कल के समाचार पत्रों में दो खबरें प्रमुख थीं,पहली जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने एक फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग को खारिज करते हुए कहा कि फिल्म, नाटक, उपन्यास और किताब एक सृजनात्मक कला है। कलाकार को अभिव्यक्ति की आज़ादी है और वह उसे कानून में मंज़ूर तरीके से अभिव्यक्त कर सकता है। बहुत से लेखकों ने अपने विचार अपने पसंद के शब्दों, अपने चरित्रों आदि के ज़रिए व्यक्त किये हैं और वो सामान्य व्यक्ति की सोच से बिल्कुल भिन्न थे। कोर्ट के अनुसार अभिव्यक्ति दर्शकों के विचारों को झकझोरने वाली हो सकती है लेकिन इस पर नियंत्रण केवल विधिक रूप से ही होना चाहिए।
दूसरी तरफ संजय लीला भंसाली और दीपिका पादुकोण का सिर कलम करके लाने वाले पर कोई युवक 5 करोड़ तो कोई बीजेपी नेता 10 करोड़ के इनाम की घोषणा कर रहा है, वहीं करणी सेना ने दीपिका को नाक काटे जाने की धमकी दे डाली।
ये खबर पढ़ते ही मैं सोच रहा था अगर आज के दौर में कबीर होते और आज इस तरीके से संबोधित करते
“कंकर-पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय,
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे का बहरा भया खुदाय”
“पाथर पूजें हरि मिलें तो मैं पूजूं पहाड़,
घर की चाकी कोऊ ना पूजे जाका पीसा खाए”
“पांडे कौन कुमति तोहि लागि,कस रे मुल्ला बांग नेवाज़ा”
तो यकीनन उस यर्थाथवादी रचनाकर की यह अंतिम रचना होती और उनका सर दिल्ली के चौराहे तथा धड़ काशी के घाटों पर टंगा मिलता। खैर, कहते हैं कबीर को काल का तीव्र-बोध था, सो इस असहिष्णुता वालो दौर का भान उन्हें पहले ही हो गया होगा और उन्होंने इस लोकतांत्रिक गणराज्य में जन्म लेने की जगह उन विदेशी आक्रमणकारियों के दौर में जन्म लेना मुनासिब समझा होगा। इस लिहाज़ से भी कबीर को दूरदर्शी और युगांतकारी कह सकते हैं।
ये कहने में हमे अब ज़रा भी संकोच नहीं करना चाहिए कि हम उस दौर में हैं जहां अभिव्यक्ति काले बादलों के बीच घिरती जा रही है। कुतर्क, विरोध और असहिष्णुता का ये स्वर्णिम युग है, या हो सकता है ये मात्र इसकी शुरुआत भर हो। जो भी हो पर कम से कम अब तो इस दौर की सच्चाई को स्वीकारना ही चाहिए।
कस्बों से लेकर शहरों तक संजय लीला भंसाली की फिल्म “पद्मावती” का ज़बरदस्त विरोध हो रहा है। फिल्म अभी किसी ने नहीं देखी, सेंसर बोर्ड ने भी अभी तक कोई आपत्ति नहीं जताई, फिर विरोध का आधार क्या है? इसको लेकर ये तथाकथित धर्म, सभ्यता और संस्कृति के रक्षक भी असमंजस में हैं। मेरी समझ से ये वही उग्रवादी लोग हैं जो इतिहास और कला के सृजनात्मकता को समझने में बिल्कुल ही कूपमंडूक हैं। जिन्होंने कभी प्रेम-पीर की व्यंजना करने वाले विशद और महान जायसी के “पद्मावत” को नहीं पढ़ा न ही उसके अंतसाधानात्मक रहस्य को समझा।
मलिक मोहम्मद जायसी के ‘पद्मावत’ से रस लें तो
पद्मिनी, सिंहल द्वीप (आज का श्रीलंका ) के राजा गंधर्वसेन की कन्या थी। महल में ‘हीरामन’ नाम का एक तोता भी था। पद्मिनी उस तोते को बहुत चाहती थी और उसके साथ तमाम तरह की बातें साझा करती थी। एक दिन किसी बहेलिये और ब्राम्हण के साथ वह तोता चित्तौड़ के राजा रतनसिंह राजपूत के यहां पहुंचा। तोते ने राजा से राजकुमारी पद्मिनी के सौंदर्य का ज़िक्र किया जिसे सुनकर राजा को पद्मिनी का रूप वर्णन विस्तार में सुनने की बड़ी उत्कण्ठा हुई। हीरामन पद्मिनी के रूप का लम्बा चौड़ा वर्णन करता है उस वर्णन को सुन राजा बेसुध हो जाता है। वो पद्मिनी से मिलने के लिए आतुर हो उठता है और वह अपनी पत्नी रानी नागमती को महल में ही छोड़कर हीरामन के साथ जोगी होकर घर से निकल पड़ता है।
रतन सिंह अनेक वनों और समुद्रों को पार कर सिंहल पहुंचता है तथा हीरामन तोते के माध्यम से पद्मिनी तक अपना प्रेमसंदेश भेजवाता है। पद्मिनी उससे मिलने के लिये एक देवालय आती है लेकिन पद्मिनी को देखते ही वह बेहोश हो जाता है। पद्मिनी उसको होश में लाने के लिए उस पर चन्दन छिड़कती है जब वह नही जागता है तब चन्दन से उसके हृदय पर यह बात लिखकर वह चली जाती है ‘जोगी, तूने भिक्षा प्राप्त करने योग्य योग नहीं सीखा, जब फलप्राप्ति का समय आया तब तू सो गया, अब मुझे पाने के लिए तुम्हे बहुत संघर्ष करना पड़ेगा।
लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार पद्मिनी के पिता राजा गंधर्वसेन को रतनसिंह राजपूत के यथार्थ का ज्ञान होता है और वह उसे शूली पर चढ़ाने के अपने आदेश को वापस लेते हैं तथा रतनसिंह का विवाह पद्मिनी से कर देते हैं। राजा रतनसिंह पद्मिनी के साथ सिंहल द्वीप पर ही बस जाता है। उधर रानी नागमती रतनसिंह के विरह में बारह महीने कष्ट झेल कर किसी प्रकार एक पक्षी के द्वारा अपनी विरहगाथा रतनसिंह राजपूत के पास भिजवाती है और इस विरहगाथा से द्रवित होकर रतनसिंह पद्मिनी को लेकर चित्तौड़ लौट आता है।
रतनसिंह के दरबार मे राघवचेतन नाम का एक तांत्रिक था। रतनसिंह ने उस तांत्रिक को वेदों के खिलाफ आचरण करने के कारण महल से निकाल दिया था। तांत्रिक राघवचेतन तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन की सेवा में जा पहुंचता है और उससे पद्मिनी की सौंदर्य की प्रशंसा करता है।
रानी पद्मिनी के रूप को सुनकर उसे प्राप्त करने के लिये अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर आक्रमण करता है और धोखा देकर राजा को कैद कर दिल्ली ले जाता है। राजा को छुड़ाने के लिये रानी पद्मिनी अलाउद्दीन के पास जाने को तैयार हो जाने का संदेश भिजवाती है और एक योजना के अनुसार गोरा और बादल नामक बहादुर क्षत्रिय पालकियों में सशस्त्र सैनिक छिपाकर दिल्ली पहुंच जाते हैं। बादशाह को संदेश भिजवाया जाता है कि रानी पहले अपने पति से थोड़ी देर मिलकर तब बादशाह के हरम में जायेंगी। इसकी आड़ में रतनसिंह को कैद से निकाल लिया जाता है और वो वापस चित्तौड़ पहुंच जाते हैं। वहां कुंभलनेर के राजा देवपाल के साथ युद्ध में रतनसेन और देवपाल दोनों मारे जाते हैं।
हीरामन तोता शुरू में कहता है
“मानुस पेम भएउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार एक मूँठी”
रचना के अंत मे वह “छार भरि मूठी ” फिर आती है जब पद्मावती और नागमती दोनों पत्नियां शव के साथ सती हो जाती हैं। इसी बीच अलाउद्दीन की सेना दुर्ग पर आक्रमण करती है तो अलाउद्दीन को केवल पद्मावती की राख ही हाथ लगती है और वह कह उठता है यह संसार झूठा है।
“छार उठाइ लीन्हि एक मूठी। दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी”
इस तरह से जायसी के इस महान प्रबंध काव्य का उपसंहार के साथ अंत होता है। रचना के कुछ संस्करणों में कुछ छंद भी आते हैं जिसमें जायसी ने संपूर्ण कथा को एक आध्यात्मिक रूपक बताया है और कहा गया है कि “चित्तौड़ ” मानव का शरीर है, ” राजा रतनसिंह “उसका मन है, “सिंहल” उसका हृदय है, “पद्मिनी” उसकी बुद्धि है, “तोता हीरामन ” उसका गुरु है, “नागमती” उसका लौकिक जीवन है, “राघवचेतन ” शैतान है और “अलाउद्दीन” माया है।
मैं क्या, कोई भी साहित्य प्रेमी जिसने जायसी के पद्मावत को पढ़ा, उसका लुत्फ उठाया वह ज़रूर इस फिल्म को देखने को उत्सुक होगा। इन विरोध और आंदोलन करने वालो के लिए अंत मे कबीर की ही एक पंक्ति याद आती है
“जिंदा बाप कोई न पुजे, मरे बाद पुजवाये ।
मुठ्ठी भर चावल लेके, कौवे को बाप बनाय”।।