जैसे हमारी पावन धरती और इस धरती के हज़ारो रंग और उसकी प्राकृतिक सौंदर्य सबको अपनी ओर खीचती है वैसे ही आदिवासी समाज की भाषा, संस्कृति, परम्परा और जनजीवन प्रकृति के बहुरंगी आयामों से भरा हुआ है। आदिवासी समाज ‘सम्प्रदाय’ पूरक नहीं बल्कि ‘समुदाय’ पूरक समाज है।
आदिवासी जीवन दर्शन प्रकृति जल, आकाश, अग्नि, जंगल, पहाड़, नदी, मैदान, पशु, पंछी से प्रेरित है और यही आदिवासी समाज की विशिष्टता है कि वे प्रारम्भ से प्रकृति प्रेमी और प्रकृति के उपासक रहे है। प्रकृति ही उनकी दुनिया है और उनके पुरखा उनके पेन या देव रहे है। आदिवासी समुदाय में किसी मनुष्य को देवता नहीं मानते थे और ना कभी असंख्य देवता की कभी कल्पना की गई। आदिवासी समुदाय कभी भी अन्य सम्प्रदायों की तरह अपने बड़े बड़े धार्मिक स्थल बना कर पुरोहितवादी प्रक्रिया द्वारा उपासना नहीं करते थे बल्कि धरती , जंगल , नदी नाला झरने आदि के निकट अपनी वेदी बना कर प्रकृति का सम्मान करते रहे हैं।
भारत में ६०० से भी अधिक आदिवासी समुदाय पाए जाते है। भाषा और क्षेत्र में विभिन्नता होने के बावजूद उनके गीत , संगीत , नृत्य , परम्परा और रूढ़िगत सामाजिक व्यवस्था में समानता पाई जाती है। गुजरात , महाराष्ट्र , राजस्थान , मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ , झारखण्ड , ओडिसा , अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों के आदिवासी समुदाय की विभिन्न संस्कृतियों की समानता ही आदिवासी समुदाय को भारत का एक विशिष्ट समाज बनाता है।
आदिवासी समाज का प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक दृष्टिकोण से समान है। स्त्री पुरुष का विभेद नहीं है और ना जात- पात ऊंच – नीच का कोई असामाजिक स्थान। वर्ण आधारित सामाजिक व्यवस्था और मानव निर्मित स्वधर्म का अस्तित्व की कोई मान्यता आदिवासी समाज में नहीं है। आदिवासी समाज में ऑनर किलिंग, पैदा होने से पूर्व कन्या भूर्ण हत्या और विधवा विवाह की स्वतंत्रता का विरोध जैसे असामाजिक कुप्रथा का कोई स्थान नहीं है। आदिवासी समाज में कन्या का जन्म होना कोई बोझ नहीं समझा जाता। आदिवासी युवाओं को जीवन साथी को चुनने की आजादी होता है जो आज के गैर आदिवासी आधुनिक समाज में कही नहीं दिखता।
विवाह और तलाक से सम्बंधित कठोर सामाजिक व्यवस्था जिससे पारिवारिक , सामाजिक और आर्थिक हानि होती है इसका आदिवासी समाज में कोई औचित्य ही नहीं है। यही कारण है की किसी भी राज्य के जिला अदालत में आदिवासी समाज के किसी व्यक्ति का विवाह विछेद (डाइवोर्स) जैसे मामला ना के बराबर सुनने या देखने को मिलेंगे।
‘विवाह’ आदिवासी समाज में आदरणीय है और यही आने वाले नहीं पीढ़ियों को अपनी विरासत को आगे ले जाता है इस लिए आदिवासी समाज में भगोडिया , घोटुल , धुमकुड़िया जैसी आदिवासी सामाजिक संथा बनाये गए ताकि बुजुर्ग अपनी आदिवासी विरासत को नई पीढ़ियों को सौप सके।
आदिवासी समाज में यौन सम्बन्धो को पाप नहीं समझते लेकिन गैर आदिवासी समाज में आदिवासी समाज के प्रति कई गलत धारणाये बनी हुई है। उनके समझ में किसी आदिवासी अंचल के हाट बाजार में किसी युवा द्वारा किसी आदिवासी युवती को पान या मिठाई खिलाने के पीछे की मनसा सिर्फ यौन इच्छा से प्रेरित मानते है। यही कारण है की आदिवासी जतरा या मेला हाट बाजार में गैर आदिवासी युवक इस फ़िराक में जाते है की किसी आदिवासी युवती को कुछ खिलाने या पिलाने से उसकी यौन अभिलाषा पूरा हो जायेगा कितनी घटिया सोच है।
मध्य प्रदेश के आदिवासी समाज में भगोडिया जैसे सामाजिक आदिवासी प्रथा है की कोई भी नव युवा या युवती को अपने जीवन साथी को चुनने की आजादी होती है जिसमे एक दूसरे को फूल देना (प्रेम का इजहार ) मिठाईया , पान आदि खिलाने की प्रथा है। यह प्रथा एक दूसरे के प्रेम की स्वीकृति के लिए होता है ताकि अपनी वैवाहिक दाम्पत्य जीवन की शुरुवात एक दूसरे से प्रेम की नीव से शुरुवात कर सके लेकिन कई बार इस प्रकार के गैर आदिवासी द्वारा लिखे लेख पढ़ने को मिलते है जिसमे इस प्रकार की प्रथाओं को गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। यह भी गैर आदिवासियों की गलत धारणाओं की और इंगित करता है। ऐसे विकृत सभ्य शहरी सभ्तया के लिए एक प्र्शन है की, विकृत लिविंग रिलेशनशिप की अवधारणा आपने कहाँ से ग्रहण की ? उसके पीछे की अवधारणा को कोई सभ्य समाज समझा सकता है क्या ?
दिल्ली जैसे मेट्रो सिटी में मेट्रो के अंदर युवा युवतियों का एक दूसरे के गले में ,कमर में हाथ डाल कर चलने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होता , देखते हुए भी चुप रहते है ( मैंने इसकी आलोचना खुलकर किसी को करते नहीं देखा) फिर वही सभ्य समाज आदिवासियों के प्रति गलत धरना क्यों पाले हुए है इसपर गंभीरता से सोचना चाहिए।
आदिवासी समाज में हड़िया ( चावल से बना तेज पेय पदार्थ ) और महुआ से बना मध् को आदिवासियों के सामाजिक पतन के लिए जिम्मेवार मानते है। मेरा सोचना है की अगर भोजन भी आवश्यकता से अधिक खाया जाए तो वह स्वास्थ्य की दृष्टि से हानि कारक है। इसका किसी परम्परा से क्या लेना देना। अगर हड़िया या महुआ से बना पेय पदार्थ से आदिवासी समाज का अहित होता है तो सभ्य शहरी सभ्यता का तो नाश ही हो जाना चाहिए था क्योकि की वहां किसी ना किसी कोने में शराब के ठेके मिलेंगे और रात में बड़े बड़े पब में सभ्य शिक्षित लोग( स्त्री पुरुष) शराब और बियर का आनंद लेते है उससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होता बल्कि ऐसे पब को सरकारी मान्यता ( लाइसेंस ) दिया जाता है।
आदिवासी दर्शन , परम्पराओं और रूढ़ियों एवं प्रथाओं को आज तथाकथित सभ्य समाज को समझने की जरुरत है ।