आज भले ही छठी या सातवीं कक्षा के छात्रों में ये समझ विकसित हो जाती है कि रिप्रोडक्शन की प्रक्रिया क्या है। आज के दौर में रिप्रोडक्शन चैप्टर को लेकर छात्रों के ज़हन में बहुत अधिक दुविधाएं नहीं होती हैं। दोस्तों और तकनीक का दायरा भी इतना विशाल हो गया है कि स्कूल के सिलेबस से पहले ही उन्हें रिप्रोडक्शन की थोड़ी बहुत जानकारी तो हो ही जाती है। लेकिन आज से 13 वर्ष पहले जब मैं सातवीं कक्षा में था तब हालात कुछ अलग ही थे।
एक कक्षा में लगभग 100 बच्चे (लड़के और लड़कियां) हुआ करते थे और हर दिन बच्चों की उपस्थिति 70 फीसदी तक हुआ करती थी। मास्टर साहब के अटेंडेंस लेने के बाद लंबी कतारों में वे बच्चे खड़े रहते थे जो पिछले दिन अनुपस्थित थे। इस प्रकिया के पूरे होने में 15 मिनट तक का वक्त लग जाता था और सिर्फ 30 मिनट ही क्लास हो पाती थी। ये आम दिनों की बात थी। मेरे स्कूल के दिनों में छात्र जब छठी कक्षा से सातवीं में प्रवेश करते थे और उन्हें नई किताबें मिलती थी, तब वे एक काम ज़रूर करते थे, सब्जेक्ट लिस्ट में रिप्रोडक्शन चैप्टर में कलम से निशान लगा देते थे।
10 दिन पहले ही उन्हें अनुमान लग जाता था कि इस तारीख को विज्ञान के शिक्षक रिप्रोडक्शन का चैप्टर पढ़ाने वाले हैं। उस रोज़ छात्रों की हाज़री 100 प्रतिशत होती थी। जिस छात्र ने नामांकन के दिन से कभी अपनी शक्ल नहीं दिखाई थी उस रोज वह भी चहक रहा होता था।
बेल जब पांच बार टनटनाती थी तब जाकर आते थे विज्ञान के शिक्षक। ये वो दिन था जब कक्षा में लड़के और लड़कियों की भारी उपस्थिति थी जिसे देख शिक्षक स्वंय हैरत में पड़ गए। उन्हें अंदाज़ा था कि आज वे रिप्रोडक्शन चैप्टर पढ़ाने वाले हैं। इससे पहले कि शिक्षक स्वंय को सहज महसूस करा पाते कि बच्चे एक दूसरे को देख मुस्कुराने और शक्लें बनाने लगते थे। कहीं लड़कियां शर्माती नज़र आईं तो कहीं लड़के खिलखिलाते।
इन सबके बीच मास्टर साहब ने रिप्रोडक्शन चैप्टर पढ़ाने की शुरुआत की। उन्हें भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि दूसरे चैप्टर के मुकाबले आज बच्चे कुछ अधिक दिलचस्पी लेकर सुन रहे थे। लेकिन उस रोज़ बच्चों की दाल गली नहीं। मास्टर साहब के रिप्रोडक्शन इन एनिमल एण्ड प्लांट्स पढ़ाते-पढ़ाते ही बेल बज गई और मामला अगले दिन के लिए अटक गया।
अगले दिन भी बच्चों की हाज़री 100 फीसदी रही। आज जैसे ही मास्टर साहब ने रिप्रोडक्शन इन ह्यूमन बीइंग पढ़ाना शुरू किया वैसे ही खासकर लड़कों ने एक दूसरे के साथ गुदगुदी करनी शुरू कर दिया और लड़कियां एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगीं।
रिप्रोडक्शन चैप्टर में कुछ प्वाइंट्स ऐसे थे जहां टीचर को विस्तार से एक्सप्लेन करना था। लेकिन मास्टर साहब ने वहीं कल्टी मार दी। सारे छात्र अंग्रेज़ी माध्यम के थे जिन्हें शिक्षक को पहले किताब में लिखी अंग्रेज़ी को पढ़कर और फिर उसका हिन्दी में अनुवाद बताना होता था। लेकिन रिप्रोडक्शन वाले प्रसंग को मास्टर बाबू खा ही गए और चैप्टर हो गया समाप्त। और जो लोग बस इसी चैप्टर को पढ़ने स्कूल आते थे उनकी मेहनत भी बेकार हो गई।
रिप्रोडक्शन चैप्टर पढ़ाते वक्त शिक्षक के सहज न होने और बच्चों में उत्तेजना को लेकर हमने बात की दुमका ज़िला स्थित सिदो कान्हू उच्च विद्यालय के बाइलॉजी टीचर नरेश ठाकुर से जिन्होंने कई अहम बातें बताईं। नरेश बताते हैं-
”रिप्रोडक्शन चैप्टर पढ़ाते वक्त एक शिक्षक के सामने सबसे बड़ी मुसीबत होती है शर्म, जिसके कारण वे सही तरीके से बच्चों से कनेक्ट ही नहीं कर पाते। यदि शिक्षक की उपलब्धता हो तो लड़कों को मेल टीचर और लड़कियों को फिमेल टीचर द्वारा बाइलॉजी पढ़ाए जाने पर ज़्यादा असरदार होगा।”
इसके अलावा देश में कई ऐसे विद्यालय हैं जहां शिक्षकों की कमी रहती है। इन विद्यालयों में संभव नहीं है कि वे लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग शिक्षकों की नियुक्ति करें। ऐसे में ज़रूरी है कि वे रिप्रोडक्शन चैप्टर को भी उतनी ही सहजता से पढ़ाएं जैसे कि अन्य चैप्टर पढ़ाया करते हैं। रिप्रोडक्शन चैप्टर को कितनी सहजता से पढ़ाना है ये पूर्ण रूप से शिक्षक पर निर्भर करता है।
रिप्रोडक्शन चैप्टर के संदर्भ में बाइलॉजी के शिक्षक नरेश ठाकुर की बातें न सिर्फ बच्चों और शिक्षक के बीच एक बेहतर संवाद स्थापित करती दिखाई पड़ती है बल्कि संकीर्ण विचारधारा के लोगों पर भी करारा प्रहार करती है। रिप्रोडक्शन टॉपिक को हमारे समाज में काफी जटिल बना दिया गया है। एक सातवीं कक्षा का स्टूडेंड इस विषय पर केवल अपने दोस्तों से ही बात कर सकता है। आज के दौर में बच्चों को ऐसे माहौल में बड़ा किया जाता है जहां सेक्स एजुकेशन की बातें करना गुनाह समझा जाता है।
इस विषय पर बच्चों की शंकाओं को दूर करने के लिए न तो पेरेन्ट्स होते हैं और न ही सभ्य समाज के लोग। ऐसे में जब पहली बार उन्हें किताबों में इसके बारे में बताई जाए तब उनका शर्माना या ‘मज़े’ लेने स्वभाविक है।