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मेरी पहचान

मैं 19 वर्ष का हूं और दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र हूं। बचपन से ही एक चीज़ ने मुझे बहुत परेशान किया है और वह है मेरी पहचान। उसी पहचान को बयां करने की एक कोशिश।
यूं तो कहते है शब्दों की पहचान नहीं होती,
यूं तो कहते है, शब्दों की पहचान नहीं होती।
जाने मेरी भी कहाँ थी।
ढूँढता था उस पहचान को अपने भीतर कहिं, जाने कहाँ छुपी थी।
महसूस तो हुआ कुछ अलग है मुझमें,
दिखता भी था। पर दुनिया को, मुझे नहिं।
लगता था दुनियाँ की आँखों में खराबी हो गई है।पर क्या पता था, ये ज़ालिम दुनियाँ तो मुझे ही खराब बता देगी।
गलती से एक बार जज़्बात में बहकर पूछा, पूछा अपने आप से, मैं कौन हूँ? दुनिया जो कहती है, क्या वही सच है? क्या मैं खराब हूँ? या ये दुनिया ही खराब है।
यूं तो शब्दों की कोई पहचान नहीं होती, लेकिन इन्ही शब्दों के ज़रिये आज बताता हूँ अपनी कहानी पहचान की।
एक कहानी उस पारदर्शक पहचान की।
सतरंगी दुनिया की अतरंगी बातें, सबको लुभाती हैं।लुभाती है वो हँसी ठिठोलि, लुभाती है वो तेज़ नज़रे, लुभाती है वो हैवानी हँसी, लुभाती है वो सवाली आँखें, पर मुझे नहीं लुभाति। वो नज़र, जो मेरे कपड़ो के अंदर मेरे जिस्म को टटोलने की कोशिश करे, वो हैवानी हँसी, जो मुझे भयभीत करे, वो सवाली आँखें, जो मेरी चाल को देख कर पूछे, सहवास में तो कोई हर्ज़ नहीं ? ठहरिये! संभलिये ज़रा! नहीं! मैं कोई लड़की नहीं। मैं तो लड़का हूँ। इस सतरंगी दुनिया के समुंद्र में दुनिया को अतरंगी लगता हूँ । दुनिया ने बताया लड़के रोते नहीं, लड़के अपने बाल लंबे नहीं करते, लड़के खेल कूद में अव्वल होते है, लड़के ऐसे होते है, लड़के वैसे होते है।
डाल दिया मुझे ऐसे मुश्किल में, लगा दिया मेरी पहचान पर एक प्रश्न चिन्ह। एक प्रश्न चिन्ह मेरी पहचान पर।
   विज्ञान ने बताया, पहचान वही जो दिखता है।
साहित्य ने बताया, जो दिखता है वह होता नहीं।
इस असमंजस में दुनिया उलझने लगी। क्योंकि जो मैं था, वो दुनिया नहीं थी और जो दुनिया थी, वह मैं नहीं था।
     मैं था कही एक कोने में बंद। वह मैं, जिसे नीला आकाश नहीं, बल्कि गुलाबी आसमां देखना था। एक मैं, जो तुम्हारे, मेरे और हम सबके अंदर होता है। एक मैं, जिसे दुनिया बताती लिंग २ होते है, पर अर्धनारेश्वर को माथा झुकाती। एक तरफ तो दुआओं की भीख मांगती; शादी में, सामारोह में, उन्हीं से; जिन्हें कभी नहीं अपनाति। हां वही किन्नरों की बात करता हूं। जिन्हें बनाया भगवान का चेला आपने और छीन ली उनकी पहचान आपने।
नहीं! मैं वो किन्नर भी नहीं, वो हिजरा भी नहीं, वो कोथी भी नहीं।
मैं सिर्फ और सिर्फ मैं हूँ। मेरी पहचान मत बनाइए मेरे अंदाज़ को। मेरी पहचान अगर गलत हरकते लगती है, तो बता दूं ये वही पहचान है जिसे आपके बुज़ुर्गो ने सवांरा था और खजुराहो की दीवारों पर संजोया था। मेरा लिंग मेरी पहचान नहीं, क्योंकि मेरा कोई लिंग नहीं।
आपकी चार दिवारी में जो होता हैं, उसे आप मनोरंजन कहते है, लेकिन जो मेरी चार दिवारी में होता है, वो मनोरंजन नहीं। न ही मेरी पेहचान। बस वो मेरी पसंद है। जैसे आपकी 32 34 36। इसी पहचान को एक सतरंगी सलाम।
मेरी पारदर्षी पहचान। एक ऐसी पहचान, जिसका कोई रंग नहीं! कोई नाम नहीं! बस मेरी और मेरे जैसे कई लोगो की पहचान जिसे आपकी पहचान की ज़रूरत नहीं।
अर्पित भल्ला
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