आज चुनाव महज चुनाव नहीं रह गये हैं, यहां जीत का परचम ही मायने रखता है और इसके लिये हर तरह की राजनीति की जा सकती है। मसलन राजनीति एक ऐसा खेल बन गया है जहां जीत बहुत अहम हो गयी है, लेकिन इस खेल में कोई नियम कानून नहीं रह गया है। कहीं भी कोई भी, निजी हद तक जाकर आरोप लगा सकता है। मेरा इशारा व्यक्तिगत इज्ज़त की तरफ है।
इज्ज़त के नाम पर ही समाज में व्यक्तिगत छवि को उभारा भी जा सकता है और एक ही झटके में धाय से इसपर प्रहार करके व्यक्तिगत छवि को धूल में भी मिलाया जा सकता है। लेकिन इज्ज़त, आज राजनीतिक मैदान में बहुत लोगों की बहुत तरीके से उछाली जा रही है।
विनोद खन्ना के देहांत के बाद गुरदासपुर लोकसभा चुनाव हाल ही में सम्पन्न हुए हैं, जहां भाजपा का प्रत्याशी शिरोमणि अकाली दल के सहयोग के साथ अपनी किस्मत आज़मा रहा था। वहीं राज्य सत्तारूढ़ कॉंग्रेस का उम्मीदवार भी अपनी जीत के दावे भर रहा था। यहां इस क्षेत्र में अकाली दल के एक नेता सुचा सिंह लंगाह की तूती बोलती थी। वास्तव में भाजपा का प्रत्याशी लंगाह के दम पर ही अपनी जीत के दावे भर रहा था। लेकिन, अक्टूबर की शुरुआत में चुनाव से महज़ कुछ दिन पहले एक सीडी धड़ल्ले से सोशल मीडिया पर वायरल हो रही थी, जहां लंगाह एक महिला के साथ आपत्तिजनक स्थिति में दिखाई दिया है। बाद में इसी महिला द्वारा लंगाह पर जबरदस्ती करने का आपराधिक मामला भी पुलिस के सामने रखा गया। मसलन, व्यक्तिगत किरदार की छवि को एक सीडी ने इस तरह मिट्टी में मिला दिया कि लंगाह के साथ अकाली दल भी अपना मुंह छिपाते हुए दिखाई दिया। यहां कहने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये कि गुरदासपुर के चुनाव में अकाली दल द्वारा समर्थित भाजपा उम्मीदवार की करारी हार हुई और कॉंग्रेस प्रताक्षी को भारी बहुमत से विजयी बनाकर जनता ने राजनीति में इज्ज़त की छवि पर मोहर लगा दी, जहां व्यक्तिगत किरदार में किसी भी तरह का दाग जनता ने नामंजूर कर दिया।
अब, यही सीडी गुजरात की राजनीति में भी अपनी अहमियत दिखा रही है। मसलन, व्यक्तिगत छवि को धुंधला करने वाली सीडी गुजरात की राजनीति में भी प्रवेश कर गयी है। इसमें दिखाए गए शख्स को टीवी मीडिया की एंकर गुजरात के पाटीदार आंदोलन का चेहरा बन चुके हार्दिक पटेल को बता तो रही है। लेकिन साथ ही साथ सीडी के प्रामाणिक होने की पुष्टि भी करने से मना कर रही है। ऐसे में एक दर्शक टीवी चैनल से ये सवाल नहीं करेगा कि अगर सीडी की प्रामाणिकता पर ही चैनल मोहर नहीं लगा रहा तो इसे दिखा क्यों रहा है ? लेकिन इसे देखने वाला शख्स हो सकता है कि हार्दिक के व्यक्तिगत किरदार और राजनीतिक छवि पर सवाल उठा दे।
लेकिन गुजरात की राजनीति में ये पहली सीडी नहीं है। इससे पहले भी कई राजनीतिक बलवान सीडी या किसी और माध्यम से चरित्र हरण की भेंट चढ़ चुके हैं। 2005, में एक सीडी ने गुजरात की राजनीति में भूचाल ला दिया था। पेशे से मकैनिकल इंजीनियर लेकिन आरएसएस के साथ एक प्रचारक की तरह जुड़े संजय जोशी इस पूरी सीडी प्रक्रिया के केंद्र बिंदु थे। जहां जोशी के व्यक्तिगत छवि को ये सीडी धुंधला कर रही थी, वहीं जोशी को जानने वाले, नज़दीकी लोग इस सीडी पर सवाल उठा रहे थे। अपने जीवन में स्लीपर क्लास में यात्रा करने वाले बेहद शांत और सुशील छवि के मालिक जोशी का इस तरह एक सीडी में आपत्तिजनक रूप से मौजूद होना आरएसएस और बीजेपी दोनों को ही शर्मशार कर रहा था।
सीडी को जिस समय सार्वजनिक किया गया उस समय भाजपा, अपनी 25वीं वर्षगांठ मना रही थी, जहां समारोह की सभी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। वहीं सीडी के कारण संगठन के नेता मीडियाकर्मियों से और आम जनता से आंख नहीं मिला पा रहे थे। अगर सीडी के बाहर आने के समय को देखा जाये तो यकीनन ये सीडी एक राजनीतिक षड्यंत्र का ही एक हिस्सा लगती है। जहां एक समय जोशी और मोदी जी दोनों आरएसएस के प्रचारक के रूप में गुजरात में मौजूद थे और 1995 में भाजपा को गुजरात की सत्ता दिलवाने में भी इन दोनों साथियों का सर्वश्रेष्ठ योगदान माना जाता है। लेकिन 95 के चुनाव के बाद मोदी को गुजरात से हटाकर दिल्ली ले जाया गया। कुछ लोग मोदी को गुजरात की राजनीति से दूर करने का कारण जोशी को ही मानते हैं। लेकिन, ये भी इत्तेफाक ही था कि 2005 में जब जोशी को एक सीडी के रूप में खलनायक बनाया गया तब गुजरात की सत्ता में खुद श्री नरेन्द्र भाई मोदी ही मौजूद थे।
लेकिन, जब 2014 के लोकसभा चुनाव दहलीज़ पर थे मोदी को भाजपा ने अपना प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया था, ऐसे समय में कुछ फोन कॉल्स सार्वजनिक कर दिये गये जहां साल 2008 ओर 2009 के दरम्यान उस समय के गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह और गुजरात पुलिस अफसरों के बीच बात-चीत का ब्यौरा था। जहां शाह बार-बार साहिब का नाम ले रहे थे और पुलिस कर्मचारियों द्वारा किसी एक महिला के बारे में पल-पल की जानकारी इकट्ठा करने का फरमान जारी कर रहे थे। यहां साहिब से मतलब नरेन्द्र भाई मोदी जी से लगाया जा रहा था। मामले ने तूल पकड़ा मीडियाकर्मी इसकी भारी भरकम रिपोर्ट करने लगे। तब उस समय की यूपीए केंद्र सरकार को एक जांच बिठानी पड़ी थी जिसे मोदी जो के प्रधानमंत्री बनने के बाद फौरन बंद कर दिया गया।
राजनीति में छवि को बिगाड़ना सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। 1997 की जनवरी में रिलीज़ हुई एक हिंदी फिल्म ‘आस्था’ में प्रोफेसर के किरदार में ओमपुरी अपने विद्यार्थियों से कहता है कि अमेरिका इतना विकसित देश है लेकिन अगर वहां के राष्ट्रपति पर कोई महिला चरित्र हरण का आरोप लगा दे तो वहां की जनता इसे स्वीकार नहीं करेगी। शायद ये इत्तेफाक ही था कि इसी साल के अंत में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और उनकी एक महिला सहकर्मी मोनिका लेविंस्की के बीच शारीरिक संबध अमेरिका की खबरों की सुर्खियां बन रहे थे। जिसके बाद क्लिंटन ने माना भी और वह दूसरी बार राष्ट्रपति चुनाव में विजयी भी हुये थे। शायद यहां जनता क्लिंटन के चरित्र से ज़्यादा उनके काम को तबज्ज़ों दे रही थी। यहां जनता बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की से ज़्यादा, शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ, सुरक्षा, विकास इत्यादि उन पहलूओं पर विचार कर वोट दे रही थी जिसके कारण एक विकसित और शिक्षित समाज और देश की रचना की जा सके। वास्तव में अमेरिका का जागरूक मतदाता ही सबसे बड़ा कारण है जो अमेरिका को एक विश्व ताकत के रूप में उभरने का अवसर प्रदान करता है।
लेकिन भारत में, जब-जब चुनाव आते हैं तब-तब किसी सीडी या किसी और माध्यम से किसी नेता का चरित्र हरण किया जाता है। हिंदू मुस्लिम समाज को धर्म और मज़हब के कारण बांटने की कोशिश होती है। जाति प्रथा पर निर्भर होकर उम्मीदवारों को चुनाव टिकट दिया जाता है। इसी अंदाज में गुजरात राज्य चुनाव से महज़ एक महीना पहले हार्दिक पटेल को बदनाम करने वाली सीडी के कारण हार्दिक मीडिया के निशाने पर आ गए हैं। हर बार की तरह इस बार भी इन खबरों में बहकर एक मतदाता अपना चुनावी मत अपनी मूलभूत समस्याओं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, सुरक्षा, विकास को भूलकर जज़्बातों के बहाव में बदल सकता है। जनता अपने मत का इस्तेमाल कब जज़्बातों में बहकर कर आती है वह उसे खुद नहीं समझ पाती और इसी तरह सरकार भी बन जाती है। इस तरह हम कैसे सुपर पावर बन सकते हैं। वास्तव में वोट का ध्रुवीकरण भी एक भ्रष्टाचार ही है और जिस देश की नींव भ्रष्टाचार पर टिकी हो, वहां लोकतंत्र सिर्फ और सिर्फ संविधानिक किताबों तक ही कैद रह सकता है। वह वास्तव में कभी भी समाज की रचना में लोकतंत्र को परिभाषित नहीं कर सकता। जिसका सबसे बड़ा कारण हम खुद हैं एक मतदाता के रूप में।