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आ अब गावं लौट चले

बढ़ती प्रदूषण जन मानस के लिए चुनौती सिद्ध हो रही है।हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में प्रदूषण की समस्या का सामना कर रहा है।तमाम सरकारे/सामाजिक संगठन भी इस ओर पहल कर रही है,बाबजूद इनके प्रदूषण में लगातार इजाफा ही हो रहा।राजधानी दिल्ली में एक दिन सांस लेना मतलब 15 सिगरेट पीना बराबर है।स्थिति ऐसी हो रही है लोग वहां से पलायन भी करने लगे हैं।शहरीकरण का जो अंधाधुन दौर लगा है मुझे लगता है अगर मूलभूत सुविधाएं गांवो में उपलब्ध हो जाये तो लोग स्वस्थ्य जीवन जीने के लिए गांव की ओर लौटना पड़ेगा।
ग्रामीण समाज मे सुबिधाओं की कमी नही है जरूरत है सही समायोजन की।आम जन में चेतना जागृत करने की।
एक समय था जब गांव में भोज का आयोजन होता तो केले के पत्ते को थाली के रूप में प्रयोग किया जाता था।पानी पीने के लिए लोग अपने अपने घरों से ही लोटा/ग्लास लेकर आते थे।आज उसका जगह प्लास्टिक ले लिया है।जब कहीं भोज का आयोजन होता है तो वहाँ प्लास्टिक की थाली,डिस्पोजल ग्लास की भरमार लग जाती है।
आधुनिकता के दौर में हमलोग अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार रहे है।अपने साथ साथ आगामी पीढ़ियों के लिए जहर घोल रहे हैं।अस्पतालों में लम्बी कतारें लग रहे हैं।
ऐसे में एक बार हमें जरूर सोचना चाहिए कि प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए हम अपने स्तर से क्या कर सकते है?जन भागीदारी के बिना इसकी कल्पना नही की जा सकती।आइये मिलकर एक प्रदूषण मुक्त समाज का निर्माण करने में अपनी भूमिका निभाएं।

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मुकुंद सिंह

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