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मुझे कुछ कहना है

कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे। कुछ सुनाना चाहता हूँ तुम्हें। शायद मेरा बोझ हल्का हो जाए। तुम्हे कुछ सुनाकर। बातें तो ढेर सारी हैं। सुनाया तो महीनों गुजर जायेंगे। जानता हूँ तुम अपने दुनिया में मसरूफ़ हो। मुझे सुनने के लिए तुम्हारे पास वक्त कहाँ? ख़ुशी है क़ि तुम्हारी मसरूफियत बढ़ रही है, साथ ही साथ मुझसे अजनबियत भी। सुना है क़ि वक़्त बहुत तेज़ी से बदलता है। वक्त का पीछा करते-करते कभी-कभी इंसान भी बदल जाते हैं। बदलाव कभी भी अप्रत्याशित नहीं होता, बल्कि परिस्थितिजन्य होता है। तुम्हारी जगह अगर मैं भी होता तो शायद बदल गया होता, पर क्या करूँ मुझे मेरे हालात से मोहब्बत जो है, बदलता कैसे? तुम्हें देखकर अहसास होता है कि कामयाबी होती क्या है। तुमने मुझे कामयाब और नाकाम लोगों के “अपनों” का मतलब समझाया, वर्ना अब तक इस बड़े फर्क से मैं अनजान रह जाता।
एक कामयाब इंसान के लिए “अपनों” का मतलब माँ-बाप, पत्नी और बच्चों तक सिमटा होता है। वहीं नाकाम इंसान पूरी दुनिया को अपना मानता है। शायद यही वजह है, उम्मीदों के टूटने की। हर कोई अपना तो नहीं हो सकता न? खैर ग़लतफ़हमी की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए।
इंसान की एक फितरत होती है कि उसे परेशानी में अपने कुछ ज्यादा ही याद आते हैं। बात खुद की परेशानी की हो तो किसी की मदद की जरूरत नहीं पड़ती। मुसीबतों से उबरने का हुनर इंसान सीखकर पैदा होता है। लेकिन जब बात किसी ‘अपने’ की जिंदगी की हो, तो डर लगता है कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए। इंसान डरता है तो सिर्फ अपनों की वजह से, वर्ना गुरूर तो पुरखों की धरोहर होती है। हम मदद उसी से मांगते हैं जिसे खुद से बेहतर पाते हैं। तुम्हे बेहतर मानना मेरी जिंदगी की बड़ी गलती थी। शुक्रिया! इस तल्ख़ हक़ीक़त से रूबरू कराने के लिए कि “कामयाबी मिलने पर ‘अपनों’ की परिभाषा सीमित और नाकाम होने पर व्यापक हो जाती है।”                                                                          परेशानियां किसकी जिंदगी में नहीं आतीं?
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