“सब कुछ बदल गया है ”
मिट्टी का वो रंग न बदला
सोन्धी की खुशबू न बदली
हैं चन्द्र, दिवाकर उसी रूप में
जल रहे आज भी उसी धूप में
बढ़ थोड़ा तम का अनल गया है
तब ही से सब कुछ बदल गया है
है मनुष्य आज भी धरती पर
पहले से ज्यादा वीर प्रवर
आयुध विद्या से भरे हुए
तान वक्ष हैं खड़े हुए
बस ह्रदय को मस्तिष्क निगल गया है
तब ही से सब कुछ बदल गया है
प्रेम आज भी होते हैं
नयन एक दूजे में खोते हैं
पीड़ाओं को साझा करके
ये युगल आज भी रोते हैं
बस प्रेम की मर्यादा का पत्थर
आज थोड़ा सा पिघल गया है
तब ही से सब कुछ बदल गया है
सब नम्र प्रणाम आज भी करते
आशीष बड़े आज भी भरते
हैं सभी विधि विधान आज भी
है संस्कारों का संधान आज भी
बस औपचारिकता का वो साया
इन मूल्यों को निगल गया है
तब ही से सब कुछ बदल गया है
#आकर्ष शुक्ल विद्रोही