न ही जीवीकोपार्जन के लिए कोई काम धंधे।
कृषि जो ग्रामीण जीवन की रीढ़ की हड्डी हुआ करती थी, उसे जन सेवकों की घटिया मानसिकता ने हासिए पर ला कर खड़ा कर दिया। खेती अब फायदे का कारोबार नहीं रह गया, यह अब एक मात्र घाटे और वक्त गुज़ारी का साधन बन गया है, इस महंगाई के जमाने में यह भी अब चलने वाला नहीं है। ग्रामीण इलाकों में मार्च का महिना शुरू होते ही बिहार, उड़िसा, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए पीने के पानी का भारी संकट खड़ा हो जाता है, लेकिन हमारे नेता लोग इसके लिए कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि ग्रामीणों से उसका कोई सरोकार नहीं है। इसी कारण देश के आज़ाद होने के 65 साल बाद भी देश की अधिकांश ग्रामीण जनता बेबस, गरीब, लाचार और गुलामी की तरह जिन्दगी जीने के लिए मजबूर हैं। इसी कारणों के चलते ग्रामिणों को अपने गांव से पलायन करने पर मजबूर कर दिया है। इसका फायदा अवसरवादी लोग उठाते हैं, उन्हें गुलाम की तरह काम करवाया जाता है। उनका सुनने वाला कोई नहीं है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी-कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं, और लाचार जनता को बवकुफ बना रही है। लेकिन सज्जनों को कभी इस बात की परवाह नहीं रही कि ग्रामीण लोग शहर की ओर क्यों आर रहे हैं, उसने अपने क्षेत्र, अपने लोगों की दुःख के लिए बहुत कुछ नहीं किया। वह अब शहर जा कर अपने लिए और अपनों के लिए मेहनत करके दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में लगे हुए हैं, शहर में रह कर उनमें भी शहरी लक्षण का आना कोई अनहोनी बात नहीं है। ग्रामीण शहर, या विदेश मजबूरी की हालत में जाते हैं। उलके भी दिल में अपने परिवार के प्रति संवेदना होती है, पर उनकी खुशी के लिए अपना सब कुछ छोड़ कर, अपने मां-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे, अपनी जन्मभूमि को छोड़ कर किस तरह से घर से बाहर जाते हैं। ग्रामिण माता-पिता भी अब अपने बच्चे को शहर या विदेश जाने से रोकते नेहीं हैं, उसे पता है कि अपने घरों में रह कर वह कुछ भी नहीं कर सकते। ग्रामीणों को इस तरह के हालात से दोचार होने में अपने काबिल देश भक्त नेताओं, कानून विदों आदि का सबसे बड़ा योगदान है। ग्रामिण भाईयों को चाहिए कि वे अपने मिट्टी को कभी न भूलें, और कभी भी अपने को मजबूर न समझें, इतिहास इसका गवाह है कि भारत में कमजोर ग्रामीणों को ही माना जाता है, इसलिए शहरी लोग भोले भाले ग्रामिणों के देहाती कर नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। ग्रामिण भाईयों अपने मिट्टी प्यार करें, क्योंकि हमारे दिलो-दिमाग में यही गांव वास करता है।
पढ़ते-पढ़ते थक गए होंगे..पर माफ करिये..
गाँव को जीवित रखना है आते-जाते रहा करिये…अच्छा लगता है।

धन्यवाद

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