कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे। कुछ सुनाना चाहता हूँ तुम्हें। शायद मेरा बोझ हल्का हो जाए। तुम्हे कुछ सुनाकर। बातें तो ढेर सारी हैं। सुनाया तो महीनों गुजर जायेंगे। जानता हूँ तुम अपने दुनिया में मसरूफ़ हो। मुझे सुनने के लिए तुम्हारे पास वक्त कहाँ? ख़ुशी है क़ि तुम्हारी मसरूफियत बढ़ रही है, साथ ही साथ मुझसे अजनबियत भी। सुना है क़ि वक़्त बहुत तेज़ी से बदलता है। वक्त का पीछा करते-करते कभी-कभी इंसान भी बदल जाते हैं। बदलाव कभी भी अप्रत्याशित नहीं होता, बल्कि परिस्थितिजन्य होता है। तुम्हारी जगह अगर मैं भी होता तो शायद बदल गया होता, पर क्या करूँ मुझे मेरे हालात से मोहब्बत जो है, बदलता कैसे? तुम्हें देखकर अहसास होता है कि कामयाबी होती क्या है। तुमने मुझे कामयाब और नाकाम लोगों के “अपनों” का मतलब समझाया, वर्ना अब तक इस बड़े फर्क से मैं अनजान रह जाता।
एक कामयाब इंसान के लिए “अपनों” का मतलब माँ-बाप, पत्नी और बच्चों तक सिमटा होता है। वहीं नाकाम इंसान पूरी दुनिया को अपना मानता है। शायद यही वजह है, उम्मीदों के टूटने की। हर कोई अपना तो नहीं हो सकता न? खैर ग़लतफ़हमी की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए।