कुछ किताबें अजीब होती हैं। अजीब इसलिए कि उन्हें पढ़कर आप थोड़ा बेचैन हो जाते हैं और थोड़ा स्थिर। ये अजीब ही तो है कि कोई एक किताब पढ़कर आप एकसाथ दो विपरीत मनःस्थितियों में विचरण करते रह जाएं, या अचानक उठकर कागज़ कलम लें और अपने मन में घूम रहे विचारों को शब्दों में तब्दील करना चाहें मगर शब्द आपका साथ देना छोड़ दें।
यशपाल का उपन्यास ‘दिव्या’ कोई नई किताब नहीं है, न ही इसकी कहानी हमारी या आपकी आज की ज़िंदगी से जुड़ती नज़र आती है। यह तो आज से बरसों पहले लिखा गया था जिसमें सैकड़ों साल पहले की एक कहानी है, सागल की ब्राह्मणकुमारी ‘दिव्या’ की कहानी।
दिव्या, सागल (आज का सियालकोट) की एक अभिजात्य (ऊंची जाति के धनी परिवार की) कन्या है जिसे शूद्र कुल में उत्पन्न वीर पृथुसेन से प्रेम हो जाता है। दिव्या के प्रपितामह (परदादा) धर्मस्थ हैं और न्याय के सिंहासन पर विराजमान हैं। वहीं पृथुसेन के पिता महाश्रेष्ठी हैं, धनवान हैं, समृद्ध हैं मगर समाज में सम्मान के भूखे हैं। उनके नगर का शासन यवन राजकुल के हाथों में है जिसमें कुलीन (धनी) परिवारों के ऐशोआराम में डूबे रहने के कारण जनता दु:खी है ऐसे में अचानक आक्रमणकारी केंद्रस के आक्रमण की सूचना आ जाती है।
कुलीन राजकुमार युद्ध में जाने से भयभीत हैं, पराजय लगभग निश्चित मानी जा रही है और तभी पृथुसेन युद्ध में जाने का निर्णय लेता है। दिव्या भयभीत भी है और गौरवान्वित भी, उसे उम्मीद है कि शायद इस युद्ध के बाद उसका और पृथुसेन का विवाह हो जाए।
उधर ब्राह्मण कुमार आर्य रुद्रधीर, ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान के लिए महर्षि पतंजलि से दीक्षा लेने के लिए जाते हैं, मगर जाते-जाते दिव्या के लिए अपने मन का प्रेम उसके भाई से प्रकट करते जाते हैं।
समय बीतता है और दिव्या के जीवन में कठिनाइयां बढ़ जाती हैं। वो गर्भवती है, मगर पृथुसेन को ये बात बता नहीं पाती और मजबूरी में घर छोड़ देती है। फिर दासों की तरह बिक जाती है और कालांतर में नर्तकी बन जाती है। तब उससे भेंट होती है आवारा मूर्तिकार मारिश की, जो चार्वाक (अनीश्वरवादी) है और स्वयं को जीवन के धूल-धूसरित मार्ग का पथिक कहता है।
उपन्यास के एक अंश को देखिये-
“परन्तु वह संतोष न पा सकी। शीघ्र ही उसकी अनुभूति बदल गयी। स्वामिनी की आज्ञा थी- पहले स्वामिनी के पुत्र को स्तनपान कराकर फिर वह अपने पुत्र को स्तन दे। वह आज्ञा शूल की भांति उसके ह्रदय को बेध गई, परन्तु आज्ञा पालन के अतिरिक्त उपाय न था। द्विजपुत्र को स्तनपान करा देने के पश्चात् उसके पुत्र शाकुल के लिए दूध शेष न रहता। अपनी संतान को क्षुधित देख उसका ह्रदय रो उठता। वह द्विजपत्नि की दृष्टि की ओट होकर अपनी संतान को स्तनपान कराने का अवसर खोजती रहती। वह अपने स्तन के दूध की चोरी करने लगी।”
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“इन दासियों का काम केवल गृहसेवा या स्वामी के लिए भृत्ति कमाना न था। वे प्रति अठारह मास बाद संतान उत्पन्न करतीं। प्रतूल इन दासियों को न बेचकर उनकी संतानों को बेचता था।”
इसके बाद कहानी फिर से कई रोमांचक मोड़ लेती है और अंत में एक अभूतपूर्व निष्कर्ष पर लाकर छोड़ देती है, विचार करने के लिए। दिव्या, उन बेहतरीन किताबों में से एक है जिसे हर किसी को ज़रूर पढ़ना चाहिए, तो आप कब पढ़ रहे हैं?