“पद्मावती” फिल्म पर विवाद का घमासान अपने रिलीज़ डेट के करीब आते-आते नई शक्ल लेता जा रहा है, जिसके एक नहीं कई पहलू हैं, और अलग-अलग व्याख्या है। कला की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रासंगिक मुद्दा है, राजपूत परंपरा से छेड़छाड़, पद्मावती के स्त्रीत्व को कमतर दिखाने का क्षोभ है और विषय के राजनीतिकरण और बाज़ारीकरण का भी ज़बर्दस्त दवाब और प्रयास भी है। इन सभी के बीच रानी पद्मावती के सम्मान की लड़ाई का दावा करने वाली करणी सेना ने कहा कि अगर फिल्म पद्मावती रिलीज़ हुई तो वो फ़िल्म में रानी पद्मिनी की भूमिका निभा रही दीपिका पादुकोण की नाक काट लेंगे। परेशान करने वाला है, मतलब सम्मान केवल रानी का है, महिला का नहीं?
नाक काटना एक प्रतीक है जिसके प्रतीकात्मक संकेत महिलाओं के लिए सम्मान देने वाला तो कतई नहीं है। भारतीय समाज में प्रतीकों में जीता जागता समाज है, लोकतांत्रिक आस्थाओं में विश्वास रखने वाले देश में किसी भी महिला को इस तरह की धमकी देना संविधान की धाराओं के साथ महिलाओं के साथ खुलेआम मज़ाक है। मध्ययुग की एक लोककथा के लिए मध्ययुगीन सामंती व्यवहार कहीं से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है।
“पद्मावती” फिल्म के बहसों के विरोधाभास में “बदनामी हुई तो नाम तो हुआ” का तड़का अधिक दिखता है, जिसमें महिलाओं के अस्मिता के मूलभूत सवाल मीडिया में “फाईव सेकंड फ्रेम” के बहस का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं।
एक तरफ फिल्म के मेकर्स फिल्म के ज़रिए स्त्री की पारंपरिक दैवीय छवि को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, दूसरी तरफ करनी सेना की आपत्ति, इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने को लेकर है। इन दोनों के बीच, जबकि दोनों का दावा यही है कि वो स्त्री के स्त्रीत्व के मूल्यांकन के लिए डटे हुए हैं। महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि महिलाओं की उन्नति के दौर में सती या जौहर जैसी प्रथा को दिखाना प्रासंगिक क्यों है? खासकर तब, जब महिलाएं अपनी आत्म-आहुति देने के बजाय, हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों का पहाड़ खड़ा कर रही हैं।
“पद्मावती” फिल्म में क्या दिखाया जा रहा है या नहीं दिखाया जा रहा है, इससे अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि किसी भी प्रस्तुति में महिला का जीवित सती दहन का वैभवपूर्ण प्रदर्शन सही कैसे हो सकता है? जबकि सती प्रथा के खिलाफ भारतीय समाज का संघर्षपूर्ण आंदोलन रहा है। औपनिवेशिक और आज़ाद भारत का सबसे पुराना कानून है और सती के लिए किसी को प्रोत्साहित करना कानूनन जुर्म है।
साथ ही साथ यहां ये समझना अधिक ज़रूरी है कि एक लोकतांत्रिक समाज के एक वर्ग विशेष को रानी पद्मिनी का सती होने के साथ अपने सम्मान का सवाल जोड़ना क्यों ज़रूरी हो जाता है? इसको लेकर वजह केवल राजनीतिक या प्रसिद्ध हो जाने तक सीमित नहीं है। यह एक सांस्कृतिक वर्चस्व का काम भी करता है जो महिलाओं के लिए किसी भी लोकतांत्रिक स्पेस को बनने नहीं देता है साथ ही साथ “इज्ज़त” की लड़ाई महिलाओं को नैतिकता का पाठ भी देती है।
यहां यह जानना भी ज़रूरी है कि सती प्रथा जैसे नियम-कायदे पूरे भारत में जाति, वर्ग और धर्म में एक तरह से ही काम नहीं करती रहे हैं, यह एक समुदाय विशेष की महिलाओं के निमित प्रथा रही है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण अलग-अलग तरह के रहे हैं। हिंदू समाज में सती के नियामक एक ही तरह के नहीं है। इसलिए इसकी एकरूपता संपूर्ण हिंदू समाज में एक ही तरह की हो नहीं सकती है।
मार्था चेन बताती हैं कि “सम्मान” की यह धारणा स्त्री के वैयक्तिक स्तर के आचरण को उसके समुदाय के आदर्श मानदंडों से जोड़ती है। सम्मान और अपमान के जुड़वे धारणा को बारंबार उद्बोधित करके परिवार स्त्रियों को उचित और अनुचित आचरण के प्रति अनुकूल बनाता है। इज्ज़त की इस तरह की आग्रहपूर्ण धारणा और उसके साथ-साथ स्त्री के अपने स्वार्थ, उसे समूची आचार-संहिता को बनाए रखने का परिवेश मुहैया कराते हैं।
हिंदू हो या मुसलमान भारत में इज्ज़त को सबसे महत्वपूर्ण आदर्श का दर्जा मिला हुआ है, इसको प्राप्त करने अथवा बरकरार रखने के प्रति अधिकांश समुदाय चौकसी की स्थिति में होते हैं और उसकी सारी चौकसी महिलाओं के व्यवहार को नियंत्रित करती है।
स्त्री जिस परिवार में जन्म लेती है उसमें बेटी के रूप में और जिस परिवार को ब्याही जाती है उसमें पत्नी और मां के रूप में दोनों ही परिवारों का सम्मान संजोती है। जहां दायरें में ही रहना उसके सम्मान को बनाये रखता है, दायरे से बाहर आने पर शूर्पनखा की नाक की तरह है, जिसको “इज्ज़त” के नाम पर कभी भी काटा जा सकता है।
इसके साथ-साथ लोकतांत्रिक आस्था में विश्वास करने वाले देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के सामने गंभीर चुनौतियां अधिक मजबूत हो रही है। किसी भी संगठन का उठ खड़ा होना, किसी भी राजनीतिकरण से लोकतांत्रिक अधिकारों पर भौं टेढ़ी करना, धमकियां देना, खुद को स्थापित करने के लिए संविधान को ताक पर रखना लोकतंत्र की आबो-हवा के लिए कदाचित उचित नहीं है।
फ्रांसीसी विद्वान की लाईने याद रखना ज़रूरी है कि जो तुम बोल रहे हो उससे मेरी असहमति है लेकिन तुम्हारे बोलने की आज़ादी के लिए अंतिम सांस तक लड़ना ज़रूरी है। भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए इन शब्दों पर सोचना ज़रूरी है क्योंकि लोकतंत्र को मज़बूती लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक विचारों से मिलती है, मध्ययुगीन सामंती विचारों और मान्यताओं से नहीं। मध्ययुगीन वर्चस्वशाली विचारों को त्याग करके ही तो समाज ने लोकतंत्र को स्वीकार किया है, पुन: मध्ययुगीन तरीकों के तरफ मुड़ना एक खतरनाक संकेत है।