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इस आधुनिक भारत के जश्न में हम आज भी दहेज का बोझ क्यों ढो रहे हैं?

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कुछ दिन पहले बैंक में मेरे पास एक मां-बेटी आए थे, फैमिली पेंशन पर लोन लेने के लिए। बड़ी जल्दी थी उन्हें लोन की, 12 दिसंबर को बेटी की शादी है इसलिए। जिसकी शादी है वो BA फाइनल में कुछ सब्जेक्ट नहीं निकाल पाई इसलिए घर पर ही है। जो बेटी साथ आई थी वो BA पास है और वो भी घर पर ही रहती है।

जब मैंने उनकी बेटी को बोला फॉर्म भरो तो, “मुझे नही समझता” कहकर उसने टालने की कोशिश की। लेकिन मैंने फॉर्म भरकर देने से मना किया और “नाम, पता, जन्म की तारीख और खाता क्रमांक इतना ही लिखना है, फिर भी कोई परेशानी आए तो पूछ लो।” कहकर मैंने उसे फॉर्म दे दिया। फॉर्म हिंदी में रहने के बाद भी वो ठीक से भर नही पा रही थी, ये देखकर ही थोड़ा गुस्सा आया। मैने गुस्से में उसे कहा भी, “BA पास हो और बहुत ही बेसिक जानकारी भी भर नही सकती।” फिर जैसे-तैसे उसने फॉर्म भरकर दिया।

उनका पहले से ही एक लोन चालू था जो उन्होंने सबसे बड़ी बेटी के शादी के लिए लिया था। नया लोन लेने के लिए पुराना लोन बंद करना ज़रूरी था, उनके पिछले लोन के कुछ तीस हज़ार बाकी थे। हमारे बैंक मैनेजर ने पहले उन्हें बताया था कि उनको डेढ़ लाख का लोन मिल सकता है, इसलिए वो पुराना लोन बंद कराने के लिए खुशी से तैयार हो गए थे। पर मैंने देखा तो उन्हें बस 90 हज़ार ही मिल सकते थे, जैसे ही मैंने उन्हें ये बताया तो मां-बेटी के चेहरे का रंग उड़ गया। वो विनती करने लगे, “मैडम 1 लाख तो भी कर दो, तीस हज़ार तो भरने में ही जा रहे हैं, बस 60 हज़ार ही हाथ मे मिलेंगे।” उन्होंने मैनेजर से भी विनती की, पर होना कुछ था नहीं और मुझे गुस्सा अब इस बात पर ज़्यादा आ रहा था कि जब पैसे नहीं हैं तो क्यों इतनी झूठी शान दिखाके शादी कर रहे हैं।

जब लोन अमाउंट 90 हज़ार का तय हुआ तो उनका कहना था, “मैडम जल्दी करवा दो ज़रूरत है, ये 30 हज़ार बड़ी बहन के सब गहने गिरवी रखकर लाए हैं।” अब मैं कुछ बोलने वाली कौन थी, बस इतना बोला कि कल आ जाओ पैसे मिल जाएंगे तब तक पुराना खाता बंद करवा दो। इतना कहकर मैंने उन्हें जाने के लिए कह दिया। इस पर उनका कहना हुआ कि “मैडम कल लोन सैंक्शन हो जाए तो फिर पुराना बंद करवा देते हैं।” मैंने हां कह दिया और वो चले गए। जब मैनेजर को मैंने सब तैयार करके फाइल दी तो वो बोले, “मैडम पहले पुराना लोन बंद करवाओ, फिर 2 दिन बाद लोन सैंक्शन कर दूंगा।” अब आखिरी फैसला तो उनका ही था।

अगले दिन मां-बेटी फिर बैंक आए 30 हज़ार लेकर। “मैडम हो गया क्या लोन पास?” मैंने उन्हें सब बताया जो मैनेजर ने कहा था। यह सुनते ही वो बड़े उदास हो गए, कहने लगे “मैडम इमरजेंसी है थोड़ा, कर दो आज ही।” इस पर मैंने गुस्से में चिल्लाते हुए कह दिया, “कोई हॉस्पिटल में हो, किसी की तबियत खराब हो, बच्चे की पढ़ाई रुक गयी हो, वो होती है इमरजेंसी, यहां कौन सी इमरजेंसी है आपकी?” तो उनका जवाब था, “मैडम टाइम पर लड़के के घर पर हुंडा (दहेज) पहुंचाना भी इमरजेंसी है, हुंडा नही पहुंचा तो लड़की की शादी टूट जाएगी, ज़िंदगी खराब…”

मैं दंग थी, जब पूछा कि लड़का क्या करता है तो पता चला कि वो ज़िला परिषद के स्कूल में टीचर है। 1 लाख उसे हुंडा चाहिए था और शादी का खर्चा अलग जो वो अपने 12 एकड़ के खेतों में से 3 एकड़ बेचकर निकालने वाले थे। बड़ी बेटी की शादी में भी उन्होंने 40 हज़ार का हुंडा दिया था। मेरे बोलने पर कि क्यों आप लोग बढ़ावा दे रहे हो इन बातों को तो जवाब मिला, “रिवाज़ है, संस्कृति है अपनी। समाज में करना ही पड़ता है।” ये तो बस कैश की बात थी, बाकी वो दहेज में देंगे वो अलग। फैमिली पेंशन और खेती पर घर चल रहा है और उसपर ये सब!!

एक मैनेजर की हैसियत से टेबल संभालते हुए लोन अप्रूवल के लिए मैं बस इतना ही कर सकती थी। लेकिन जो अपने सामने होता देख रही थी- उस मां के चेहरे पर चिंता, लोन कम होने पर पसीना आना, बहन के गहने छुड़ाने की चिंता, शुक्रवार की जगह सोमवार को लोन होने वाला है सुनकर बैचैनी। इंतज़ार करना उनके लिए मुमकिन नहीं था।

ये परिवार यवतमाल (महाराष्ट्र) के पास के एक छोटे से गांव से था, जहां पढ़ाई भी बस फॉर्मेलिटी तौर पर ही होती होगी। लेकिन शहर में भी हम कहां कुछ नया कर रहे हैं? हम शहरी लोग अच्छे स्कूल, अच्छे कॉलेज से पढ़ने के बाद भी इस प्रथा को आगे बढ़ा रहे हैं।

कितने तो IIT, IIM, जैसे संस्थानों से पढ़कर निकले होते हैं और कितने ही IAS ऑफिसर। ये लोग खुली छूट के साथ अपना दहेज का रेट डिसाइड करते हैं। समाज में झूठी शान के लिए लोग पता नहीं कहां-कहां से पैसे जोड़कर शादी में लगाते है, खासकर कि लड़की वाले।

बैंक को तो अपने लोन पर ब्याज मिलेगा ही, लेकिन इस महान संस्कृति का पुराना ब्याज क्या सिर्फ औरत ही भरेगी? इस महान पुरुषप्रधान, उच्चवर्गीय, संस्कृति का बोझ कौन सर पर ले रहा है? रीति-रिवाज और संस्कृति का यह विद्रूप गरीब लोगों में ही ज़्यादा वेदना लेकर आता है। शादी का यह मार्केट और ज़्यादा भयानक होता जा रहा है। हमेशा से यही होता आया है, कोई भी बोझ लड़की को ही पहले उठाना पड़ता है। आज भी अगर वही हो रहा है, तो फिर किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं हम और कौन से आधुनिक भारत का जश्न मना रहे हैं हम?

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