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“पोस्टट्रुथ” का दौर और लोकतंत्र

पोस्ट ट्रूथ का अर्थ है किसी परिस्थितियों में जो उदेश्य तथ्यों, भावना और व्यक्तिगत विश्वास करने की अपील की तुलना में जनता की राय को आकार देनें में कम प्रभाव हो. मतलब आप लोगों के सामने जितने भी तथ्य रखलें, उससे ज़्यादा महत्व जनता उस नेता की बात पर करेगी जिसने आपकी राय के पक्ष में भाषण दिया , घोषणाएं की या फैसले लिए.

दुनिया के बड़े-बड़े फैसले आज अफ़वाहों के सहारे सफल हो रहे हैं. इंटरनेट एक खुले मंच की तरह सामने तो आ रहा है जहां से तथ्यों तक पहुंचने का रास्ता बहुत आसान हो चला है. पर इसी इंटरनेट के कारण ‘तथ्यों’ के बीच का भ्रम और मज़बूत हो रहा है. उदाहरण के लिए ब्रेग्जिट के लिए बताया गया कि यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन को अलग करने के मामले में जो जनमत संग्रह हुआ, उसमें भी अफवाओं का ही खेल था. दरअसल, अलग होने की इच्छा रखने वाले समर्थकों ने यह अफवाह फैला दी कि ब्रिटिश परिवार को 12,000 पाउंड हर हफ्ते ज्यादा मिलेंगे. ब्रेग्जिट के नतीजों के बाद सारे प्रचारकों ने उसी दिन खुलकर कहा कि इस दावे में सच्चाई नहीं है. महज प्रचार का उद्देश्य था.

जॉर्ज ऑरवेल की किताब का लोकप्रिय होना:

जॉर्ज ऑरवेल दरअसल एक एंटी नाज़ी लेखक थे जिन्होंने एनिमल फार्म और 1984 जैसी किताबें लिखी. उस दौर में भी सच के नाम पर तथ्यों से छेड़छाड़, भावनाओं को उकसाने वाले प्रोपेगेंडा आम थे . 1984 के शब्द जैसे बिग ब्रदर, डबल थिंक और न्यूज़ स्पीक अब हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं. उनकी किता आज के दौर में भी, जहां सच के नाम पर गलत तथ्यों को भावनाओं के साथ पेश किया जाता है, के लिए सटीक बैठती है. अचानक से इस किताब की बिक्री बहुत तब बड़ी जब ट्रंप राष्ट्रपति बने और यह माना जाने लगा कि हां, हिटलर वाला समय फिर से आ गया है जो इतिहास दोहरा रहा है.

भारत में पोस्ट ट्रुथ की स्थिति:

जब 2000 का नया नोट आया तो न्यूज चैनल वालों ने यह बताया कि नोट में चिप है. यह खबर भी सबसे पहले WhatsApp में फैल रही थी. तो आप समझ सकते हैं कि आज जिसे हम मेनस्ट्रीम मीडिया कहते हैं , वह अपने खबरों का स्रोत किसे मानती है. WhatsApp चाहे वह प्रधानमंत्री को यूनेस्को द्वारा सर्वश्रेष्ठ मंत्री घोषित करने वाली खबर हो या अपने राष्ट्रगान को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान घोषित करने वाली अफवाह हो. झूठ बताना और बात को बढ़ा चढ़ाकर बताने में फर्क है. चिप वाली बात नोट के बारे में भी झूठ निकली. ज़ी न्यूज के प्राइम टाइम में तो पूरा एक घंटा सुधीर चौधरी ने यह समझाया कि नोट क्यों खास है और कैसे कैसे काम करेगी. चाहे वह नोट की बात हो या JNU कांड की, लोग आज भी यही राय बनाएं बैठे हैं जो न्यूज़ रूम में बताई गई थी. कोई भी इंसान हिरासत में लिया जाता है तो पहले ही मीडिया ट्रायल में आरोपी घोषित कर दिया जाता है चाहे वह ध्रुव सक्सेना हो यह कन्हैया कुमार हो सिम के साथ पकड़े जाने वाला ‘आतंकवादी’ हो या रोई भी.

कोई भी ट्रोल पेज को ज्ञान का स्त्रोत बना लेना खतरनाक है. लोग जब से Facebook पर कोई ट्रोल देखते हैं और शेयर कर देते हैं, जैसे कि अभी महंगाई इतनी कम हो गई उस जमाने में इतनी ज्यादा थी. फलाना फलाना को रिस्पेक्ट पहले वाले ने कुछ काम नहीं किया. यह जाने बगैर कि सही आंकड़े क्या है? सच्चाई क्या है ? किसी भी चीज का ट्रेंड हो, हम उस में खुद को फिट करने की कोशिश करते हैं या कुछ काम नहीं किया.

जातिवाद या किसी भी बात से ज्यादा खतरनाक की हैशटैगवादहै, जो हमें भ्रमित करने में सबसे ज्यादा प्रेरित करता है. लोकल अखबारों से लेकर बड़े अखबारों तक, हमें इस बात पर सचेत रहने की खास जरुरत है कि कौन सी खबर खबर है और कौन सी अफ़वाह.आंकड़े आप सोशल मीडिया के जरिए नहीं बल्कि Google पर देखें वो राष्ट्रीय संस्थानों के द्वारा कराए सर्वे देखें . बाकी तो डेमोक्रेसी के खेल तो चलता ही रहता है पर हम जो पढ़ते हैं हम जो देखते हैं वही हम बनते हैं!

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