बिहार के आयोजनों में लोगों को “तेरी आंख्या का यो काजल” पर थिरकते और “लॉलीपॉप” गाने पर दिल्ली और हरियाणा को झूमते देखना… ये वो दो चीज़ें हैं, जिन्हें एक साथ मिलाता हूं तो थोड़ा-थोड़ा हिन्दुस्तान दिखता है। पूरब के एक राज्य को पश्चिम के एक राज्य से मिलाने वाली यही वो कला की डोर है, जिसे हम संस्कृति कहते हैं।
जहां से मैं सब्जी खरीदता हूं वो मुसलमान हैं जो मुझे पता नहीं था, पर जब दिवाली की एक शाम पहले मैं उनकी दुकान पर था तो मुझे कुछ सूना-सूना सा लगा। मैंने पूछ लिया कि दिवाली नहीं मनानी है क्या? जवाब में उनकी दुकान पर बैठा नन्हा सा लड़का अपने पिता कि तरफ देख के हल्के से बोला कि हम मुसलमान हैं, दिवाली नहीं मनाते। तब पता चला कि उनका धर्म भी है।
मैं उसके पिता से मुखातिब हुआ और बोला, “बाबा, लक्ष्मी और गणेश हिन्दू या मुसलमान हो सकते हैं, पर दियों और पटाखों का कोई धर्म नहीं होता। जो दिया हमारे मन्दिरों में जलता है वही आपकी मजार पर भी जलता है। इस बच्चे को अगर आपने ये बताया हैं कि मुसलमान दिवाली नहीं मनाते… तो कहीं न कहीं नफरत में भागीदार आप भी हैं।” ये कहकर मैंने सब्जी ली और चला आया। यकीन मानिए… दिवाली की रात उनकी दुकान पर भी 5-6 मोमबत्तियां जगमगा रही थी।
जिस मुसलमान लड़के के साथ क्रिकेट खेल-खेल कर बचपन गुज़रा है, वो अब बल्ले की जगह घर में हॉकी स्टिक रखने लगा हैं। इस खौफ को जो मेरे भीतर है और उससे भी कहीं ज़्यादा उसके भीतर है, इस खौफ को महसूस कर सकते हैं तो कर लीजिए। क्रिकेट मैच में राहुल द्रविड़ बना मैं और वसीम अकरम बना वो। जब एक टीम में होकर दूसरे मोहल्ले को मैच हरा कर आधा-आधा समोसा खाते लौटते थे तब ये सवाल नहीं पूछा जाता था कि उसका चहेता वसीम अकरम क्यूं हैं और आशीष नेहरा क्यों नहीं ?
थाली में सजा कर आने वाली सेवईयां और जाने वाला ठेकुआ अब पुराने पेपरों के छोटे पैकेटो में सिमट कर रह गया हैं। जिस होली के 2-3 दिन पहले उस अकरम को बहाने से बुला कर रंगों से नहा देते थे। उसके बाद उसके घर में पकड़े गये तो उसकी अम्मा, बहन और वो मिल के चूल्हा लीपने वाली मिटटी से मेरी होली मना देते थे।
वो होली अब सिर्फ मेरी यानी हिन्दुओं होली बन के रह गयी है। ये देन सियासत की है, ये देन सरकार की है, ये देन राजनीति की है। ये फर्क मिटाना हमारी और आपकी ज़िम्मेदारी है और इस फर्क को बरकरार रखना सियासत की। अब आप किस खेमे में हैं… बस इतना ही तय कर लीजिए।