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जायसी की पद्मावती

जायसी भी उसी लीग में जा पहुंचे हैं जहाँ काली, तुलसी, वाल्मीकि, व्यास हैं।
लिखते में उनकी भी चाह रही होगी की एक एक पात्र निखर के आये, मगर किरदार बड़ा होके उन्ही से कहे की मुझे हाथ मत लगा, दिल टूट गया होगा बेचारो का।
उन्हें क्या पता था की उनके पात्र समाज के ठेकेदार हाईजैक कर लेंगे।
हाईजैक कर फिर , किवदंतियों के माध्यम से… हज़ार लोग, हज़ार बार दिन की दर से, हज़ार साल तक उनके रचे पात्रों को काला या सफ़ेद पोतेंगे।
तब तक पोतेंगे की हर पात्र या तो पूर्णतया काला होगा या पूर्णतया सफ़ेद।
सबकुछ या तो सच  होगा या झूठ। दिन होगा या रात। काला होगा या सफ़ेद।
भूरे रंग से मनुष्य को दिक्कत है। बल्कि भूरा तो कोई रंग ही नहीं है।
हज़ारो साल, तथाकथित सदगुणों का सफ़ेदा पोत, इतना सफ़ेद करेंगे की देखो तो आँखे चोंधिया जाए। मनुष्य आँखों से देख पाना संभव ही ना हो। पात्र को देवीयता की प्राप्ति होगी।
अंततः सदगुणों का सफ़ेद गोला शहर के बीच किसी ऊँची टांकी पे चढ़ा दिया जायेगा। टांकी से घरो तक एक पाइपलाइन बिछेगी। टंकियां आमजन के घरों में खुलेंगी । उनसे पानी की जगह अभिमान टपकेगा। खुद के मामूली होने, साधारण होने, स्पेशल ना होने की पीड़ा जब कभी ज्यादा जोर मारेगी वो टांकी खोल अभिमान के दो घूँट मार थोड़ी राहत महसूस करेगा।
मनुष्य को शायद मनुष्य होने से ही दिक्कत है, भूरे से नफरत है।दैवीय पसंद है उसे। दैवीय बनने की चाह है। दैवीय ना बन सकने की टीस है जो ये सब काम करवाती है।
राम, कृष्ण और अब पद्मावती किसी को भी सोचूँ तो वैशाली की नगरवधू , आम्रपाली, याद आ जाती है। वो सबकी है, पर जैसे उसका कोई नहीं है।
‘पुजनीय’ होना ही शायद नया ‘अछूत’ होना है।
कोई फर्क समझ नहीं आता

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