कहते हैं अब पछतावे होत का जब चिड़िया चुग गयी खेत. मुहावरा बड़ा सटीक बैठता है, देश की वर्तमान स्थिति पर. या यूं कहें तो वर्तमान ही नही, बल्कि देश पर ही फिट बैठता है.दरअसल हमारी आदत सी बन गयी है, हर घटना के बाद उसकी तह तक पहुँचने का. ये हमारे स्वाभाव में है कि पहले हो जाने दो, फिर गलतियां और खामियों का बांध तो बना ही देंगे. आज के समाचारपत्र में एक आर्टिकल छपा था, जहाँ एक शहर के गेस्ट हाउस में सुविधाओं का अभाव और भविष्य में उसकी वजह से हो सकने वाले खतरे का अंदेशा बताया गया था. मेरा ध्यान उस ख़बर को पढने के बाद सबसे पहले यहीं गया कि आखिर हुआ क्या है वहां पर क्योंकि आदत सी जो बन गयी है. चाहे मुंबई के एक रेलवे स्टेशन पर फूट ओवरब्रिज टूटा हो या दिल्ली में प्रदूषण का लेवल खतरों के निशान से कोसों दूर लांघ गया हो, ‘पहले हो जाने दो, फिर देखते हैं’ का मूलभूत सिद्धांत हमेशा ही अपनाया जाता रहा है.
पर कभी सोचा है कि आपने कि क्यों ऐसा चला रहा है, ये कोई सनातन काल से चली आ रही प्रथा तो है नहीं. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह से है हमारा परिवार. हम जब बच्चे होते हैं, तभी ऐसा देखते हैं कि पापा की साइकिल/गाड़ी की टायर में दस-बारह पंचर लग चुके होते हैं, पर जिस दिन वो फटता है, उसी दिन चेंज होता है. ठीक इसी तरह हम आये दिन गुजरते हुए सड़क को टूटा हुआ देखते हैं या सड़क पर कोई तार लटकता हुआ देखते हैं और उसे देश की भविष्य की तरह अनदेखा करके निकल जाते हैं, पर जिस दिन वहां कोई हादसा होता है, हम वहां पहुँच कर लोगों की गलतियां गिनवाने में नहीं चुकते. क्या वाकई हम इतने आत्मस्वार्थ की पराकाष्ठा की हद तक पहुँच गए हैं कि हमे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. मेरे शहर के रेलवे स्टेशन पर एक पुराना पुल है, जो काफ़ी पुराना है. जब उसके पास फिर से निर्माण कार्य शुरू किया गया, तो उससे ये पुल प्रभावित होने लगा, जिसकी वजह से रेलवे प्रशासन को वहां एक बोर्ड लगाना पड़ा कि पूल टूटा है, कृपया संभल कर जाएँ और इसका इस्तेमाल काम-से-कम करें. उस पूल से बस 100 मीटर की दूरी पर एक दूसरा पूल है, जो मज़बूत है, पर आये दिन मैं आते-जाते लोगों को वो बोर्ड पढ़ने के बावजूद भी उसी पूल से जाते देखता रहा. फिर लोगों में चेतना जागी और किसी ने वो बोर्ड उतार कर फेंक दिया. शायद अब खतरा कम हो गया होगा. ये बात भी बहुत प्रभावित करती है कि जहाँ कोई चेतावनी लगा दी जाती है, वहां लोग थोड़ा सहम कर ही वो काम करते हैं. इसीलिए तो बस 2 मिनट बचाने के लिए अपनी बेशकीमती ज़िन्दगी को आये दिन उस पूल पर दाव पर लगा आते हैं.
बस बात सीधी सी है कि पहले हो जाने दो, फिर देखते हैं का जो कॉन्सेप्ट हमारे मन में घर कर गया है, उसे बाहर का रास्ता दिखाना दिन-प्रतिदिन बहुत ज़रूरी होता जा रहा है. घटना के बाद अकसर मुर्दा ही बचते हैं, तो ज़रुरत है कि अभी अपनी मुर्दा चेतना से सवाल पूछ ही लिया जाए कि पहले हो जाने दें क्या? घटना घटना तभी बनती है, जब हम लापरवाह होते हैं. पहले सजग हो जायेंगे, तो घटना घटेगी ही नहीं.