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आहत ख़त, बेनाम पते पर

ज़रा लंबी विषय वस्तु है इत्मीनान से पढ़ियेगा। मैं उस वर्ग का हिस्सा नहीं हूँ पर मुझे ‘मैं’ रूप में स्थापित करने में इस वर्ग के विभिन्न लोगों ने अनेक रिश्तों के रूप में मेरी मदद की है। बस ये एक उलझन जो मैं महसूस कर पाई हूँ अपने साथी वर्ग की।

पढ़िए एक आहत ख़त बेनाम पते पर।

माना मेरे आने पर शगुन का जलसा कुछ ज़्यादा बड़ा होता है,

ये भी माना कि खुशियों की रौनक कुछ ज़्यादा चहकती है उस द्वार पर।

पर क्या जन्म दर की बढ़ती लक़ीर और ऊँचे फ़ैले आँकड़ों की बाबत तुम मेरी समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर दोगे? इससे पहले कि ऐसा हो, मैं ज़रा कुछ एक दकियानूसी परतें उस नज़रिए से उधेड़ देना चाहता हूँ…..

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हाँ! तो कहाँ थे हम?? हाँ.. हम ढोल….शगुन के ढ़ोल और बधाईयों के ताँते की चर्चा में….और ये चर्चा जलसे के साथ ही ख़त्म। अब क्या???

पैदा होने से पहले ही माँ बाप का सहारा बनने की ज़िम्मेदारी व आस नाज़ुक कंधों पर झूलती है। जैसे जैसे अपने क़दमों पर चलना सीखता हूँ वो ज़िम्मेदारी काँधे से सिर की ओर खिसकती है। मुझे भी अक़्सर अपनी इच्छाओं को मारना पड़ता है। अपनों के लिए मैं भी कई बार सपनों को छोड़ता हूँ।

स्कूल में कोई घिनौना टीचर या ड्राइवर

या रास्ते का वो अनजान चेहरा मुझे भी डराता रहा है और वह डर मेरे लिए भी रातों को आने वाले भयानक सपनों का सबब बनते रहे।

सिर्फ़  इसलिए कि मैं हैश टैग मी टू लगाकर सोशल मीडिया की दीवारें नहीं रंगता इसका मतलब नहीं कि समाज का बाक़ि बचा आधा हिस्सा प्रताड़ित नहीं होता।

माँ बाप द्वारा पढ़ाने की सहूलियत न मिले तो ढ़ाबों पर कप प्लेट टूटने के लिए पड़ी मार से मेरे सपने भी टूटते हैं। स्कूलों में उस खड़ूस टीचर द्वारा एक समान नादानियों के लिए केवल हमें ही मुर्गा क्योँ बनाया जाता रहा?? क्या हमारा  आत्मसम्मान इतना सस्ता रहा है??  कॉलेज़ में रैग्गिंग के शिकार क्या हम नहीं होते?  तूने कौन सा प्रेग्नेंट हो जाना है , चल नौटंकी बंद कर जैसे ताने क्या हमारे मन, सहनशीलता और ग़ुरूर को नहीं तोड़ते???

बसों और मेट्रो में ग़लत ढंग से छुए जाने पर हम भी असहज महसूस करते हैं। घिन्न और रोष हमें भी आता है।

अपने लिए आरक्षित सीटों पर जगह नहीं देने पर भी हम ‘असभ्यता’ और बेअदबी के कटघरों में खींचे जाते हैं और महिला आरक्षित सीटों पर बैठ जाने पर तो ‘नामर्द’ जैसे तमगों से भी नवाज़े जाते हैं

अरे भाई! कौन से संविधान में ये नियम हैं कि कोई पुरुष बीमार नहीं हो सकता?? उसे सीट की आवश्यकता नहीं हो सकती?? जिनके आधार पर हम पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में अभद्र टिप्पणियाँ की जाती हैं उनके निर्धारण मानदंड कहाँ तय होते हैं???

यदि अपना घर छोड़कर कोई स्त्री हमारे लिए हमारे घर आती है तो हम भी दो अलग मिजाज़  वाले परिवारजनों की विपरीत सोच और ढंग के सामंजस्य के मंथन को झेलते हैं । क्या महसूस होता है किसी को कि ऐसे धरातल पर उतरना कितना असहनीय होता है जहाँ दोनों दोनों ओर आप कुछ न कुछ हारेंगे ही?

माँ और पत्नी दोनों के अनुसार ख़ुशियों की जद्दोज़हद में झुलसता हूँ, थकता हूँ,बैठता हूँ पर हारता नहीं हूँ और हार भी जाऊँ तो कह नहीं सकता, सह नहीं सकता और असहनीय होने पर भी रो नहीं सकता…क्योंकि यदि रो गया तो पौरूष पर प्रश्नचिन्ह लगते भी देर नहीं लगेगी।

माना मैं अपना घर नहीं छोड़ता किसी की ख़ातिर पर क्या अपने कलेजे के टुकड़े को पराये घर भेज कर उसी दर्द को सारी उम्र मैं भी महसूस नहीं करता हूँ?

आधे वर्ग को ऊपर लाना और बराबर करना समानता है परंतु दूसरे वर्ग को नीचे खींच लेना कितना सही है??

यदि कंस स्त्री अस्मिता को चीरता है तो क्या उसी पुरुष वर्ग का हिस्सा रहे कृष्ण उसकी रक्षा को नहीं आये?

सद-असद हर वर्ग में हैं परंतु जिस गति से कालिख़ पोती जा रही है वह अत्यंत पीड़ादायक होती जा रही है।

बस इतना कहना चाहते हैं कि महिला सशक्तिकरण  की आड़ में पुरुषों के अधिकारों का हनन करना कतई स्त्री अस्मिता के संरक्षण का ज़रिया नहीं हो सकता।

बराबर का अर्थ बराबर होता है…दूसरे को नीचा साबित करना कभी सशक्तिकरण एवं समानता का पर्याय नहीं हो सकता।
सोचना और विचारना दोनों वर्गों की ज़िम्मेदारी है ताकि स्व अस्मिता की ग़रिमा को बरक़रार रखा जा सके। आगे का मंथन आप पर छोड़ते हुए………
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और फिर एक बार एक आहत ख़त ने अपना वजूद किसी दराज़ में दफ़्न होते पाया।

#unsentLetter #EqualityMeansEquality

© Nikki Mahar

Blogger at : Writeside.in

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