वो मार्च का महीना था जब बारहवीं की बोर्ड परीक्षा के बाद एक छोटे शहर का लड़का खुद को आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार कर रहा था। लड़के को डॉक्टर बनने की ख्वाइश थी जिसके लिए एक इम्तिहान पास करना था। अब जब इतना सोच ही लिया था तो लाखों बच्चों की तरह उसके लिए भी सालभर की पटकथा लिखी जा चुकी था। इसकी अदायगी में लड़के को लाखों रुपये खर्च कर एक जुआ खेलना था और ये अन्य जुओं से अलग था क्योंकि इसमें उसे जीतोड़ मेहनत करनी थी।
अगर उसने बाज़ी जीत ली तो उसके स्वागत के लिए देश के सैकड़ों मेडिकल कॉलेज बाहें पसारे खड़े होते और अगर कुछ मुकम्मल ना भी हुआ तो सांत्वना पुरस्कार के तौर पर हौसला और अनुभव तो ज़रूर हासिल होने वाले थे। तो यहां मैं बात कर रहा हूं कोटा के मशहूर कोचिंग्स की जहां हर साल लगभग 2 लाख बच्चे यही जुआ खेलने आते हैं।
वो लड़का मई/जून की गर्म दोपहर में भागलपुर-अजमेरशरीफ एक्सप्रेस से कोटा के लिए रवाना होता है, उसके साथ है मां के द्वारा डब्बे में दी हुई सत्तू भरी हुई रोटी के साथ सब्ज़ी, कुछ डब्बों में है बाद में खाने के लिए दी गयी ठेकुआ और निमकी। इन सबके अलावा उसकी पीठ को जो सबसे ज़्यादा भार दे रहा था वो था उम्मीदों का बोझ, मम्मी-पापा के अरमानों का बोझ और इस बोझ तले ट्रेन पर बैठते ही वो हंसता-मुस्कुराता लड़का शांत और गमगीन हो गया था।
अगले दिन कोटा पहुंचते ही सारी प्रक्रियाएं पूरी करने के बाद एक हॉस्टल/पीजी के छोटे से कमरे में वो खुद को एक नयी जीवनशैली के लिए तैयार कर रहा था। अपने बिस्तर पर बैठा वो उसकी सीमित ज़िंदगी के नए साथियों को अपलक निहार रहा था जिनमे शामिल थे एक कुर्सी-टेबल, एक आलमारी, एक लोहे की रैक और उस पर रखा हुआ पानी का कंटेनर। सामने बिस्तर पर उसके कोचिंग से मिले हुए फिजिक्स/केमिस्ट्री/बायोलॉजी के मॉड्यूल्स, नया बैग, आइडेंटिटी कार्ड/नयी ड्रेस और धूप या पानी से बचने के लिए एक छाता रखा हुआ था।
कभी वह इन चीज़ों को देखता तो कभी उसके मन में ये सवाल उठता कि क्यूं हमारी शिक्षा व्यवस्था इन ऊंची इमारतों वाले कोचिंग इंस्टिट्यूट्स की देहरी पर आकर नतमस्तक हो जाती है? क्यों नहीं स्कूली शिक्षा ऐसी हो कि बच्चों को अपने सपने पूरे करने के लिए इन कोचिंग्स की ज़रुरत ही ना पड़े? ऐसे कई सवालों के बीच उसकी आंख लग गई और जब वो सुबह उठा तो पहली क्लास जाने के लिए हड़बड़ी में तैयार होने लगा।
उस दिन से उसका नया जीवन शुरू हो चुका था। हर दिन 6-7 घंटे की क्लास… वापस आकर फिर से सेल्फ स्टडी। क्लास के नोट्स पढ़ना फिर डीपीपी सॉल्व करना फिर मॉड्यूल्स या ncert को देखना। केमिस्ट्री की डीपीपी सॉल्व करते-करते उसकी लाइफ की केमिस्ट्री बिगड़ गई। अब उसे सपने भी आर्गेनिक केमिस्ट्री के कैनिज़ारो रिएक्शन और फिजिकल के फर्स्ट आर्डर रिएक्शन के आने लगे थे। फिजिक्स में पेंडुलम को बैलेंस कर सवाल बनाते-बनाते वो कब खुद पेंडुलम बन गया पता ही नहीं चला। उसे अपनी ज़िंदगी कोचिंग के दबाव और उसके सपनों के बीच to and fro मोशन करती हुई दिखने लगी।
रविवार की छुट्टी गायब थी क्योंकि उस दिन टेस्ट होते थे, मंगलवार को उसकी हार्ट-बीट थोड़ी बढ़ी रहती थी क्योंकि उस दिन टेस्ट का रिज़ल्ट आना होता था और इस रिज़ल्ट का एक sms उसके पापा के पास भी जाने वाला था। इसके अलावा हर हफ्ते उसे घंटों एक्स्ट्रा क्लासेज़ में भी बिताने थे। ये सिलसिला महीनों तक कुछ ऐसे ही जारी रहा।
उसकी परेशानी बस इतनी नहीं थी कि उसे बहुत पढ़ना पड़ रहा था बल्कि ये भी थी कि उसे ढंग का खाना भी नसीब नहीं होता। कई महीने हो चुके थे ऐसा खाना खाते हुए तो अब उसे कभी-कभी मेस के खाने से उबकाई भी आने लगी थी। कहने को तो मेस में हर रोज़ अलग-अलग मेन्यू मिलता था लेकिन अब वो घर के साधारण खाने को दिन-रात मिस करता। नाश्ते के नाम पर ठेले पर मिलने वाली पोहा-कचौड़ी खाना उसकी आदत बन चुकी थी और चाय पी-पीकर नींद भगाने की कोशिश करना ज़रुरत। बाहर वो अपने मन-मुताबिक नाश्ता नहीं कर सकता था क्योंकि उसे मालूम था कि इस अतिरिक्त खर्चे का बोझ सीधे उसके पापा के कन्धों पर पड़ेगा।
कोटा में रहने का एक असर उसे दिखने लगा था, वो अब प्रैक्टिकल होकर जीना सीख गया था। अब उसे सारे शौक़ बेफिज़ूल लगने लगे थे।बात-बात पर गुस्सा करने वाला वो अब हर बात को बर्दाश्त करना सीख चुका था, क्योंकि अब उसे गुस्से में बर्बाद होने वाले वक्त की फिक्र थी।वो बेखौफ और बेफिक्र लड़का अब कैलकुलेटिव हो गया था।
दिसम्बर के महीने में उसकी पढ़ाई दुगुनी हो जाती क्योंकि वो अच्छी तरह जानता था कि मई में होने वाले एंट्रेंस एग्ज़ाम के लिए मार्च तक हरहाल में सिलेबस पूरा करना होगा। इस चक्कर में वो डिप्रेशन का शिकार भी होता, लेकिन खुद को मोटिवेट कर वह फिर से पढ़ाई में जुट जाता। वो नहीं चाहता की मां-बाप के अरमानों पर ये डिप्रेशन-विप्रेशन नाम का कीड़ा पानी फेर जाए।
इस तरीके से लगभग 10 महीने का वो सफर अपने टर्निंग पॉइन्ट पर आ खड़ा हुआ जब हर बीतते दिन के साथ परीक्षा की तारीख उसके और करीब आ रही थी। आखिर मई के पहले हफ्ते में वो इतवार भी आ ही गया जब वो अपनी संघर्षों की कहानी को खुद में समेटे किसी एग्ज़ामिनेशन सेंटर के बाहर हाथों में एडमिट कार्ड लिए खड़ा था। दरअसल ये एडमिट कार्ड नहीं बल्कि साल भर चले उस जुए का कूपन था जो आज तीन घंटे में उसका इनाम तय करेगा।
एक महीने बाद आए रिज़ल्ट में अगर वो पास हो गया तो उसकी जय-जयकार होनी तय है, लेकिन अगर वो eligible candidates की लिस्ट में शामिल ना हो पाया तो फिर अंधेरे कमरे उसका इंतज़ार कर रहे होंगे।
इन कमरों में उसकी सिसकियां गूंजती हैं, दीवार की तरफ देखते हुए वो अपने संघर्षों को याद कर रहा होता है। वो ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई से रूबरू होकर लोगों के ताने सुनने के लिए खुद को तैयार कर रहा होता है।
वो तैयार कर रहा होता है खुद को किसी दूसरे जुए के लिए, किसी और सपने को पाने की कोशिश के लिए क्यूंकि अब वो मज़बूत हो चुका है। वो तैयार कर रहा होता है खुद को अगले सफर के लिए क्योंकि अब वो निडर हो चुका है।
ये कहानी किसी एक लड़के की नहीं है, ये दास्तान उन सभी बच्चों की होती है जिन्होंने एक बार कोटा की प्रसिद्ध कोचिंग्स का रूख किया होता है। उन्हें सफलता मिले या ना मिले पर हिम्मत ज़रूर मिल जाती है और ये दार्शनिक अंदाज़ भी तभी आता है जब आप उस सिस्टम का हिस्सा बनकर उसमें घिस चुके होते हैं। कुछ तो बात है जो तमाम कड़वे अनुभवों से वाकिफ होकर भी लाखों बच्चे उम्मीदों की डोर थामे हर साल ऐसी कोचिंग क्लासेज़ का हिस्सा बनने आ जाते हैं।