Site icon Youth Ki Awaaz

प्रद्युम्न और शक्ति के बहाने खुद से ही कुछ असहज सवाल

अब इस शहर में बारात हो या बारदात, खुलतीं नहीं हैं खिड़कियां।
प्रद्युम्न और शक्ति के बहाने खुद से कुछ असहज सवाल
देश और दुनिया की समस्याएं अनंत हैं। उनके समाधन यद्यपि उतने जटिल नही। नोटबन्दी और जीएसटी सभी समस्याओं की अक्सीर दवा बन गए। और दुनिया की समस्याओं का जो समाधान पहले सद्दाम या अफगानिस्तान की बर्बादी से निकलता था अब शायद वह उत्तर कोरिया में लाशों के अंबार से निकले।
पर इधर एक हंसता खेलता बच्चा पढ़ने गया था स्कूल और वहां से लाश बनकर लौटा।
दो महीनों में दो एजेंसियों ने जांच की और दो ज़ुदा नतीजे निकाले। दो अलग लोगों को जिम्मेवार माना। आरुषि की हत्या के बाद जो पेंचोखम निकले या निकाले गए, उससे फ़िल्म वाले भागकर गए थे मुनाफे की खोज में। इस बार भी शायद ऐसा ही हो। लेकिन सवाल उनके मुनाफे तक सीमित नही है न।
सवाल पुलिस की जांच ने उठाया। स्कूल के शौचालय में एक जरा सा बच्चा मार दिया गया, शायद दुष्कर्म के बाद। स्कूल की कॉरपोरेट फीस में तो सब कुछ शामिल था। पर कहाँ गए सीसीटीवी कैमरे और सुरक्षा के तमाम साधन?
और सिर्फ उसी स्कूल में क्यों, तमाम कॉरपोरेट प्राइवेट स्कूलों में, जो अक्सर पब्लिक स्कूल कहाये जाते हैं, उनमें फीस तो मुंह भरकर ली जाती है लेकिन बच्चों की सुरक्षा उनके लिये क्यों बिल्कुल महत्व नहीं रखती?
उन स्कूलों के हाल पर तो हम क्या बात करें जो हम जैसे मध्यवित्त और निम्न आय के लोगों के नौनिहालों के लिये खुले हैं। सरकारी या कम फीस वाले प्राइवेट।
बच्चे वहां कुछ पढ़ें न पढ़ें। कुछ बने न बने पर सुरक्षित घर तो लौटकर आएं।
पुलिस ने स्कूल के बस कंडक्टर को आरोपी बनाया। तमाम स्कूलों के यही किस्से हैं। ड्राईवर, कंडक्टर, चपरासी, चौकीदार, वेनवाला यहां तक कि टीचर, प्रिंसिपल तक। पिछले साल तीन साल की एक बच्ची के साथ बदफेली की स्कूल की मालकिन के पतिदेव ने। अब किससे उम्मीद करें और बच्चे को किस किस से डरना सिखाएं?
फिर सीबीआई दृश्य में आई और उसने अपनी जांच कर अपना अलग नतीजा पेश किया।
अब पता चला कि प्रद्युम्न को उसी के बड़े भाई जैसी उमर के उसी स्कूल के 11 वीं के एक विद्यार्थी ने मारा।
तो क्या पुलिस की जाँच बिल्कुल आधारहीन और तथ्यों से परे थी?
तो यदि मामला इतने बड़े स्कूल का नही होता या सीबीआई को सौंपा ही नही जाता। तो क्या होता? वह कंडक्टर जो सीबीआई के हिसाब से बेगुनाह है, वह तो नप ही गया था। पांच,दस या पच्चीस साल की अदालती लड़ाई के बाद न्याय की देवी उसे जब निर्दोष घोषित करती तब तक उसके जीवन मे क्या बचता? लाखों लोगों का जीवन ऐसे ही पुलिस की विवेचना के कारण बर्बाद हुआ है।
जब ऐसी तथ्यहीन और आधारहीन जांचें होती हैं तो पता लगने पर भी विवेचना अधिकारियों पर कोई कार्यवाही क्यों नही होती?
भोपाल की घटना जो और हृदय विदारक थी उसमें पुलिस को चार आरोपी पकड़ने थे। तीन की निशानदेही तो उस बहादुर बिटिया जिसे अब सब शक्ति कह रहे हैं, ने ही करके दे दी थी। चौथा पुलिस ने पकड़ा। उसने अपनी बेगुनाही की खूब दुहाई दी, कौन सुनेगा। चार की संख्या जो पूरी करनी थी। उसकी पत्नी आई, रोई, गिड़गिड़ाई। भगा दी गई पर उसकी किस्मत अच्छी थी कि शक्ति ने ही कह दिया कि मेरे गुनहगारों में ये शामिल नही था। वरना घटना के दिन उसके इंदौर में होने के सुबूत भी क्या कर लेते?
तो पहले प्रद्युम्न, फिर शक्ति।
क्यों मारा ग्यारहवीं के बच्चे ने प्रद्युम्न को?
सीबीआई कह रही है कि परीक्षा रद्द करने के लिये और पालक शिक्षक बैठक निरस्त हो जाये, इसलिये।
क्या पता, सच क्या है?
पर यदि यह सच है तो इसकी भयावहता आप नहीं समझ सकते।
क्योंकि आप तो मानते ही हैं कि पढ़ाई बरबाद हो गई जबसे पांचवीं में परीक्षा बन्द हुई। याने पढ़ाई करने और करवाने की कोई अहमियत ही नही। परीक्षा है तो पढ़ाई है। स्कूलों में शिक्षक हैं नहीं। जो हैं वे चुनाव से लेकर खुले में दिशा मैदान रोकने के लिये सीटी तक बजा रहे हैं। कुछ तब भी बच गए तो पता चला ये अतिथि शिक्षक हैं।
बिना तनख्वाह और ट्रेनिंग वाले टीचर।।
वे बिचारे क्या पढ़ाएंगे?
शिक्षा पर देश और प्रदेशों के बजट काटकर मंत्रियों, सांसदों और विधयकों के वेतन भत्ते बढ़ाये जा रहे हैं। और पढ़ाई है कि परीक्षा न होने से बरबाद हुई जा रही है।
अभी एक दिन केबीसी में एक सज्जन आये। अंतर्धार्मिक विवाह किया है और पत्नी को धर्म बदलने के लिये बाध्य नही किया। बेटे को दोनो धर्म की अच्छी बातें सिखाये हैं। पेशे से शिक्षक हैं और बेहद दुःखी हैं कि हम अपने शिक्षकों से खूब पिटे पर अब अपने विद्यार्थियों को हाथ नही लगा सकते।।
क्या तर्क तैयार किये हैं इस समाज ने। पढ़ने के लिये पिटाई की उपयोगिता।।।
और परीक्षा तो ब्रह्मास्त्र है ही।
तो आरोपी हो गया वह किशोर जिसने परीक्षा को रोकने के लिये एक नौनिहाल को मार डाला। लेकिन आप चाहो भी तो उसके ऊपर भूत की तरह बैठे परीक्षा के तनाव को महसूस नही कर सकते। वह पीटीएम से बचना चाहता था। क्यों?
आप कभी शामिल हुए हैं? हुए ही होंगे। यदि आपका बच्चा परीक्षा में ढेर सारे नम्बर लेकर नही आया तो इस मीटिंग में क्या होता है?
आपके सामने बच्चे को लज्जित किया जाता है।
आपको अपमानित महसूस कराया जाता है। फिर आप इस अपमान का बदला बच्चे से ही लेते हैं। किसी को शिक्षक से पूछने का हुक्म और फिर ज़ुर्रत भी नही है कि प्रभु या देवी बच्चे का अकादमिक स्तर बेहतर करने की जिम्मेवारी तो आपकी है। यही आपकी आजीविका है। फिर अपमान में आपकी बिल्कुल भी हिस्सेदारी क्यों नहीं?
यह तनिक कठिन काम है और विश्लेषण की मांग करता है । तो दो दिन की गुमटी वाली चर्चा के लिये पर्याप्त है फिर वही अपना चीन, पाकिस्तान, ताज़महल, गोहत्या और न जाने क्या क्या?
सरकार ने किशोर अपराध के लिये बचपन की उमर 18 से सिकोड़कर 16 कर ही दी है। प्रद्युम्न मामले में आरोपी इसी आयुवर्ग से है।
वे सब लोग ताली पीट सकते हैं जो इस बदलाव के हक़ में थे क्योंकि इससे उसे कड़ी अदालती कार्यवाही में भेजा जा सकेगा।
पर सवाल तो ये है कि क्या इससे किशोरों द्वारा किये जा रहे अपराध कम हो जाएंगे?
न हों। पर मीडिया और सरकार को लगेगा कि अपनी जिम्मेवारी तो पूरी हुई। और समाज?
वह तो रोज भोपाल की सड़कों पर नारे लगा रहा है कि बलात्कारियों को फाँसी दो। पहले दिल्ली में निर्भया मामले पर लगा ही चुका है।
जिन्होंने नारे लगाने के लिये बोर्ड ऑफिस तक जाना भी समय की बर्बादी माना वे पार्क में घूमते हुए या घर मे ही चाय की चुस्कियों के दरमियान कह लिए हैं कि हाँ भई, ऐसे नराधमों को तो बीच चौराहे पर फांसी पर लटकाया जाना चाहिये।
लेकिन हम सब विशेषज्ञ गायब थे जब उस लड़की को एमपी नगर से हबीबगंज स्टेशन के शार्ट कट से खींचकर दो हैवान रेलवे थाने के सौ मीटर दूर झाड़ियों में ले जाकर अपनी मर्दानगी को सफल साबित करते हैं और फिर गुनाहों की इस गटर गंगा में शामिल होने के लिये अपने दो और मित्रों को लेकर आ जाते हैं।
फिर सब मिलकर वही करते हैं।
कोई चिड़िया चूं नही करती। किसी को भनक भी नही लगी या जो सैकड़ों लोग रोज इस शार्ट कट से गुजरते हैं वे सब इसके आदी हो गए हैं?
ट्रैन को पकड़ना कम जरूरी नहीं होता। हर चीख पर लोग मदद करने जाएं तो कभी तय ट्रैन न पकड़ पाएं।
और वैसे भी वह वहां गई ही क्यों से लेकर कपड़े भी तो ऐसे पहनती हैं जैसे तर्क हैं ही।
हम सब वही लोग हैं जो सुनसान जगह पर एक्सीडेंट के शिकार को देखते ही अपनी गाड़ियों की रफ्तार बढ़ा कर भाग जाते हैं ,उसे मरता हुआ छोड़कर।
क्या बलात्कारियों के सामूहिक चंगुल में पड़ी कोई लड़की हमसे मदद की उम्मीद कर भी सकती है?
लेकिन अगले दिन हम भीड़ बनकर फाँसी की मांग करने लगते हैं।
और पुलिस, उसके लिये तो हमेशा लड़कियों, बच्चों की सुरक्षा से बड़ा मसला थानों की सीमा का होता है। उनके निज़ाम में इतने बड़े मामले पर खुलेआम दांत निपोरने वाली पुलिस अधिकारी के लिये भी सर्वोच्च दंड लाइन हाजिर करना ही होता है। तो फिर उससे क्या उम्मीद रखिये।
याद रखिये कि इसी पुलिस की बातों पर हमने कितना यकीन किया था भोपाल एनकाउंटर के समय?
गृहमंत्री के बोलते ही तो मन लिया था कि कैदियों ने टूथब्रश से जेल की बैरकों के तालों की चाभी बनाई थी और भाग गए। और मंदसौर के किसानों की हत्या के समय भी।
तो अब भी मान ही लेंगे न? सरकार की बात पर संदेह करने का चलन अब रहा नहीं।
सरकारी अस्पताल के ट्रेनी डॉक्टर ने लड़की की मेडिकल जांच में लिख ही दिया था कि सब कुछ सहमति से हुआ। कोई जोर जबरदस्ती नही हुई। कल्पना करिये इस कथन की सच्चाई की। मामला इतना चर्चित न हुआ होता तो यही रिपोर्ट पुलिस अपने आरोप पत्र में नत्थी करती। फिर तो कोई आरोप ठहरता ही नही कोर्ट में। किस बात का केस चलता? सहमति से हुए सामूहिक बलात्कार का?
आपको नहीं लगता कि हम लोग संवेदनाओं की मृत्यु की सामूहिक घोषणा करके जी रहे हैं?
चूंकि हम अच्छे पाठक हैं तो हैड लाइन पर नज़र रखते हैं और अंदर की खबरों को पढ़कर अनदेखा करने की कला जानते हैं।
हमको उस तेरह साल की बच्ची से क्या लेना देना जो ऐसे ही एक बर्बर यौन हमले के कारण आज 6 महीने के गर्भ से है। पुलिस, अस्पताल, कल्याण समिति और स्वयंसेवी संस्थाओं की अलग अलग कार्यप्रणालियों और संवेदनहीनता के चलते एक सेंटर से दूसरे ग्रह, अस्पताल से थाना और भोपाल से जबलपुर के बीच चकरघिन्नी बनी हुई है।
वह कब खुद से हार जाए, हमें उससे क्या?
सोचिये, हम सबने कितनी मुश्किल से ये समाज तैयार किया है जिसमे बातें तो वसुधैव कुटुम्बकम की होतीं हैं पर कोशिश यही रहती है कि पहली फुरसत में पड़ौसी की एक फुट जमीन पर अपनी दीवार तान दी जाए।
ऐसे में कौन फिकर करता है कि कौन बेटी संकट में है?
बेटी ही क्यों, बेटे भी।
चौराहे पर अखबार बेच रहे या गाड़ी साफ कर रहे बच्चे यकीनन हमारी संवेदना को चोट नही पहुंचाते और हम अपनी गाड़ी में बैठे जीएसटी को खारिज करते या उसका गुणगान करते रह सकते हैं।
तो कोई भी घटना चाहे वह कितनी भी अमानवीय क्यों न हो जब तक उसमे कोई सनसनी न हो , अब हमारा ध्यान नहीं खींचती।
सनसनी जैसे कि बलात्कार, खासकर सामूहिक बलात्कार। मीडिया के लिये बलात्कार सनसनी क्यों हैं? क्या लोग मज़े लेकर बच्चों के साथ दुष्कर्म को देखते पढ़ते हैं?
याद रखिये, जिस समाज में बलात्कार की खबर मज़े के लिये देखी सुनी जाए, वहां दुनिया का सबसे कठोर कानून भी बलात्कार नही रोक सकता।
हम सब सक्रिय हो जाते हैं, दरअसल भीड़ बन जाते हैं। फाँसी हमारी प्रिय मांग है।
इतनी शिद्दत से हम कभी रोजगार नहीं मांगते।
इसलिये हम कभी यह सोच भी नही सकते कि रोजगार और बलात्कार का भी कोई संबंध हो सकता है।
हम अचानक से अरब देशों के न्याय के समर्थक हो जाते हैं। हाथ के बदले हाथ, आंख के बदले आँख।
हम सब आँख के अंधे हैं जो नयनसुख नाम रखकर ही इतराते रहते हैं।
हम शायद कभी ये सवाल नही उठाएंगे कि वह क्या कारण है कि जिन मुल्कों में कानून बहुत कठोर हैं वहीं अपराध अधिक क्यों होते हैं?
फ्रांसीसी क्रांति के बड़े विचारक वॉल्टेयर ने एक बार लिखा था कि हर समाज अपने चरित्र के अनुरूप अपराधियों को पैदा करता है।
पर हम क्यों सोचें इन सब पर? सोचने के लिये हजारों मुद्दे हैं- हार्दिक पांड्या का बैटिंग ऑर्डर क्या हो या कौन सा म्युचुअल फण्ड इनकम टैक्स बचायेगा?
सवालों से भागना हमारी फ़ितरत है और नियति भी।
क्योंकि ये सवाल विश्लेषण मांगते हैं।
अध्ययन मांगते हैं।
जुल्म के खिलाफ लड़ने की प्रतिबद्धता इनसे आती है।
पर ये सब कठिन काम हैं।
आसान काम है भीड़ का हिस्सा हो जाना, जो हमें मुफ़ीद आता है।
भीड़तंत्र असल में भेड़तंत्र है।
और बहुत गौर से देखेंगे तो इसके पीछे हमे भेड़िया तंत्र दिखाई देगा।
हमारे मित्र महेन्द्र सिंह की एक कविता की पंक्ति है- हम सब अपने हत्यारे।
हम जो समाज बना रहे हैं उसमें इतने असंवेदनशील होते जा रहे हैं कि हम सब अपनी हत्या के लिये, अपने ही बलात्कार के लिये अभिशप्त हैं।
इस हालत से बाहर आना होगा। क्योंकि इस दुनिया को बचाना होगा।
क्योंकि खुद को बचाना होगा।

 

Exit mobile version