क्यों नकाब है उस पे….क्यों पहरे हैं उसपे
क्यों घुंघट में छुपी है नजर…
क्यों बुरखे में दबी है ख्वाहिशें…
क्यों बंधन है इतना…बेडीयां लगी हैं क्यों सपनों पर
ज़ोर नहीं है उसका अपनों पर….
पूरे दिन की मेहनत कर बस दो मीठे बोल चाहती है…
उस पर भी वो अारोपी ठहरायी जाती है..
दबा है हुनर परछाइयों में कहीं….
नाम की कोई पहचान नहीं…
काम का उसके कोई अंजाम नहीं..
नाम को भी बदल लेती है…
वो वक्त वक्त पर माँ,बेटी,बहू हर रूप धर लेती है..
एक औरत ही है जो नई पीढ़ी को जन्म देती है।
वो एक औरत है जो सबके सपनों के नीचे खुद को ढक लेती है।
नकाबों के पहरे हटा दो उसके…
बुरखे को कहीं दफना दो उसके..
आजाद करदो घूंघट से इसको…
दिखा देगी तुमको ये..
घर ही नहीं ये देश चला सकती है…
वो औरत ही है जो देश बचा सकती है।
रक्षा की हो बात सीतारमन आगे है,
हिन्दुस्तान की सिंधु से तो औकेरा भी कांपे है।
देखो चारों तरफ इनका ही दब दबा है..
बदलना वो है जो कहीं पिछडा हुआ है
बेडियों से मुक्त कर..उनको लाखों सपने सजवाने है..
मैं भी हूँ एक लड़की देख आज का हाल मैं ये लिख रही हूँ..
कल भविष्य की चिंता में ये कह रही हूँ..
दे दो आजादी इनको, मत बाँधो तुम रिश्तों में…
घूँघट,परदे,बुरखे को बेच दो बाजारों में..
घर पर रहने वाली जब बाहर जाएगी….
थोड़ा ही सही पर घर खर्च में हाथ बँटाएगी…
देख लेना यही औरत एक दिन पूरा देश चलाएगी।
Monika