2 अक्टूबर, 2017 को जब से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बाल विवाह एवं दहेज प्रथा के खिलाफ सामाजिक आंदोलन का बिगुल फूंका है, तब से एक बार फिर ये दोनों ही मुद्दे देशभर की अहम चर्चाओं में शामिल हो गये हैं। आखिर तमाम तरह के कानूनों और जागरूकता अभियानों के बावजूद हमारे समाज से ये दोनों कुरीतियां आखिर क्यों खत्म होने का नाम नहीं ले रही?
UNFPA की रिपोर्ट 2000-2011 के अनुसार, हालांकि भारत में किशोरियों के बीच बाल विवाह की दर घटी है, इसके बावजूद इस मोर्चे पर इतनी प्रगति नहीं हुई कि उन्हें शिक्षा और आत्मनिर्णय के अधिकारों की गारंटी मिले।
कानूनी तौर से भारत में लड़का और लड़की की शादी की उम्र क्रमश: 21 वर्ष और 18 वर्ष है। भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के लगातार 3 सर्वेक्षणों के मुताबिक 15 साल तक की लड़कियों में बाल विवाह दर में गिरावट, 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की विवाह दर में कमी से दोगुनी है। इसे ध्यान में रखते हुए पिछले महीने की शुरुआत में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि 18 वर्ष से कम उम्र की ‘विवाहित’ लड़की के साथ बनाया जाने वाला शारीरिक संबंध रेप माना जाएगा।
दरअसल पूर्व में लागू कानून खुद में विरोधाभासी था। एक तरफ जहां कानून में विवाह की न्यूनतम आयु और सेक्स के लिए सहमति की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित थी, तो दूसरी तरफ नाबालिग पत्नी के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाने को न्यायसंगत कैसे माना जा सकता था? यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का सरासर उल्लंघन था। इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में दायर की गयी याचिका में शामिल पहलुओं को सही मानते हुए IPC की धारा- 375 (2) को असंवैधानिक करार दिया।
वास्तव में एक राष्ट्र जिसे विश्व की अगली महाशक्ति माना जा रहा है, उसके लिए बाल विवाह बेहद शर्मनाक वास्तविकता है। भारत में बाल विवाह की शुरुआत के लिए विदेशी आक्रमणकारियों को ज़िम्मेदार माना जाता है। वे लोग जब भारत आए तो वे अक्सर युवा लड़कियों का अपहरण कर लेते या उनके साथ बलात्कार करते। उनके डर से ही यहां के लोगों ने अपनी लड़कियों का छोटी उम्र में विवाह करवाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे लोगों की इस मजबूरी ने सामाजिक परंपरा का रूप ले लिया और फिर यह कब उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में तब्दील हो गई, उन्हें भी पता नहीं चला।
हमारे देश में धर्म, परंपरा और अंधविश्वास की जड़ें कितनी गहराई से जमी हैं, इस बात को हम सभी बखूबी जानते हैं। इसी कारण हर साल अक्षय तृतीया के मौके पर देश भर में सैकड़ों-हज़ारों बाल विवाह होते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन होने वाला विवाह बंधन सात जन्मों का बंधन होता है। बिहार में इस मौके पर सबसे ज़्यादा बाल विवाह होते हैं। कई बार पुलिस, प्रशासन और कानून भी इनके आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो जाता है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) 2015-16 के मुताबिक, भारत में लड़कियों के बाल विवाह का सबसे ज़्यादा प्रतिशत पश्चिम बंगाल (40.7) में है, जो राज्य के ग्रामीण इलाकों में 47 फीसदी तक हो जाता है। दूसरे और तीसरे पायदान पर बिहार (39%) और झारखंड (38%) हैं।
ज़ाहिर है कि पश्चिमी बंगाल में इस कुरीति का बड़ा कारण सामाजिक है, क्योंकि शैक्षिक दृष्टि से इसकी स्थिति अन्य दोनों राज्यों से बेहतर है। वहीं बिहार और झारखंड में बाल विवाह का मुख्य कारण अशिक्षा और गरीबी है। एक गरीब इंसान अपनी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ तो कर नहीं पाता, बेटी के लिए दहेज कहां से जुटाए? बच्चों को बेहतर शिक्षा कैसे दे? इसी वजह से इन राज्यों में ह्यूमन ट्रैफिकिंग के मामले भी अधिक देखने को मिलते हैं। कई मामलों में मां-बाप अपनी बेटियों को जानबूझकर अमीरों के हाथों में चंद रुपयों के लिए बेच देते हैं।
रिपोर्ट के अनुसार बाल विवाह का सबसे कम प्रतिशत पंजाब और केरल में दर्ज किया गया, इन दोनों राज्यों में यह प्रतिशत कुल 7.6 है। ज़ाहिर सी बात है कि इन राज्यों में शिक्षा और जागरूकता का स्तर अपेक्षाकृत बेहतर है। अत: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा बाल-विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ शुरू की गयी मुहिम निश्चित रूप से सराहनीय है और अन्य राज्यों को भी इससे सबक लेना चाहिए।
एक गरीब और अशिक्षित समाज में यह कितना और कब तक सार्थक हो पायेगा यह कहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि किसी भी राजनीतिक या सामाजिक अभियान की सफलता के लिए उससे जुड़े लोगों का शिक्षित, जागरूक और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना जरूरी है। इसलिए बिहार सरकार को अपनी इस मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने और रोज़गार निर्माण के अवसरों को बढ़ाने की दिशा में भी साथ-साथ ध्यान देने की ज़रूरत है।