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एक आजाद ख्याल लड़की के आजाद उड़ान की दास्तान

आजादी मेरा ब्रांड……..राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘यायावरी आवारगी’ शृंखला का पहला पड़ाव है. यह एक बिंदास, बेबाक और अल्हड़-सी लड़की अनुराधा बेनीवाल द्वारा लिखा गया यात्रा वृतांत है,जिसके दो ही शगल हैं- पहला चेस और दूसरा घुमक्कड़ी. वह इस दुनिया से, इस समाज से बस एक ही चीज चाहती है और वह है अपने तरीके से अपनी जिंदगी को जीने की आजादी. टैम-बेटैम बेफिक्र और बिंदास अंदाज में हंसते हुए सिर उठा कर सड़कों पर यूं ही बेलौस होकर घूमने-फिरने की आजादी. वह आजादी, जो न सिर्फ उसे मनुष्य होने के एहसास हो गरिमा प्रदान करे, बल्कि उसे इस बारे एक ठोस यकीन की वजह भी दे. हालांकि साथ ही वह यह भी कहती हैं कि आजादी ‘न तो लेने की चीज’ है और ‘न ही देने की चीज’ है. इसे छीना भी नहीं जा सकता है. यह तो ”केवल जीने की चीज” है. शायद इसी वजह से वह हमेशा से दुनिया के तयशुदा रास्तों के बीच से अपनी आजादी का एक अलग रास्ता बनाना चाहती थी. एक आजाद लड़की का अपना रास्ता. उसे हमेशा इस बात की कोफ्त होती है कि हमारे यहां सारे नियम-कायदे और कानून लड़कियों के लिए ही क्यों बनाये गये हैं? वे क्या कोई मैथ्स की थ्योरी हैं, जो हर बार उन्हें खुद को प्रूव करना पड़े?
      अनुराधा कहती हैं कि हम लड़कियां सही और गलत को भी अनुभवों से कहां समझ पाती हैं, वह तो हमें मनवाया जाता है. परिवार-समाज ने जो कह दिया सही, तो वो सही और जो गलत, तो वो हमारे लिए भी गलत. जीवन को अपने अनुभवों एवं तर्क के चश्मे से देखने की आजादी हम लड़कियों के लिए आज भी एक दुर्लभ उपलब्धि है, क्योंकि हमारे कंधे पर बचपन से ही ‘अच्छी लड़की’ का तमगा पाने का बेाझ जो होता है. बोझ इसलिए क्योंकि अनुराधा बताती हैं कि गांव में पैदा होने के बावजूद उनके मन के किसी कोने में बचपन से ही ‘किस’ करने की ललक थी, पर वह ऐसा नहीं कर पायीं, क्योंकि सभी आम घरों की तरह उनके घर का कॉन्ट्रैक्ट भी ‘अच्छी लड़की’ बने रहने पर ही रिन्यू होता था. इसी वजह से वह खुद ही निकल पड़ती है हरियाणा के अपने एक छोटे-से गांव से निकल कर तेरह देशों की यात्रा पर अकेली बेफिक्र, बेलौस और बिंदास अपने अनुभवों से अपने लिए आजाद रास्तों की तलाश में.

  नये-नये देश, नये-नये लोग, नये रास्ते, नयी मंजिले, नित नये अनुभव और उन अनुभवों से बनते, टूटते और परिपक्व होते उसके विचार. फिर भी एक बात जो उसने भारत से बाहर पूर्वी यृरोप के देशों में पायी- वह था वहां का खुलापन. केवल व्यवहारों में ही नहीं, वैचारिक स्तर पर भी. वहां कोई किसी को देखता, घूरता या टोकता मालूम नहीं पड़ता. जिसे चाहे, जहां चाहे, जब चाहे घूमे-फिरे. रास्ते में चलते हुए किसी को ‘किस’ करे या फिर ‘किस’ करते हुए चले- किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. अुनराधा सोचती हैं कि आखिर वह क्या चीज है,जो लाखों मील की दूरी पर बसे देशों में वहां की महिलाओं को इतनी आजादी, सुरक्षा, आत्मनिर्भरता, बेपरवाही और बेफिक्री देती है? क्या इसका मतलब उनलोगों को अपनी संस्कृति की चिंता नहीं है? पता नहीं ऐसा क्यों है? पर जो भी है काफी सहज दिखती है. यहां तक कि सेक्स भी बिल्कुल ओपन है. अगर किसी को किसी के साथ सेक्स करना भी है, तो वह उससे ओपनली पूछ सकता है. अगर वह तैयार है, तो ठीक वरना जोर-जबर्दस्ती वाला कॉन्सेप्ट नहीं है. शायद इसकी वजह है कि ज्यादातर यूरोपीय देशों में स्कूली जीवन में ही इन सब मसलों पर स्वस्थ परिचर्चा होती है. उम्र के साथ होनेवाले शारीरिक और मानसिक बदलावों के बारे में बताया जाता है. तभी लोग वहां अपने साथ-साथ दूसरों के शरीर और फीलिंग्स की भी इज्जत करते हैं. मगर अफसोस कि हमारे पास ‘कामसूत्र’ और ‘खजुराहो’ तो है, लेकिन हमारी आंखें बंद हैं और इच्छाएं दमित. हम इन मसलों पर बात करने से भी कतराते हैं. अनुराधा कहती हैं कि हम ज्ञानी हैं, इसका यह मतलब नहीं कि केवल दुनिया ही हमेशा हमसे सीखे, हम दुनिया से कुछ न सीखें. उनलोगों ने हमारे देश और हमारी संस्कृति से काफी कुछ सीखा है. अब हमें भी अपने अंहकार से निकल कर दुनिया से भी कुछ सीखने की जरूरत है.
अपने सफर से लौटते हुए लेखिका के मन में बस एक ही सवाल कौंधता है कि आखिर वह क्या ‘चीज’ है, जिसकी वजह से उसे अंजान देशों की अंजान शहरों की अंजान गलियों में अंजान लड़कों के साथ भी उसे कभी अंजानेपन का अहसास नहीं हुआ, पर अपने ही देश में ऐसा करने की सोच कर भी उसकी रूह कांप जाती है.
वह उस अंजान सी चीज को अपने देश की हवा और मिट्टी में भी महसूस करना चाहती हैं, पर अफसोस कि वह उसे कही नहीं दिखता- न तो ‘पढ़े-लिखे और सभ्य लोगों’ की शहरी जमात में और न ही गांवों की पारंपरिक परवरिश में. शायद इसी वजह से जब वह वापस लौटने पर उस चीज को अपने यहां मिस करती हैं और चीख-चीख कर रोने लगती हैं और पूछती हैं- ‘क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे? क्यों मुझे रह-रहकर नजरों से नंगा करते हो? क्यों तुम्हें मैं अकेली चलती नहीं सुहाती? मेरे महान देश के महान नारी-पूजको, जवाब दो….. क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकलकर चल पाना? वह राह चलते हर इंसान से उस ‘चीज’ को मांगती है. ”प्लीज, मुझे वह चीज दे दो. मैं अपने देश ले जाना चाहती हूं. मैं अपने देश में जीना चाहती हूं……वह पूछती हैं लोगों से आखिर यहां के इस समाज को हमने ही तो बनाया है न,तो क्या हमारे बदलने से समाज नहीं बदल जायेगा? फिर यह इंतजार क्यों कि हम बदलेंगे तभी समाज बदलेगा? उसके मन के किसी कोने में विश्वास है कि जरूरत के साथ समाज में भी बदलाव जरूर आयेगा. 
कुल मिला कर यह कि इस किताब का हर पन्ना पाठकों को जीवन के एक नये रूप और नये रंग से परिचित कराता है. आप कभी भी किसी भी मोड़ से गुजरते हुए खुद को अकेला या बोर नहीं होते. आपको किसी भी देश की किसी भी गली या मोड़ से गुजरते हुए यह महसूस नहीं होगा कि लेखिका नारीवाद के नारे लगा रही हैं या फेमिनिज्म की पैरवी कर रही है. वह बेहद सहज और सरल तरीके से धर्म, संस्कृति, परंपरा और इज्जत भारतीय महिलाओं की आजादी पर लगी तमाम तरह की पांबदियों पर सवाल उठाती हैं, जिससे हममें से कोई शायद ही इंकार कर पाये. 

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