Site icon Youth Ki Awaaz

सत्ता के नशे में चूर नेताओं ने जनजातीय क्षत्रों के विकास की हमेशा उपेक्षा की है

झारखण्ड, एक ऐसा प्रदेश जिसकी कल्पना देश की आज़ादी के पूर्व एक ‘जनजाति बहुल प्रदेश’ के रूप मे की गई थी। इस प्रदेश में लगभग 32 से भी ज़्यादा जनजाति समुदायों का निवास सदियों से रहा है। मुख्यतः जनजाति समुदाय झारखण्ड के आंचलिक एवम वन प्रदेशों में निवास करते हैं और इनका जनजीवन बहुत ही सरल है। खेती इनका मुख्य पेशा है लेकिन इनका जीवन जंगलों पर भी आश्रित था। इस कारण यहां की जनजातियों का अपने जल, जंगल और ज़मीन के प्रति अथाह प्रेम था। कालांतर में इन विभिन्न जनजातियों का अपना समृद्ध समाज हुआ करता था इनके शक्तिशाली कबीले हुआ करते थे। ये जनजातियां दूसरी सभ्यता से दूर ही रहा करती थी। किसी गैर जनजातियों का इनके क्षेत्रो में प्रवेश करना इनको पसंद नहीं था।

मुगल काल में किसी भी मुगल बादशाह ने इनके क्षेत्रो में प्रवेश करने या हस्क्षेप करने की कोशिश नहीं की। लेकिन ‘अंग्रेज़ कम्पनी’ के भारत आगमन के बाद जिस प्रकार से वे उन जनजातियों के क्षेत्रों में घुसपैठ करने लगें तो उन जनजातियों को यह नागवार लगा।

इन क्षेत्रों में अंग्रेज़ कम्पनी द्वारा साहूकारों और ज़मीनदारों को असीमित शक्तिया दी गईं जिसके कारण जनजाति क्षेत्रों में साहूकारों और ज़मीनदारों के जुल्म और अत्याचार वहां के स्थानीय जनजातियों पर बढ़ने लगे थे। जंगल पहाड़ों और चट्टानों को साफ कर वहां के स्थानीय जनजातियों ने खेती योग्य भूमि बनाये लेकिन सीधे-सादे उन जनजातियों की ज़मीन धोखे से साहूकारों और ज़मीनदारों ने कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। अत्याचार जब हद से बढ़ने लगा तब यहां के स्थानीय जनजातियों ने ज़ुल्म,अत्याचार और गलत नीतियों के खिलाफ विद्रोह कर दिया कर दिया।

आज़ादी से पूर्व कई जनजाति विद्रोह इस प्रदेश के सरज़मीन पर हुई । इस कारण इस प्रदेश को ‘हूल दिशोम’  भी कहा गया। कोल विद्रोह, मुंडा विद्रोह, संथाल विद्रोह, पहाड़िया विद्रोह, खेरवाल विद्रोह आदि कई जनजातियां अपने जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिये विदेशी शासकों से संघर्ष करते रहे।

झारखण्ड का छोटानागपुर, सिंहभूमि के शेर  मुंडा, हो, खड़िया, ऊराओ, असुर, ‘संतालपरगना’  क्षेत्र खुद में, शांत और मृदु भाषी संताल जनजातियों के असीम  बलिदान की वीरगाथाएं समेटे हुए हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि झारखण्ड के सरजमीन को यहां की जनजातियों ने अपने रक्त से सींचा था ।

 अंग्रेज़ों ने उन जनजातियों की जीवटता और संघर्ष को देखकर उन सीधे-सरल जनजातियों की संरक्षण के लिये कानून बनाए। छोटानागपुर , संतालपरगना , और झारखण्ड के कोलहान क्षेत्र के जनजातियों के लिये विशेष कानून बनाये गये ताकि उन क्षेत्र के जनजाति आजादी अपने क्षेत्र में अपने तरीके से जीवनयापन कर सकें। ‘छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम-1908 और ‘संतालपरगना काश्तकारी अधिनियम -1949’ , सिंहभूम कोल्हान में विल्किंसन रूल 1837 झारखण्ड के जनजातियों के लिये बनाये गये विशेष कानून थे।
भारत की आज़ादी के उपरांत जब संविधान बना तब उसके दसवें भाग मे अनुच्छेद 244 के अन्तर्गत दो अनुसूची बनाई गई। पांचवी और छठी अनुसूची बनाकर भारत के कुछ राज्यों के जनजाति क्षेत्र को दो भागों मे बांटा गया ताकि उन जनजातियों को उनके रूढ़ि और परम्परा के अनुसार स्वशासन चलाने का हक दिया जाए। भारत के उत्तर -पश्चिम राज्य असम, मेघालय, त्रिपुरा , मिज़ोरम जिसको छठी अनुसूची के रूप में मान्यता मिली उन्हें अपना स्वशासी ज़िला और स्वायत्त परिषद का अधिकार मिला परंतु पांचवी अनुसूची के क्षेत्र को आज़ादी के सत्तर वर्ष से पारम्परिक स्वशासन चलाने के अधिकार से वंचित किया गया।
जबरन पांचवी अनुसूची क्षेत्र में सामान्य कानून व्यवस्था के अनुसार आम चुनाव और पंचायत चुनाव को ही बल मिला।  जिससे जनजातीय रूढ़िगत स्वशासन व्यवस्था जैसे मानकी मुंडा (कोल्हान क्षेत्र में ), पड़हा राजा (छोटानागपुर क्षेत्र में ) और मांझी परगनैत (संतालपरगना) को अधर में लटका दिया गया।
झारखण्ड और भारत  के अन्य नौ राज्यों को पांचवी अनुसूची Fifth Schedule Area में  चिन्हित  किया गया। इस अनुसूची के पारा 4 में अनुसूचित क्षेत्र के विकास की ज़िम्मेदारी राज्य के राज्यपाल, मुख्यमंत्री ट्राइब्स एडवाइज़री काउंसिल के सदस्य जिनमें विधानसभा के तीन चौथाई ST MLA और जनजातीय समाज से जुड़े अन्य पांच सदस्यो यानी  कुल 20 सदस्यों को दी गई। अनुसूचित जनजाति’  के कल्याण और उनके  समुचित विकास एवं स्थानीय  समस्याओं की  निवृति के लिए राज्यपाल को सलाह देना इस काउंसिल का कर्तव्य था।  लेकिन  इन सत्तर वर्षो में जो ज़िम्मेदारी राज्य के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोग  और कुछ महत्वाकांक्षी जनजाति के नेता स्वयं अनुसूचित क्षेत्र के विकास के अवरोधक बने रहे। वे लोग अपनी  सत्ता और प्रशासन चलाने में  मशगूल रहें। ST MLA/MP  और प्रदेश के मुख्यमंत्री को अनुसूचित क्षेत्र और वहां के अनुसूचित जनजातियों का विकास दिखाई ही नहीं दिया!
राजनीति के दांवपेंचों ने इस प्रदेश की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। राजनीतिक दल आपसी खींचातानी के कारण सत्तर वर्षों से अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों को नज़रंदाज़ करते रहे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जो कानून यहां की जनजातियों की भूमियों की सुरक्षा के लिये बनाई गई थी वो धूर्त और चालाक पूंजीपतियों, नेताओं और भ्रष्ट पदाधिकारियों द्वारा जनजातियों  के ज़मीन की लूट मचाने का ज़रिया बन गया।
जंगल और उसके तराई क्षेत्रों में कई तरह की गतिविधिया बढ़ गई। जंगल और माइंस पर कब्ज़ा करने  के लिए आधुनिक साहूकार (कॉर्पोरेट कंपनी) राजनीतिक एवं प्रशासनिक शक्तियों का इस्तेमाल करने लगें। बेरोज़गारी और गरीबी ने स्थानीय जनजातियों को अन्य राज्यों में पलायन करने के लिए विवश कर दिया। शिक्षा और आर्थिक विकास योजना का  लाभ उन्हें नहीं मिल पाया। विकास के लिये आने वाली सरकारी  सहायता को उन जनजातिय क्षेत्रों तक नहीं पहुंचने दिया गया। भारत सरकार द्वारा संचित निधि (कोष ) से जनजाति उप -विकास योजना के लिये राज्य सरकार को करोड़ों रुपये दिये जाते हैं लेकिन इन सत्तर वर्षों मे उन जनजातियों के कल्याण करने के लिये नाम मात्र ही खर्च की जाती है ।
यह प्रदेश  प्राकृतिक   संसाधनों से भरा  है लेकिन यहां  के स्थानीय जनजातियों की माली हालत बद से बदत्तर होते चली गई। पहले लोग कृषि करके,  वनों से लकड़ी , केन्दु पत्ता  और वन उपज को बेच कर अपना गुज़ारा कर लेते थे लेकिन जिस प्रकार वन संरक्षण या टाइगर फॉरेस्ट जैसी परियोजनाओं के कारण जनजाति समुदाय के लोग जंगल भी नहीं जा सकते।
Exit mobile version