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बाजार… !

ये आँखे देख रही थी सब करीब से,
कुछ बदलाव जो लग रहे थे अजीब से |

बदल रहे थे सब कुछ,
वक्त कदर और हालात,

उसी वक्त के साथ बदल रहे थे, अनुभवएहसास और जजबात |

बिकरहे थे मोड पे,

अदब इज्ज़त और सत्कार,
पैसे से खरीदे जा रहे थे,
ईश्क मोहब्बत और प्यार |

तार-तार हुये जा रही थी,
शर्म हया और लिहाज,
दब रही थी उस वक्त हर,
शिशक चीख और आवाज |

लूटे जा रहे थे सरेआम,
रंग रूप और शाज,
आशू बहा रही थी,
परम्परायें रीत और रीवाज |

बन्द कमरे मे खो रहे थे,
दस्तूर दिनचर्या और व्याबहार,
और इस तरह से फल फूल रहे थे,
“बासना के बाजार”…!
©अभीमन्यू राज सिंह

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