एक किसान के घर जन्म लेने के कारण, बचपन से ही मैं दुधारू पशुओं से वाकिफ रहा हूं। किसान के लिए फसल के साथ-साथ दूध भी बहुत ज़रूरी है, शायद यही वजह है कि किसान अपने दुधारू पशुओं के साथ एक परिवार के सदस्य तरह रिश्ता बनाकर रखता है। लेकिन यह भी समझना ज़रूरी है कि दूध एक ज़रूरत है, यही वजह है कि जब गाय या भैंस का बछड़ा एक साल का हो जाता है यानी जब गाय और भैंस बछड़े के बिना भी दूध दे सकती हैं, तब इन्हें बेच दिया जाता है।
बचपन में जब मैंने एक बार पूछा, “ये खरीददार इन बछड़ों का अब क्या करेंगे?” तो जवाब बहुत सामान्य था कि इन्हें मार दिया जाएगा और इन बछड़ों की चमड़ी से जूते, बेल्ट और बैग आदि चीज़ें बनाई जाएंगी।
ज़ाहिर सी बात है कि हम अपनी ज़रूरतों के हिसाब से दूध के लिए गाय और भैंस को ज़िंदा रखते हैं और बछड़ों को बेच देते हैं, ये जानते हुए भी कि उन्हें मार दिया जाएगा। वहीं मादा बछड़ों को किसान नहीं बेचता, वह इन्हें 3 साल तक बड़ा करता है जो बाद में दुधारू पशु बन जाते हैं।
एक सच यह भी है कि मेरे गांव में गाय और भैंस अगर दूध देना बंद भी कर दें तब भी उन्हें बेचा नहीं जाता। किसान का मानना है कि जिस पशु ने उसका जीवन भर साथ दिया उसके अंतिम समय में वह किस तरह उसे छोड़ दे। यही वो लगाव है जिसके कारण गर्मियों में गाय और भैंस को दिन में दो बार नहलाया जाता है तो सर्दियों में कपड़ों से ढककर रखा जाता है, एक किसान के घर में पशुओं के रहने के लिए अलग से, पक्की फर्श और छत के साथ जगह रखी जाती है।
ये सब कहना इसलिये ज़रूरी है क्योंकि मैं अहमदाबाद शहर में गाय की दयनीय हालत के बारे में कहना चाहता हूं, जहां वह तिल-तिल कर मर रही है। बचपन से ही मेरे दो महीनों की छुट्टी पंजाब में होती थी तो बाकी के 10 महीने मैं अहमदाबाद शहर में ही रहता था। स्कूल, कॉलेज, यार-दोस्त सभी यहीं से ही हैं और यही वजह है कि अहमदाबाद में गाय की दयनीय स्थिति को मैंने बहुत करीब से देखा है।
बाकी देश की तरह अहमदाबाद में भी गाय और भैंस दूध की ज़रूरत को पूरा करते हैं। यहां का एक खास समुदाय, दूध उत्पादन के लिए पूरे गुजरात में जाना जाता है और यही समुदाय अहमदाबाद में भी दूध की मांग को पूरा करने में एक बड़ा योगदान देता है। लेकिन जहां भैंस को घर से बाहर जाने नहीं दिया जाता, वहीं गाय को अमूमन खुला छोड़ दिया जाता है ताकि वह हर गली, हर सड़क और हर मोड़ पर अपनी मौजूदगी का असर दिखा सके।
एक और बात ये कि जहां भैंस का चारा, उसका मालिक पूरा करता है वहीं गाय के लिए उसका मालिक समाज पर ही निर्भर रहता है। मैंने कभी भी, यहां मालिक को अपनी गाय को चारा डालते हुए नहीं देखा, लेकिन मालिक को ये यकीन है कि उसकी गाय भूखी नहीं रहेगी, वजह है धर्म और आस्था।
यहां मालिक गाय को अधिकतर खुला रखता है, लेकिन वो उसके बछड़े को हमेशा अपने पास रखता है जिसकी उम्र अभी एक साल की नहीं हुई है। ये बछड़ा ही एक कारण है कि गाय रोज़ सुबह और शाम को बछड़े को दूध पिलाने अपने मालिक के घर जाती है, लेकिन बहुत मामूली दूध ही बछड़े को चुघाया जाता है। वह भी इसलिये ताकि गाय के थनों में दूध उतर आए, इसके बाद मालिक, गाय का दूध निकालकर इसे आगे बेच देता है। यानी की गाय एक कमाई का साधन भर है, लेकिन उसे अपने बछड़े से दूर रखना कितना अमानवीय है? खासकर उस गाय के लिए जिसे आस्था के नाम पर मां का दर्जा मिला हुआ है।
यही आस्था गाय के भरण-पोषण का एकमात्र ज़रिया बन जाती है। यहां सुबह के वक्त जगह-जगह, कई लारियों पर गाय का चारा बेचा जाता है। आस्था के नाम पर बहुत से लोग कुछ 10 रुपये में मुट्ठी भर चारा लेकर वहीं खड़ी गायों को डाल देते हैं और घास की कुछ टहनियों के लिए गायों का झुंड टूट पड़ता है। इस तरह की हर लारी पर कुछ 10-12 किलो चारा मौजूद होता है, लेकिन वहां मौजूद गायों की संख्या भी इतनी ही (10-12) होती है। अब सोचने वाली बात है कि 1 किलो चारा एक विशाल शरीर की कितनी भूख मिटा सकता है?
जैसे-जैसे दिन चढ़ता है अहमदाबाद की हर गली, हर मोड़ और नुक्कड़ पर गाय मिल जाती है। लोग आस्था के नाम पर ज़्यादातर बचा हुआ खाना गाय को खिलाते हैं जिसमें हमारा परिवार भी शामिल है, लेकिन 1 या 2 रोटी गाय की भूख नहीं मिटा सकती। यही वजह है कि रात होते-होते, गायें अक्सर सब्ज़ी मंडियों के करीब देखी जा सकती हैं, जहां खराब हुई सब्ज़ियां भी चारे का काम करती हैं।
भूख मिटाने के लिए अक्सर गायें मुनिसिपल विभाग के बड़े-बड़े कचरेदानों से कचरा खाती हुई देखी जा सकती हैं, जो सबसे ज़्यादा दयनीय स्थिति है। इस कचरे के साथ कई बार प्लास्टिक भी गाय के भोजन में शामिल हो जाता है। एक प्राणी का ज़िंदा रहने के लिए इस तरह खाने की तलाश करना बहुत दयनीय है, खासकर कि उस जगह जहां लगभग सभी हिन्दू बस्तियां हैं। गाय की इस दुखद स्थिति के मायने तब और बढ़ जाते हैं जब गाय को हिन्दू आस्था से जोड़कर मां का दर्जा दिया जाता है।
सड़कों और गलियों में गायों का इस तरह से घूमना कभी-कभी सड़क दुर्घटनाओं की वजह भी बनता है। मेरा अपना परिवार इस तरह के हादसों का दो बार शिकार हो चुका है। पहली बार एक गाय ने मेरी ताई जी को बहुत बुरी तरह से टक्कर मार दी थी और एक बार मेरा भाई और उसका परिवार दोपहिया वाहन पर सवार था, जहां गाय के बीच आ जाने से वाहन और सवारी दोनों ही सड़क पर बुरी तरह गिर गए थे। दोनों ही समय गनीमत रही कि उन्हें ज़्यादा चोटें नहीं आई।
लेकिन हमारी तरह हर कोई किस्मत का धनी नहीं होता। मुझे याद है कि एक बार मैं हमारी सोसाइटी में ही एक किराने की दुकान पर खड़ा था, तभी एक गाय ने सड़क पर एक गर्भवती महिला को टक्कर मार दी। गाय से टक्कर होने के बाद, महिला के नीचे के भाग से खून बहता हुआ साफ दिखाई दे रहा था। वहां खड़े लोगों ने उस महिला की मदद भी की ओर अफसोस भी जताया, लेकिन इस कारण उस महिला का गर्भ गिर गया। यही नहीं सड़क पर मौजूद गायें भी कई बार वाहनों के चपेट में आकर मारी जाती हैं या घायल हो जाती हैं।
ज़ाहिर है कि अहमदाबाद में गायों की हालत बहुत दयनीय है। अगर वो बोल सकती या हम उनकी ज़ुबान समझ सकते तो वो अपना गम ज़रूर बयान करती।
मेरा मानना है कि गाय की ये हालत इसलिये है क्योंकि गाय के साथ आस्था जुड़ी हुई है, जो इसे माँ का दर्जा तो ज़रूर देती है लेकिन इससे एक जीव और प्राणी होने का अधिकार छीन लेती है। यही वजह है कि गाय की पूजा होती है, लोग आते-जाते गाय को माता कहकर उसे छूकर अपने हाथ को सर से ज़रूर लगाते हैं, लेकिन इसी आस्था के कारण इन लोगों को गाय की दुखद स्थिति दिखाई नहीं देती है।
हो सकता है कि गौमाता उन गौरक्षकों से ये सवाल ज़रूर करे जो गाय की रक्षा के नाम पर लोगो को मार रहे हैं कि आखिर क्या वजह है जिसके कारण इन्हें गाय की दुर्दशा नहीं दिखाई देती? लेकिन इस सवाल पर हमें भी गहराई से सोचने की ज़रूरत है और इसके कारणों पर भी विचार करना ज़रूरी है। शायद तब ही गाय की स्थिति में कोई सुधार आ सके अन्यथा कोई और उम्मीद करना बेईमानी ही होगी।
फोटो आभार: हरबंश सिंह