दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस के पास जंतर-मंतर स्थित है जिसका निर्माण जयपुर के राजा जय सिंह द्वितीय ने 1724 में वेधशाला के रूप में करवाया था। कहा जाता है कि इस वेधशाला के यंत्रों के माध्यम से ग्रहों की स्थिति, खगोलीय पिंडो की गति, वर्ष के सबसे छोटे और बड़े दिन को मापा जा सकता है।
समय के साथ-साथ जंतर-मंतर के आस-पास ऊंचे-ऊंचे भवन बन गए जिसमें सरकारी और कॉरपोरेट दफ्तर हैं। इन ऊंचे-ऊंचे भवनों के कारण ये सभी यंत्र बेकार हो गए क्योंकि अब ये सही माप नहीं ले सकते हैं।
अब इसका प्रयोग केवल टूरिज्म के लिए होता है। पहले इसके अंदर जाने के लिए कोई फीस नही ली जाती थी लेकिन 21वीं सदी के आगमन के साथ ही फीस वसूली जाने लगी।
समय के साथ जंतर-मंतर का महत्व बदला और 90 के दशक में यह धरना-प्रदर्शन की जगह के रूप में जाना जाने लगा। राजनीतिक-सामाजिक और एनजीओ कार्यकर्ताओं के सन्दर्भ में जंतर-मंतर का नाम आते ही लगता है कि कोई धरना-प्रदर्शन होगा। भारत के विभिन्न राज्यों, शहरों और गांवों से लोग अपनी समस्याओं को लेकर जंतर-मंतर पर इकट्ठा होते हैं और दुनिया के सबसे बड़े ‘लोकतांत्रिक’ देश में 100 मीटर की जगह में दर्जनों कार्यक्रम चलते रहते हैं।
लोगों को आशा होती है कि यहां से भारत के ‘रहनुमा’ बेहद कम दूरी पर बैठते हैं तो उनकी बात सुनी जाएगी और सरकार उनकी समस्याओं का हल निकालेगी। यहां लोग न्याय की आस में एक दिन, दो दिन, महीना, दो महीना या सालों तक अपना घर-बार, काम-काज छोड़कर धरने-अनशन पर बैठे रहते हैं। मुझे मालूम नहीं कि उनको न्याय मिल पाता है या नहीं, लेकिन कभी-कभार ज़रूर हम उनको पुलिस के डंडों से पिटाई खाते या उन पर वाटर कैनन का इस्तेमाल होते देखते हैं।
ऐसा नहीं है कि जंतर-मंतर हमेशा से ऐसा ही था। पहले लोग अपनी शिकायतों को लेकर बोट क्लब पर इकट्ठा हुआ करते थे जो कि संसद के और पास था, यहां तक कि सांसदों, मंत्रियों की आते-जाते उन पर नज़र भी पड़ती थी। लेकिन जंतर-मंतर का यह धरना स्थल बस एक कोने में पड़ा रह जाता है। इस रोड पर कोई आता-जाता भी नहीं, केवल धरने-प्रदर्शन वाले ही लोग होते हैं। इस रोड पर तो आम पब्लिक भी नहीं आती सांसद और मंत्री तो दूर की बात है।
दिसम्बर 1979 में किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों की मांगों को लेकर प्रदर्शन किया। अपनी समस्याओं से दुखी किसानों को सहारा मिला और दिल्ली के आस-पास के राज्य से लाखों किसान बोट क्लब पर कई दिन तक जुटे रहे। किसानों का यह जमावड़ा सरकार को नागवार गुज़रा। किसानों के पसीने की ‘बदबू’ इन बाबूओं (सांसद, मंत्री, नौकरशाह) को नागवार गुज़री और उन्होंने बोट क्लब के प्रदर्शनों पर पाबंदी लगा दी। इसके बाद प्रदर्शनों की शरण स्थली बना जंतर-मंतर।
जंतर-मंतर के आस-पास दफ्तर हैं जो कि शाम को 5 बजे के बाद बंद हो जाते हैं। जंतर-मंतर पर प्रदर्शन भी 5-6 बजे शाम तक बंद हो जाते हैं, उसके बाद वहां कोई लाउडस्पीकर नहीं बजता है और ना ही किसी तरह की नारेबाजी या भाषण होता है। यह इलाका रिहाईशी इलाकों में नहीं आता है, लेकिन वरूण सेठ नामक व्यक्ति को किसानों, मज़दूरों, कर्मचारियों, महिलाओं, दलितों और आदिवासियों की न्यायोचित मांग उनकी ज़िंदगी में खलल डालने वाली लगी।
वरूण सेठ ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल या NGT) में केस डाला (इनमें 7 याचिकाकर्ताओं में से 6 याचिकाकर्ता दो परिवारों से हैं, जिसमें से सेठ परिवार से ही 3 लोग हैं)। इस केस का फैसला 5 तारीख को आया। एनजीटी के ‘न्यायमूर्ति’ आर.एस. राठौर ने याचिका पर फैसला देते हुए जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन को प्रतिबंधित कर दिया, साथ ही कनाट प्लेस में लगने वाली रेहड़ियों और अस्थायी ढांचे को भी हटाने को कहा है।
कोर्ट ने कहा है कि सामाजिक संगठनों, राजनीतिक समूहों व एनजीओ द्वारा किए जाने वाले आंदोलन और जुलूस क्षेत्र में ध्वनि प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत हैं। कोर्ट ने कहा है कि यह वायु प्रदूषण एवं नियंत्रण अधिनियम, 1981 समेत पर्यावरणीय कानूनों का उल्लंघन है। आर.एस. राठौर ने कहा है कि आस-पास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को शांतिपूर्ण व अरामदायक ढंग से रहने का अधिकार है। साथ ही कोर्ट ने दिल्ली सरकार, नई दिल्ली नगर निगम और दिल्ली पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया है कि जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन, लोगों को इकट्ठा होने और लाउडस्पीकर का इस्तेमाल तुरंत रोके। एनजीटी ने अधिकारियों से कहा है कि धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों को तुरंत अजमेरी गेट के रामलीला मैदान में शिफ्ट कर दिया जाए।
एनजीटी के फैसले से उपजे कुछ सवाल
1. एनजीटी ने अपने फैसले में कहा है कि लोगों को अपने घरों में शांतिपूर्ण व आरामदायक ढंग से रहने का अधिकार है। जंतर-मंतर जहां पर रिहाइशी इलाका नहीं है तब भी वहां के लोगों की ज़िंदगी में धरना-प्रदर्शन से परेशानी हो रही है तो क्या रामलीला मैदान के आस-पास रहने वाली सघन आबादी को इससे परेशानी नहीं होगी?
2. रामलीला मैदान के पास ज़ाकिर हुसैन कॉलेज और चंद दूरी पर ही दो बड़े अस्पताल हैं, जहां देश भर से मरीज़ आते हैं। क्या रामलीला मैदान का शोर इन विद्यार्थियों और पहले से परेशान मरीज़ों को प्रभावित नहीं करेगा?
3. जंतर-मंतर पर रात के समय जब कोई लाउडस्पीकर नहीं बजता, किसी तरह की नारेबाजी या भाषणबाजी नहीं होती तो लोगों की ज़िंदगी में खलल कैसे पड़ सकता है?
4. जंतर-मंतर पर ध्वनि रहित जनरेटर का ही उपयोग होता है और लाउडस्पीकर की आवाज भी बहुत तेज़ नहीं रहती है तो लोगों की ज़िंदगी में किसी तरह की खलल कैसे पड़ सकता है?
5. क्या लोगों को अपनी न्यायोचित मांग को उठाना छोड़ देना चाहिए?
6. रामलीला मैदान नगर निगम को पैसा देकर बुक कराना होता है तो क्या अब लोगों को अपनी मांग को उठाने के लिए पैसे देने होंगे?
7. प्रदर्शन के बहाने ही रेहड़ी, पटरी दुकानदारों को हटाने की बात क्यों कही गई है? रेहड़ी वालों से कौन सा प्रदूषण फैलता है?
8. एनजीटी क्यों नहीं उन ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों पर प्रतिबंध लगा रही है, जिन्होंने जंतर-मंतर के अस्तित्व को ही खत्म कर दिया है?
9. क्या एनजीटी का यह फैसला गरीब, मेहनतकश जनता विरोधी नहीं है? क्या यह स्वच्छ दिल्ली के नाम पर गरीबों, मेहतनकशों की आवाज़ को दबाने की साजिश नहीं है?
सिमटता ‘लोकतंत्र’
कहा जाता है कि भारत का ‘लोकतंत्र’ 70 साल का हो गया है लेकिन हम 70 साल में ‘लोकतंत्र’ को अपने से दूर जाते हुए देख रहे हैं। यह भारत में कोई पहला मामला नहीं है कि लोगों को ‘लोकतंत्र का मंदिर’ कहे जाने वाली संसद और विधान सभाओं से दूर किया जा रहा है। इसी दिल्ली में न्यायोचित मांग करने वाले लोगों को पहले बोट क्लब से भगाकर संसद से थोड़ा और दूर किया गया, अब एनजीटी के बहाने और दूर किया जा रहा है।
इससे पहले इसी साल तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में ‘धरना चौक’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जब सभी सामाजिक-राजनीतिक संगठनों ने मिलकर इस मुद्दे को उठाया तो तेलंगाना के मंत्री कहते हैं कि पुलिस को इस तरह का कोई निर्देश नहीं दिया गया है। इससे पहले बिहार की राजधानी पटना में सचिवालय के पास हड़ताली चौक पर लोग धरना-प्रदर्शन कर अपनी समस्या सुनाते थे, उस हड़ताली चौक को कुछ दूर गर्दनीबाग में शिफ्ट कर दिया गया।
चंडीगढ़ में तीन सरकारें चलती हैं, हरियाणा, पंजाब और केन्द्रशासित प्रदेश की, लेकिन तीन सरकरों की जनता अपनी सरकार के पास जाकर अपनी बात नहीं कह सकती। चंडीगढ़ में पहले सचिवालय के पास प्रदर्शन होते थे उसके बाद उसको थोड़ी दूर मटका चौक पर शिफ्ट कर दिया गया और अब उसे और अधिक दूर सेक्टर 25 के पास शिफ्ट कर दिया गया है।
लोकतंत्र जितना अधिक समय का होता है उतना ही परिपक्व होता है और उतना ही जनता के नज़दीक होता है। पर क्या भारत का ‘लोकतंत्र’ परिपक्व होने की जगह बूढ़ा होता जा रहा है, जिसे कमज़ोर ताकत के कारण अपनी जनता से ही डर लगने लगा है? जिससे वह जनता को दूर, और दूर करता जा रहा है?
‘लोकतंत्र’ के 70 साल में बोट क्लब से रामलीला मैदान पहुंचा दिए गए, तो क्या 100 वर्ष मनाते-मनाते इससे इतना दूर चले जाएंगे जिसका दूर से दर्शन करना भी मुश्किल हो जाएगा?
हमें एनजीटी के फैसले का विरोध करना चाहिए और अपने अधिकारों को मांगते हुए बोट क्लब वापस लेना चाहिए।
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