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हिंदी फिल्मों के 12 भूले-बिसरे चेहरे जिन्हें याद करना ज़रूरी है

भारतीय सिनेमा संदर्भ में हिन्दी सिनेमा का बड़ा हिस्सा आता है। फिल्मों की दास्तान को मुड़कर देखने पर सितारों की एक आकर्षक दुनिया से वास्ता होगा। सितारों में नायक-नायिका ही नहीं और लोग भी मिलेंगे। दरअसल, सितारों में उन सबकी बात की जानी चाहिए जिनका सामर्थ्य फिल्म विधा को जीवित रखता है। एक टीम वर्क होने कारण फिल्म में हरेक यूनिट का योगदान मायने रखता है। किसी आईडिया को विकसित करने में यह लोग बड़ी शिद्दत से जुटे रहते हैं। सिनेमा सभी स्थितियों में रूचिपूर्ण है, इस नज़र से चलती तस्वीरों का सफर एक घटनाक्रम की तरह सामने आता है।

समय के साथ बहते हुए फिल्मों की दुनिया का बड़ा हिस्सा गुज़रा दौर हो जाता है। बीता वक्त वर्तमान व भविष्य का एक संदर्भ ग्रंथ है। फिल्मों का कल और आज अनेक भूली-बिसरी कहानियों को संग्रहित किए हुए है। सितारों की रोचक कहानियां हैं, हिंदी सिनेमा की तकदीर में इनका योगदान बीते वक्त की बात होकर भी विमर्श का विषय है। आइए कुछ ऐसे ही मशहूर लेकिन इतिहास में सिमट चुके फिल्म शख्शियतों को जानें।

असित बारन:

विभाजन की त्रासद परिस्थिति के मद्देनज़र चालीस के दशक में बड़ी संख्या में पलायन हुआ। सिनेमा भी इस मायने में अछुता ना रहा कि बड़े नाम कलकत्ता से बंबई कूच कर गए। कलकत्ता का ‘न्यू थियेटर्स’ प्रतिभा पलायन के संकट से जूझ रहा था। सहगल के रूप में एक बड़ा नाम अब बांबे जा चुका था। असित बारन जैसे नए कलाकारों ने अपूर्व क्षति के क्षण में कंपनी को सहारा दिया। कहना होगा कि उभरते सितारों में ‘न्यू थियेटर्स’ को भविष्य नज़र आया। ग्रामोफोन कंपनी व ऑल इंडिया रेडियो के रास्ते फिल्मों में आए असित, सहगल की तर्ज पर पार्श्व गायन के साथ अभिनय भी किया करते थे। लीड भूमिकाओं से पहल चरित्र किरदारों में रम गए। इस संदर्भ में परिणीता (बिमल राय) के किरदार को स्मरण किया जा सकता है।  बारन के महत्त्व को समझने के लिए हमें ‘न्यू थियेटर्स’ के दौर में लौटना होगा।

मिस गौहर:

भारतीय सिने जगत में गोहर मामजीवाला उर्फ मिस गोहर का योगदान स्मरण का विषय है। गुज़रे दौर की स्मृतियों में यह एक नाम बहुमुखी प्रतिभा वाली नारी शक्ति का ज़िक्र करता है। अभिनेत्री, स्टुडियो संचालक व फिल्ममेकर गोहर एक प्रेरक व्यक्तित्व की मालिक रही। मूक युग से शुरू हुआ सफर बोलती फिल्मों के ज़माने तक रहा। बंबई के उच्च बोहरी घराने से ताल्लुक रखने वाली गोहर, गुलाबों की सेज़ पर पलीं। पढले-लिखने के शौक ने सभ्य, शिक्षित व्यक्तित्व को आकार दिया। खानदानी व्यवसाय को मिला नुकसान अमीरी के पलों को ज़ब्त कर गया। पारिवारिक मित्र होमी मास्टर (अभिनेता) ने गोहर को फिल्मों में किस्मत आकर बिगड़ी तकदीर संवारने का मशविरा दिया। कोहीनूर फिल्मस के बैनर तले बनी मूक फिल्म से फिल्मों में दाखिल हुईं। उस दौर में कोहीनूर की ज्यादातर फिल्मों में गोहर को लीड रोल मिला। बैनर की चर्चित शीरीं-फरहाद को आज भी याद किया जा सकता है। गोहर की दमदार भूमिका ने हर किसी को मंत्रमुग्ध कर दिया था। कोहीनूर के लिए काम कर रहे चंदूलाल शाह ने भी इस प्रतिभा को नोटिस किया। अब से चंदूलाल गोहर को ही लीड रोल देने लगे। उनके द्वारा निर्देशित अधिकांश फिल्मों में गोहर लीड भूमिकाओं में रहीं। चंदूलाल-गोहर का विवाह उस दौर की एक सनसनीखेज खबर थी। पत्नी के सहयोग से चंदूलाल ने रंजीत स्टूडियो की नींव रखी। रंजीत की स्थापना दरअसल तत्कालीन सिनेमा में स्टूडियो युग की बात कहता है। रंजीत का ज़िक्र दरअसल गोहर व चंदूलाल के उत्थान-पतन की कहानी है।

गुलाम हैदर:

लाहौर से ताल्लुक रखने वाले संगीतकार गुलाम हैदर का नाम संगीत की दुनिया का बड़ा नाम ज़रूर है, लेकिन अक्सर यह नाम सुनने को नहीं
मिलता। हैदर साहेब की जादूगरी (संगीत बंदिश) पुरानी होकर भी फीकी नहीं। उनकी कुछ उपलब्ध रचनाओं को महसूस कर यही कहा जा सकता है। चालीस के दशक में फिल्म को सौंदर्यशास्त्र से जोड़ने की मुहिम का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे। यह अभियान भारतीय फिल्म संगीत को उचित सम्मान दे सका था। पंचोली प्रोडक्शन की फिल्मों को गुलाम हैदर की वजह से ख्याति मिली। पंचोली, फिल्मिस्तान, मिनरवा जैसे बड़े बैनर हैदर साहब की सेवाएं ले रहे थे। महबूब खान की मुग़ल शाहकार ‘हुमायूं’ हिंदुस्तान में गुलाम हैदर की आखिरी फिल्म रही।

अभिनेत्री जमुना: जमुना पीसी बरूआ की एक महत्त्वपूर्ण खोज थीं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि फिल्मों में बरूआ के माध्यम से आई थीं। बरुआ की जीवनसाथी जमुना ने ज़्यादातर पीसी बरूआ की फिल्मों में अभिनय किया। तीस के दशक में ‘न्यू थियेटर्स’ कलकत्ता के साथ करियर का आगाज़ किया। जमुना का शुमार उस ज़माने की टॉप सिने तारिकाओं में हुआ। बरूआ की पथ-प्रदर्शक प्रस्तुति देवदास के बांग्ला व हिंदी संस्करण में लीड किरदार अदा किए। फिल्म की ज़बरदस्त कामयाबी ने भारतीय सिनेमा में नई आशाओं का संचार किया। इसकी खनक अंतराष्ट्रीय स्तर पर सुनी गई। बरूआ की मंज़िल, अधिकार एवं ज़िंदगी को इससे काफी संबल मिला। इनका एक दशक से अधिक समय न्यू थियेटर्स के साथ बीता। इस दरम्यान एक से बढ़कर एक उल्लेखनीय फिल्में की। बरुआ के साथ ज़िंदगी करने के बाद जवाब तथा उत्तरायण जैसी महत्त्वपूर्ण फिल्में अन्य बैनर तले की।

दान सिंह:

हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर में दान सिंह जैसे संगीतकारों का नाम अक्सर विमर्श का हिस्सा न रहा। फिल्म संगीत के उस बेहतरीन जमाने में कुछ संगीतकारों ने बहुत गिनी चुनी फिल्मों में काम किया। कहा जा सकता है कि काम की संख्या कम होने की वजह से संगीतकारों को भूला दिया गया। इस श्रेणी में दान सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

‘वो तेरे प्यार का ग़म एक बहाना था सनम
अपनी किस्मत ही कुछ ऐसी थी कि दिल टूट गया’

दान सिंह की दास्तान को बयान करती यह पंक्तियां फिल्म इंडस्ट्री में व्यापक भेदभाव की बात कहती है।

दीनानाथ मढोक:

फिल्मी गीतों को अनावश्यक साहित्यिक लेबल से मुक्त कर सहज सरल विधा बनाने में गीतकार दीनानाथ मढोक की पहल स्मरणीय है। चालीस दशक की बहुत सी हिट फिल्मों में दीनानाथ की प्रतिभा उभरकर आई। उस दौर की फिल्मों में तानसेन, रतन एवं भक्त सूरदास के गीत बेहद लोकप्रिय रहे। कलकत्ता के न्यू थियेटर्स से फिल्मों में आने वाले दीनानाथ ने पहले पहल बतौर हीरो काम किया। किंतु उन्हें शीघ्र ही समझ आया कि लेखन विभाग को उनकी ज्यादा ज़रूरत है। चालीस के दशक में बडी हिट फिल्मों के टीम का अहम
हिस्सा रहे दीनानाथ ने बेहतरीन गीत लिखे। उस दौर की फिल्मों में होली, कानून व तानसेन का यहां उल्लेख किया जा सकता है। उनके जीवन में तानसेन मील का पत्थर साबित हुई। फिर अंखिया मिला के जिया भरमा के और आई दीवाली आई जैसे सदाबहार गीतों से सजी रतन भी बेहद कामयाब रही।

बीना राय:

बीना जी का स्मरण दरअसल अनारकली, ताजमहल जैसे शाहकारों को स्मरण करना है। बीना राय का व्यक्तित्व इन फिल्मों को खास बनाता है। किशोर साहू, नंदलाल जसवंतलाल (अनारकली), रामानंद सागर की परख ने हमें बीना राय से परिचित कराया। उनकी हिट फिल्मों के गीत आज भी श्रोताओं को आकर्षित करते हैं। ज़रा ताजमहल के गीत जो वादा किया का ही उदाहरण देखें। एक सदाबहार गीत का दर्जा रखने वाले इस गीत को लेकर आज भी एक दीवानगी होगी। अफसोस बड़ी संभावनाओं वाली बीना जी सिल्वर सक्रीन पर दीर्घसफर तय न कर सकीं। करियर की ऊंचाई पर सिनेमा से किनारा कर लिया। बेहद सफल ताजमहल एवं वल्लाह क्या बात के बाद फिल्मों से अलग रहने लगी। अब यह
बात समृतियों में नहीं होगी कि बेहतरीन अभिनय के लिए बीना जी को कभी फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला था ।

बाबूराव पेंटर:

कोल्हापुर के रक कलाप्रेमी घराने से ताल्लुक रखने वाले बाबूराव को कला की पहली दीक्षा घर पर मिली। चित्र व मूर्तिकला को सीखकर
परिवार की संपन्न सांस्कृतिक विरासत को कायम रखा। बंबई स्थित पारिवारिक फोटो स्टूडियो से करियर का आगाज़ हुआ, लेकिन हुनर को पहचान मिली नाटक मंडली में। मंडली ने दरअसल उन्हें व आनंदराव को मंचीय चित्रकला के लिए आमंत्रित किया था। प्रतिभावान बाबूराव को ‘पेंटर’ नाम से यहीं नवाज़ा गया। गोविंद फाल्के की पथ-प्रदर्शक राजा हरिश्चंद्र के महान प्रभाव में बाबूराव फिल्मों की ओर आकर्षित हुए । तकरीबन पांच वर्षों के संघर्ष को तय कर महाराष्ट्र फिल्म कंपनी स्थापित करने के मुकाम तक आए। भारतीय सिनेमा को वी शांताराम इसी बैनर से मिला। प्रभात टाकीज की स्थापना दरअसल बाबूराव पेंटर की अमर विरासत से प्रेरित थी।

पी एल संतोषी:

जाने माने फिल्मकार राजकुमार संतोषी के पिता पी एल संतोषी को हिंदी सिनेमा शायद भूल चुका है। बाँबे टाकीज से फिल्मों में आने वाले संतोषी एक योग्य गीतकार, पटकथा-लेखक, निर्देशक थे। बाँबे टाकीज की पथ-प्रदर्शक प्रस्तुति ‘किस्मत’ की पटकथा लेखकों में पी एल संतोषी का भी शुमार है। प्रभात टाकीज की ‘हम एक हैं’ से सिनेमा में दाखिल होने वाले देव आनंद को संतोषी ही लेकर आए थे। संतोषी अपनी फिल्मों
की कथा-पटकथा- गाने स्वयं लिखते थे। फिल्म विधा के सभी विभागों में व्यापक हस्तक्षेप के इच्छुक संतोषी ने हिंदी सिनेमा में खास पहचान कायम की।

निर्मल पांडे:

अपनी पहली ही फिल्म से अभिनय क्षेत्र में बवंडर मचाने वाले निर्मल पांडे एक असीमित संभावनाओं के अभिनेता थे। पहली फिल्म में ही
असीमित दक्षता बखूबी दिखा दी थी। निर्मल की क्षमता को समझने के लिए हमें बैंडिट क्वीन, इस रात की सुबह नहीं, दायरा तथा ट्रेन टु पाकिस्तान जैसी महान फिल्मों की लौटना होगा। शेखर कपूर की फिल्म को उनके अभिनय सैंपल तौर पर देखें तो निर्मल में अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम करने की पूरी संभावनाएं नजर आती थी। अफसोस जोकि हो न सका,एक बहुत बडी संभावना वाले अभिनेता को मौत ने असमय ही पास बुला लिया। फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ के पात्र विक्रम मल्लाह (निर्मल पांडे) के संपर्क में आकर समझ सकते हैं कि पुरूष
जाति की सताई फूलन देवी (सीमा बिश्वास) के समक्ष वही टिक सकते थे। बहुत सारे दृश्यों में निर्मल का अभिनय देखते ही बनता है। यह भूमिका उनके उच्चतम स्तर का बडा दस्तावेज है। निश्चित ही ‘विक्रम मल्लाह’ का किरदार निर्मल पांडे का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था।

सुधीर मिश्र की ‘इस रात की सुबह नही’ आमोल पालेकर की ‘दायरा’ ,पामेला रुक्स की ‘ट्रेन टु पाकिस्तान’ तथा एन चंद्रा की ‘शिकारी’ के किरदारों की तुलना में विक्रम मल्लाह बेहतर था। दायरा के लिए फ्रांस के एक अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार
मिला। किसी भी अभिनेता के लिए ऐसा कर पाना एक दुर्लभ कीर्तिमान था। तमाम आवश्यक अहर्ताओं होने पर भी बडी संभावनाओं वाले निर्मल पांडे हिंदी फिल्मों में टाइप्ड कर दिए गए। सिनेमा के नजरिए से यह त्रासदपूर्ण स्थिति रही जब निर्मल को केवल खलनायक तक सीमित कर दिया गया।

नबेंदु घोष:

पटकथा लेखक नबेंदु घोष फिल्म-लेखन के योग्य हस्ताक्षर थे। विभाजन की त्रासद परिस्थिति का साई[-इफेक्ट कलकत्ता के सिने माहौल पर पड़ा था। बडे स्तर पर कलाकारों का पलायन देखने को मिला। नबेंदु भी इस कारवां के हो गए। फिल्मों में आने का प्रोत्साहन उन्हें बिमल राय से मिला। सबसे पहला काम बिमल राय प्रोडक्शन में ही मिला। बिमल दा ने उन्हें हाऊस का लेखक मुकर्रर किया था। नबेंदु दा की रचनात्मकता को बिमल राय से लेकर गुरू दत्त एवं राज खोसला के फिल्मों में अनुभव किया जा सकता है। बिमल राय की ‘परिणीता’, ‘बिराज बहू’, ‘देवदास’ तथा ‘सुजाता’ लिखकर बुलंदियों को पा लिया। फिल्म जगत में बिमल राय-नबेंदु घोष की जोड़ी अब भी बहुत प्रेरणादायक है।

वर्मा मलिक:

सत्तर का दशक हिंदी सिनेमा में परिवर्तन का समय लेकर आया। इस युग में रूमानियत व प्रतिशोध की धाराएं सिनेमा की भाषा बनी हुई थी। पचास व साठ दशक के बड़े नाम युवा सितारों के कारवां से थोड़े किनारे हो गए। रूमानियत से आगे के वक्त पर विचार कर सलीम-जावेद ने ‘प्रतिशोध’ की संकल्पना की। अमिताभ की ‘एंग्री युवा छवि’ ने रूमानी कहानियों से हमारा ध्यान हटा दिया। वर्मा मलिक के युगांतरकारी गीतों ने इस समय को समझा। मलिक जी ने हालांकि अमिताभ के लिए गाने नहीं लिखे। फिर भी ‘बेईमान’, ‘पहचान’ तथा ‘यादगार’ के गीत आज भी एक खास पहचान रखते हैं।

सिनेमा में भावी पारी को लेकर दिलीप कुमार, मनोज कुमार एवं देव आनंद बहुत गंभीर थे। इस जद्दोजहद में मनोज कुमार कुछ बेहतरीन फिल्में लेकर आ सके। वर्मा मलिक एवं संतोष आनंद की प्रतिभाओं से इन फिल्मों की तकदीर संवरी। मलिक जी की रचनाएं -‘इक तारा बोले’ (यादगार), ‘सबसे बड़ा नादान वही’ (पहचान), ‘जय बोलो बेईमान की’ (बेईमान), ‘यह राखी बंधन है ऐसा’ (बेईमान) तथा ‘महंगाई मार गई’ (रोटी कपडा मकान) आज भी याद आती है। बेहतरीन लेखन के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्डस भी मिले। तकरीबन हर शादी-ब्याह का पॉप्यूलर आज मेरे यार की शादी है के लेखक को कम ही लोग जानते हैं।

वृजेन्द्र गौड:

हिंदी फिल्मों में कथा-पटकथा नित नवीन प्रयोग को आगे रखने वालों में पटकथा लेखक वृजेन्द्र गौड का नाम महत्त्व रखता है। वृजेन्द्र
की मध्यवर्गीय कथाओं का कुशल उदाहरण कटी पतंग, दुल्हन वही जो पिया मन भाए व अनुराग में देखा जा सकता है। उन्होंने रचनात्मकता को विविध दिशाओं में विस्तार दिया। इस विशेष दक्षता के परिणामस्वरूप हावड़ा ब्रीज, चाईना टाऊन,जालसाज,जालीनोट और ग्रेट गैम्बलर जैसी महानगरीय मिजाज की कहानियां लिख सके। दरअसल रचनात्मक प्रतिभा के फलस्वरूप ही साहित्य से सिनेमा में बुलाए गए थे। साहित्य की दुनिया में अच्छा नाम हासिल था। तकरीबन आधा दर्जन के आस-पास कहानी संग्रह लिखने बाद रेडियो लेखन की तरफ आए। रेडियो
नाटकों से एक खास पहचान बनाई।

वृजेन्द्र की प्रतिभा को मोतीलाल (अभिनेता) ने परख अपनी फिल्म के लिए बंबई बुलाया। हिंदी सिनेमा में यह उनका शुरूआती दौर था। मोतीलाल की इस फिल्म के बाद कुछ फिल्मों के गीत लिखे पर कामयाबी अभी दूर थी। मायानगरी में दिल नहीं लगा, पेशे में निरंतरता न मिल पाने की वजह से घर से नाता बना रहा। बंबई में बसे जाकर सरदार,काफिला,संग्राम व परिणीता बाद। चरित्रों की विविधता को दिखाने के लिए हमेशा अधिक पात्रों का आधार रखा। कह सकते हैं कि फिल्मी दुनिया में वृजेन्द्र अपने साथ कुछ उसूल लेकर आए थे। ज्यादातर शक्ति सामंत की फिल्मों का हिस्सा रहे वृजेन्द्र गौड ने देव आनंद,अशोक तथा किशोर कुमार के साथ भी बेहतरीन काम किया। नूतन अभिनीत
‘सरस्वतीचंद्र’ उनकी झोली का एक चमकता कोहीनूर है। वहीं लाल पत्थर,जंगल में मंगल, शर्मिली, गीत गाता चल तथा अंखियों के झरोखे से का अपना महत्त्व है।

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