जिस राजपुताना पर आज सत्ता में बैठे सम्राट और तलवे चाटने वाले बुद्विजीवी गर्व कर रहे है उनके द्वारा किये गए महिलाओ, दलितों पर जुल्मों को दिखाने की हिम्मत है? हिम्मत है ये दिखाने कि की विधवा महिला के हालात जानवर जैसे थे। उसको गंजा कर दिया जाता था, उसको देखना तो छोड़ो उसकी परछाई को भी अशुभ माना जाता था। जिस पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, रतन सिंह या कोई दूसरे तीसरे सम्राट को आपके द्वारा जो महान बताया जा रहा है क्या उनके राज के इन काले अध्यायों को आज सामने लाने का काम प्रगतिशील लेखकों, कलाकारों, बुद्विजीवियों को नही करना चाहिए?
पद्मावती- ईमानदारी से इतिहास को दिखाने से डरती फ़िल्म
मध्यभारत से लेकर उतर भारत तक आज सबसे बड़ा मुद्दा पद्मावती फ़िल्म बनी हुई है। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे है। राजपूत समाज के नेता, भारत के कानून की परवाह किये बिना सरेआम फ़िल्म की नायिका की नाक काटने, उसकी गर्दन काटने के फरमान सुना रहे है, फ़िल्म के हीरो की टांग तोड़ने की, फ़िल्म निर्माता का सर धड़ से अलग करने पर करोड़ो रूपये की राशी (फिरौती) देने का एलान कर रहे है। सरकारे भी फ़िल्म को देखे बिना अपने राज्य में इस फ़िल्म को प्रतिबंधित कर रही है। अब मामला गर्म है तो मध्यप्रदेश के राजपूत सम्राट शिवराज चौहान ने पद्मावती को राष्ट्रमाता ही घोषित कर दिया और एलान कर दिया कि भोपाल में पद्मावती का स्मारक बनाया जाएगा। इससे पहले भी “बाजीराव मस्तानी” पर ऐसा ही विवाद हो चुका है। उस समय भी ऐसे ही फरमान सुनाए गए, मरने-मारने की बात की गई थी। फ़िल्म मार्किट में आई उसको लोगो ने देखा और फ़िल्म ने अच्छे से भी ज्यादा अच्छा कारोबार किया। अब इस पद्मावती पर भी ऐसा ही माहौल है। फ़िल्म मार्किट में आई नही है इसलिये फ़िल्म के अंदर क्या है, क्या नही है ये तो फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन 18 नवम्बर के दैनिक भाष्कर में वेदप्रताप वैदिक जो भारतीय विदेश नीति के अध्यक्ष है और वरिष्ठ पत्रकार भी है का लेख पढ़ने को मिला। जिसने इस फ़िल्म को देखा है उसने इस फ़िल्म के समीक्षात्मक तौर पर ये लेख लिखा है। लेखक के अनुसार इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नही है जिससे लगे कि इसमें इतिहास से छेड़छाड़ की गई है। लेखक के अनुसार तो इस फ़िल्म ने राजपूत सम्राट रतन सिंह को कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर वीर दिखाया गया है ऐसे ही रॉनी पद्मावती को भी खुद के कद से ज्यादा पतिव्रता और वीरांगना फ़िल्म ने पेश किया है। फ़िल्म ने ख़िलजी को एक अहंकारी, धूर्त, कपटी, दुष्चरित्र और रक्तपिपासु दिखाया गया है। इस पूरी फिल्म ने सम्राट खिलजी को एक आदमखोर विलेन दिखाया गया है। मुझे लगता है कि फ़िल्म का विरोध राजपूत गलत कर रहे है। उनको तो फ़िल्म का समर्थन करना चाहिए। क्योकि फ़िल्म ने हारे हुए राजपूतों को हार कर भी जिताया है और उनके दुश्मन को विलेन बना ही दिया है मतलब आपकी कमज़ोरियों पर पर्दा डाल कर इसने आपको महान बना दिया।
जबकी राजपूतो के अनुसार फ़िल्म का विरोध इतिहास को गलत तरह से पेश करने के कारण किया जा रहा है। उनके अनुसार रानी कभी भी घूमर नाच नही करती थी जो फ़िल्म में दिखाया गया है। उनको ये भी लगता है कि पद्मावती और खिलजी को एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते भी दिखाया गया है। उनके अनुसार राजपूतों की लड़की या रानी मुश्लिम सम्राट की तरफ आकर्षित हो ये कभी हो ही नही सकता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि सम्राट अकबर की 4 से 5 रानियां इन्ही राजपूत राजाओं की बेटियां थी। जिनका विवाह इन राजाओं ने खुशी-खुशी किया। लेकिन आज जब अंधराष्ट्रवाद की आंधी चल रही है जिसका बेस ही मुस्लिम विरोध करना है। इस अंधराष्ट्रवाद की अगुआई खुद केंद्र में विराजमान भाजपा और उसके संघठन कर रहे है। आज ये साबित करने की पूरी कोशिश की जा रही है कि साम्राज्यवादी लुटेरों ने नही पूरी मुश्लिम कौम ने इस देश पर आक्रमण किये इस देश को लूटा, इस देश को गुलाम बनाया। इस गुलामी के खिलाफ और मुश्लिमो को रोकने के लिए राजपूतों ने अपनी जान की कुर्बानिया दी। राजपूतों द्वारा मुस्लिमो से लड़े गए सभी युद्ध देश को बचाने के लिए थे। देश को आज़ाद करवाने के लिए थे। इसलिए मुश्लिमो के खिलाफ लड़ने वाले सभी सम्राट महान थे, देशभक्त थे।
लेकिन सच्चाई तो इसके विपरीत है। राजाओं की ये सारी लड़ाइयां एक दूसरे राजाओं के खिलाफ अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए थी। देश के अंदर जो सैकंडो देशी रियासते थी जिनके सम्राट कही हिन्दू थे तो कहीं मुस्लिम तो कहीं सिख थे। इन सारी लड़ाइयों में आपसी फायदे के लिए हिन्दू सम्राट की तरफ से मुश्लिम तो मुस्लिम सम्राट की तरफ से हिन्दू लड़ते रहे है। ऐसे ही सिखों के खिलाफ भी मुस्लिम और हिन्दू सम्राट साथ गठबंधन में रहे है। इसलिये इन सभी लड़ाइयों को हिन्दू बनाम मुश्लिम या सिख बनाम मुस्लिम बनाना आज इतिहास से बहुत बड़ी गद्दारी है। मुझे तो ये भी लगता है कि इस फ़िल्म का विरोध खुद फ़िल्म निर्माता ने ही करवाया हो ताकि फ़िल्म को फायदा हो और वो फायदा होता भी दिख रहा है। दूसरा बहुत से जनता के मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिये भी ऐसे विरोध करवाये जाते है।
फ़िल्म की समीक्षा पढ़ कर मुझे महसूस हुआ कि इस फ़िल्म का पुरजोर विरोध होना चाहिए। इस फिल्म का ही नही उन सभी फिल्मों का जो इतिहास को हमारे सामने बड़े ही गलत तरिके से पेश करती है। इससे पहले आयी “बाजीराव मस्तानी” और अब ये पद्मावती इन दोनों फिल्मों का विरोध जबर्दस्त तरीके से मेहनतकश मजदूर–किसान, महिला, मुस्लिम और दलितों को करना चाहिए। इस खेमे को जबरदस्त आपत्ति दर्ज करानी चाहिए कि इन फिल्मों ने इतिहास को बहुत ही गलत तरीके से पेश किया है। लेकिन सच मे जिन्होंने इन फिल्मों का विरोध करना चाहिए वो तबका खामोश है जाने-अनजाने अपनी मेहनत की कमाई से इन फिल्मों की टिकट लेकर फ़िल्म देखने जाता है।
मजदूर-किसान, मुस्लिम, महिला और दलित इन फिल्मों का विरोध क्यो करे-
इसको जानने के लिए ये जानना जरूरी है कि जिस दौर का इतिहास इन फिल्मों में दिखाया गया है उस समय के हालात क्या थे। उस समय मजदूर-किसान दलितों के हालात क्या थे। उन हालातो का जिम्मेवार कौन था। बाजीराव की सल्तनत में ब्राह्मणवाद अपनी क्रूरता के चरम पर था। दलितों के मकान, मकान नही झोपड़े कहना उचित होगा, गांव से दूर एक खास दिशा में होते थे। दलितों को ब्राह्मणों की बस्ती में आने की मनाही थी, अगर किसी काम से बहुत जरूरी है तो पीठ के पीछे छाड़ूनुमा कुछ ऐसा बांधना होता था ताकि दलित के पाँव के निशान साथ-साथ मिट जाए, गले में हांडी बांधनी होती थी ताकि दलित अपना थूक जमीन पर थूकने की बजाए उस हांडी में थूक ले। ब्राह्मणों के लिए जो रास्ते बने हुए थे उन पर दलितों का प्रवेश कठोरता से वर्जित था। गलती से कोई ब्राह्मण सामने से आता हुआ दिख भी जाए तो दलित को उस रास्ते से दूर हट कर मुँह फेर कर तब तक बैठे रहना था तब तक ब्राह्मण वहाँ से गुजर न जाये। शिक्षा के दरवाजे दलितों के लिए खुले हो ऐसी कल्पना करना ही मत। मन्दिर, तालाब, बावड़ी मतलब सार्वजनिक जगह पर दलितों के प्रवेश कि कठोरता से पाबंधी थी। इसके विपरीत मेहनत के सभी काम जूते बनाने से लेकर खेती, तलवार, मकान, कपड़ा बनाने के सारे काम दलित ही करते थे। आज जिन आलीशान महलों पर राजपूत गर्व करते नही थकते कभी सोचा है इन आलीशान किलो, महलों, बावड़ियों को मजदूरों मतलब दलितो ने ही बनाया है कितनी पीढियां खप गयी इन किलों, महलों को बनाने में दलितों की, इन दुर्गों को बनाने में जो धन आता था वो भी मजदूर-किसानों की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को सम्राट द्वारा लुटने से ही तो आता था। जब ये दुर्ग, महल, बावड़ी बन कर तैयार हो जाते थे तो इन महलों के आगे से गुजरते हुए दलितो को कभी झाड़ू पीठ पीछे बांधना पड़ता था तो कभी जूती सर पर रख कर गुजरना पड़ता था गले मे हांडी को भी याद रखो इसको मत भूलिए। कानून नाम की कोई चिड़िया थी ही नही, जो ब्राह्मण ने बोल दिया वो ही सर्वमान्य था। ब्राह्मण, क्षेत्रीय, वैश्य के लिये सब अधिकार थे दलित के हालात तो जानवर से भी गए गुजरे थे। इसलिए दलित अधिकर की बात करना बैमानी है। क्या बाजीराव मस्तानी और पद्मावती के निर्माता ने ये सब हालात न दिखाकर इतिहास से सबसे बड़ा खिलवाड़ नही किया है। क्या इतिहास की इन क्रूरतम सामाजिक ढाँचे को न दिखाने के कारण इन फिल्मकारों और इनकी फिल्मों का विरोध मजबूती से देश के दलितों (मजदूर-किसानो) द्वारा नही करना चाहिए?
क्या कोई भी फिल्मकार इस सच्चे इतिहास को दिखाने की हिम्मत करेगा। क्या वो दिखायेगा की बस कुछ ही साल पहले ही केरल में दलित महिलाओं को कमर से ऊपर कपड़े पहनने की अनुमति नही थी। कपड़े पहने के अधिकार के लिए कितने खूनी संघर्ष ब्रह्मणवादियो के साथ दलित शूरमाओं के हुए है क्या है हिम्मत दिखाने की किसी फिल्मकार की।
जिस राजपुताना पर आज सत्ता में बैठे सम्राट और तलवे चाटने वाले बुद्विजीवी गर्व कर रहे है उनके द्वारा किये गए महिलाओ, दलितों पर जुल्मों को दिखाने की हिम्मत है? हिम्मत है ये दिखाने कि की विधवा महिला के हालात जानवर जैसे थे। उसको गंजा कर दिया जाता था, उसको देखना तो छोड़ो उसकी परछाई को भी अशुभ माना जाता था। जिस पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, रतन सिंह या कोई दूसरे तीसरे सम्राट को आपके द्वारा जो महान बताया जा रहा है क्या उनके राज के इन काले अध्यायों को आज सामने लाने का काम प्रगतिशील लेखकों, कलाकारों, बुद्विजीवियों को नही करना चाहिए? जो इन राजपूत या ब्राह्मण राजाओं को महान बताते नही थकते क्या उनके मुंह को बन्द करने के लिए इस काली सच्चाई को सामने लाना नही चाहिए? जिन राजाओं के राज्य में मेहनतकश के हालात जानवरो से भी बद्दतर थे उन राजाओं की प्रत्येक शहर में जो बुत खड़े है क्या इन बुतों को दलितों, महिलाओं द्वारा तोड़ नही देना चाहिए। क्या मेहनकश द्वारा इन सभी महलों, दुर्गों, मंदिरों पर कब्जा नही कर लेना चाहिए क्योंकि ये सब बने है हमारे खून से निचोड़ी गयी दौलत से, जिनको बनाया गया है हमारे पूर्वजों ने।
क्या प्रगतिशील बुद्विजीवियों द्वारा इस इतिहास का सच आवाम के सामने नही लेकर आना चाहिए? जो लिखा गया है राजाओं की शान में, राजाओं के तलवे चाटने वालो द्वारा, और क्या लिखना नही चाहिए अपना असली इतिहास, मेहनतकश आवाम का इतिहास, महिला के संघर्ष का इतिहास, दलित की पीड़ाओं और उन पीड़ाओं से लड़ने का इतिहास
जिस दिन आप ये सब करना शुरू कर दोगे उस दिन अंधेरी रात छटनी शुरू हो जाएगी और सवेरे का आगाज आपकी जिंदगी में होगा।
UDay Che
लेखक परिचय
उदय चे स्वतंत्र लेखक हैं एवं सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं। दलित एवं पीड़ितों के हक की आवाज़ के लिये अपने संगठन के माध्यम से उठाते रहते हैं। उदय चे हिसार के हांसी में रहते हैं।