बिरेन्द्रनाथ (बी.एन.) सरकार द्वारा स्थापित कलकत्ते के ‘न्यू थियेटर्स’ की कहानी ग्रीक कहानियों के ‘फीनिक्स पक्षी’ से मेल खाती है। फीनिक्स के बारे मे ‘राख के ढेर से फिर खड़ा हो उठने’ की कथा प्रचलित है। न्यू थियेटर्स का उद्भव और विकास समकालीन फिल्म कम्पनियों की तुलना मे मर कर फिर जीने जैसा रहा। एक बार भीषण आग से लगभग खाक हो चुकी कम्पनी का कारवां मिश्रित अनुभवों के साथ लम्बे सफर पर निकला। इस दरम्यान कम्पनी ने 150 से अधिक फीचर फिल्मों का निर्माण किया।
न्यू थियेटर्स ने भारतीय सिनेमा को कुंदन लाल सहगल, देवकी बोस, नितिन बोस, पी.सी. बरुआ, पंकज मलिक, बिमल रॉय, फणी मजुमदार, रायचन्द्र बोराल, कानन देवी, जमुना, लीला देसाई और पहाड़ी सान्याल जैसी उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण कलाकारों की परम्परा दी। इन कलाकारों ने यहां से राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पहचान बनाने की दिशा मे एक कदम उठाया, अपनी प्रतिभा को निखारा और संवारा।
देवकी बोस, न्यू थियेटर्स के एक सफल निर्देशक रहे, उनके निर्देशन मे बनी चंडीदास, पुरन भगत, सीता और विद्यापति जैसी फिल्मों ने खूब नाम कमाया। गौरतलब है कि देवकी बोस की ‘सीता’, ‘वेनिस फ़िल्म सामारोह’ मे प्रदर्शित की जाने वाली पहली भारतीय फिल्म है। देवकी बोस के निर्देशन में बनी ‘चंडीदास’ की हिन्दी पेशकश को ‘नितिन बोस’ ने कुंदन लाल सहगल, उमा शशि और पहाड़ी सान्याल के साथ प्रस्तुत किया।
न्यू थियेटर्स से जुड़े कलाकार समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों मे सक्रिय रहे, कंपनी प्रगतिशील लेखक संघ और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रही। फिल्मकार नितिन बोस की समाज सुधी सक्रियता ने न्यू थियेटर्स को एक जुझारू फिल्मकार दिया, इसका प्रभाव ‘चंडीदास’ और बाद की सहगल अभिनीत फिल्म ‘प्रेसीडेंट’ और ‘धरती माता’ में देखा गया। प्रेसीडेंट की कहानी कारखानों मे काम करने वाले मज़दूरों के जीवन पर आधारित थी जबकि ‘धरती माता’ ने खेत-खलिहान-किसान को विषय बनाया। अभिनेताओं में सहगल न्यू थियेटर्स के लिए सबसे सफल साबित हुए, सहगल की बहुत सी यादगार फिल्में इसी कम्पनी के बैनर तले बनी।
तीस और चालीस के दशक के महान गायक-अभिनेता कुंदन लाल सहगल, ‘गम दिए मुस्तकिल’ और ‘दुख के अब दिन’ जैसे दर्द भरे गीतों के प्रतिनिधि से थे। इस विशेषता के साथ सहगल की झोली में अनेक रंग देखने को मिले हैं। एक स्रोत के अनुसार सहगल का जन्म 4 अप्रैल 1904 को जम्मू के नवां शहर में हुआ, जबकि एक अन्य स्रोत 11 अप्रैल को सहगल की जन्मतिथि कहता है। पहले स्रोत को मानकर सहगल की स्मृति में यह विवेचना प्रस्तुत की है।
बचपन के दिनों से ही सहगल को संगीत ने काफी प्रभावित किया, स्कूल जाने की उम्र में रामलीला के कीर्तन सुनने जाते थे। फिर जम्मू के सूफी संत सलामत युसुफ से उनका खूब लगाव रहा। जब बड़े हुए तो पढ़ने-लिखने के बाद रोज़गार की तालाश में उन्हें शिमला (हिमाचल प्रदेश), मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश), कानपुर(उत्तर प्रदेश), दिल्ली और कलकत्ता जाने का मौका मिला। पहली नौकरी कलकत्ता में सेल्समैन की मिली, लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह उनकी मंज़िल नहीं थी, और एक दिन किसी तरह वो न्यू थियेटर्स और बीरेन्द्र नाथ सरकार के संपर्क मे आए।
देवकी बोस न्यू थियेटर्स के एक सफल निर्देशक रहे, उनके निर्देशन मे बनी चंडीदास, पुरन भगत, सीता और विद्यापति जैसी फिल्मों ने खूब नाम कमाया। नितिन बोस की साहित्यकार सुदर्शन से मुलाकात हुई और धूप-छांव कहानी पर इसी नाम से उन्होंने फिल्म बनाई। सहगल ने अपने फिल्म करियर से तत्कालीन सिनेमा में लोकप्रियता हासिल कर पहले स्टार गायक-अभिनेता का दर्ज़ा पाया। न्यू थियेटर्स की फिल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ से अपना फिल्मी करियर शुरू करने से लेकर अंतिम फिल्म ‘ज़िंदगी’ तक कंपनी लिए उन्होंने अनेक फिल्में की।
बी.एन. सरकार, सहगल की प्रतिभा के कायल थे। सहगल को पहला ब्रेक फिल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ (1932) के रूप में यहीं मिला। इस तरह कहा जा सकता है कि ‘सहगल’ न्यू थियेटर्स की खोज थे। सहगल की पहली तीन फिल्में ‘मोहब्बत के आंसू’ ,‘सुबह का सितारा’ और ‘ज़िंदा लाश’ कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई, लेकिन बी.एन. सरकार ने हिम्मत कायम रखी और चंडीदास (1934) में सहगल को एक बार फिर मौका दिया। चंडीदास की कामयाबी ने उन्हें रातों-रात बड़ा सितारा बना दिया, जिसकी गूंज कुछ समय बाद रिलीज़ हुई फिल्म ‘यहूदी की लड़की’ और उसके बाद की फिल्मों में सुनी गई। संगीत और अभिनय की समझ, न्यू थियेटर्स की संगत में निखरकर सहगल के व्यक्तित्व का हिस्सा बनी।
जहां उस समय रायचंद बोराल, तिमिर बारन, पंकज मल्लिक जैसी प्रतिभाओं का जमावड़ा था वहीं पी.सी. बरुआ भी उस समय कंपनी में काम कर रहे थे। पूर्वोत्तर से आए बरुआ ने शरत चन्द्र की रचना ‘देवदास’ का बांग्ला और हिन्दी में फिल्मांतरण किया। बांग्ला संस्करण में शीर्षक किरदार स्वयं बरुआ ने अदा किया, जबकि हिन्दी रुपांतरण में सहगल, देवदास बने।
न्यू थियेटर्स ने ज़्यादातर बांग्ला व हिन्दी फिल्में बनाई, सहगल अभिनीत ‘देवदास’ और ‘स्ट्रीट सिंगर’ को उन्होने बांग्ला के बाद हिंदी में भी बनाया। बरुआ के निर्देशन मे न्यू थियेटर्स के बैनर तले बनी देवदास (1935) कंपनी की सबसे उल्लेखनीय फिल्म मानी जाती है। बरुआ ने ‘देवदास’ को बांग्ला और हिन्दी भाषाओं में बनाकर इतिहास रच दिया। देवदास के अतिरिक्त मुक्ति, अधिकार, ज़िंदगी और शरत चन्द्र की रचना पर बनी ‘मंज़िल’ बरुआ की न्यू थियेटर्स के लिए उल्लेखनीय फिल्में रहीं। देवदास के दो संस्करणों से पी.सी. बरुआ और सहगल शोहरत को बुलन्दियों पर पहुंच गए थे। न्यू थियेटर्स की ‘देवदास’ से बिमल राय को भी प्रेरणा मिली।
न्यू थियेटर्स के संस्थापक बी.एन. सरकार सिनेमा में आने से पहले एक सिविल इंजीनियर थे जो बाद में फिल्मों से जुड़े और सामाजिक यथार्थ के सपनों को सिनेमा के माध्यम से पूरा किया। बिरेन्द्र नाथ की दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता और प्रतिभा के बल पर आरंभिक भारतीय सिनेमा, विकास के सफर पर मज़बूती से चला। उनके द्वारा स्थापित न्यू थियेटर्स ने दर्शकों की अनेक पीढ़ियों को आकर्षित किया, कंपनी के सिने संसार ने लोगों को शिक्षित किया, सामाजिक उत्तरदायित्त्व के साथ स्वस्थ मनोरंजन दिया।
कंपनी का रुझान समाज को दिशावान मनोरंजन देना था, निर्माण पक्ष को सशक्त करने लिए कंपनी ने साहित्य पर बड़ा विश्वास दिखाया। कंपनी ने रचनात्मक दायित्त्वों को पूरा करने के क्रम में ‘बांग्ला साहित्य’ को फिल्मों का प्रमुख आधार बनाया। कंपनी के साहित्य प्रेम से अभिभूत होकर रवीन्द्र नाथ टैगोर, शरतचन्द्र, बंकिमचन्द्र, आगा हश्र कश्मीरी जैसे नामचीन रचनाकार भी उनकी तरफ आकर्षित हुए।
शरत चंद्र का पात्र ‘देवदास’ बरुआ और सहगल की अभिनय क्षमता की मिसाल बन गया, इसकी गूंज बाद की कामयाब फिल्मों प्रेसीडेंट (1937), स्ट्रीट सिंगर(1938) और ज़िंदगी (1940) में भी नज़र आई। बड़े स्टार बन चुके सहगल ने अब कलकत्ता के साथ फिल्म निर्माण के अन्य बड़े केंद्रों में जाने का मन बनाया और चंदूलाल शाह (रंजीत स्टूडियो) के आमंत्रण पर बंबई चले आए। रंजीत स्टूडियो के बैनर तले ‘भक्त सूरदास’ और ‘तानसेन’ में सहगल ने मुख्य भूमिका निभाई।
संपूर्ण गायक के सभी गुण सहगल में मौजूद रहे, यही कारण है कि फैय्याज़ खान,अब्दुल करीम खान, बाल गंधर्व और पंडित ओंकार नाथ जैसे संगीत सम्राट ‘सहगल’ से अभिभूत रहे। उस्ताद फैय्याज़ खान ने एक बार सहगल से ‘ख्याल’ को ‘राग दरबारी’ में गाने को कहा, जवाब में सहगल ने जब गाकर सुनाया तो फैय्याज़ खान ने यही कहा ‘शिष्य ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम्हें सीखना चाहिए।’
अपने करियर में सहगल ने कुल 180 गाने गाए। प्रतिभा के धनी सहगल की आवाज़ में सुरों और सरगम की गहरी खनक मिलती है, इंद्रधनुष के सात रंगो की बयार को सहगल ने भावनाओं में व्यक्त किया।
सहगल की याद में न्यू थियेटर्स (बी.एन. सरकार) ने ‘अमर सहगल’(1955) के माध्यम से उन्हें एक भावपूर्ण श्रद्धांजली दी थी। फिल्म में जी मुंगेरी ने मुख्य भूमिका अदा की, उस समय के नितिन बोस (निर्देशक), रायचंद बोराल-सहायक: पंकज मल्लिक और तीमीर बोरन (संगीत) जैसी शीर्ष प्रतिभाओं की सेवाएं ली गई। साथ में सहगल की फिल्मों से शीर्ष गीतों को रखा गया, जो कि एक भव्य आकर्षण था।