80 का दशक तब मेरा और मेरी पीढ़ी के तमाम लोगों का जन्म भी नहीं हुआ था। हमारे पिताजी की उम्र भी 20 साल के आस-पास रही होगी। ये वो समय था जब उत्पादन से लेकर वितरण तक सब कुछ सरकार के हाथ में था। एक तरह से कह सकते हैं कि सरकार मनमानी करती थी। राजनीति अपने खेल, खेल रही थी और खेलों में तो हम जन्मजात फिसड्डी थे ही, सो उसमें भी कोई आशा दिखाई नहीं दे रही थी की कहीं कुछ अच्छा होगा। अर्थव्यवस्था जैसा भारी शब्द एक आम भारतीय के लिए अजूबा था और जो जानते थे उनके लिए भी इसके मायने सरकार के रुपयों के लेन-देन से ज़्यादा नहीं था।
ऐसे में 80 के दशक के बीच, राजनीति से लेकर खेलों तक, अर्थव्यवस्था से लेकर आम लोगों के जीवन तक सबमें कई बदलाव आने शुरू हो रहे थे। बदलाव के इस दौर यानि कि 1985-86 के सालों में भारतीय लोगों के सामने दो नाम बड़ी तेज़ी से उभर रहे थे। एक था डॉ. मनमोहन सिंह का और दूसरा था सचिन तेंदुलकर का।
डॉ. मनमोहन सिंह, सौम्य से दिखने वाले अर्थशास्त्री जो आम लोगों की तुलना में थोड़ा सा कम बोलते थे। ऐसा नहीं कि उन्हें बोलना नहीं आता था, दरअसल उनके बोलने की कीमत बहुत ज़्यादा थी। उनके शब्दों से दुनिया भर के बाज़ार ऊपर-नीचे हुआ करते थे। उनके बोलने से सरकारें अपनी नीतियों में परिवर्तन करने को तैयार रहती थीं और सरदार जी चुपचाप अपना काम कर रहे थे।
अगले कुछ सालों तक सब कुछ चलता रहा और बस चलता ही रहा, फिर वो दौर आया जिसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी। ये बुरा दौर था। रुपये से लेकर अर्थव्यवस्था तक सबकुछ डूब रहा था और इन सबकी अगुवाई करने वाली राजनीति उदासीन थी। यह सरकारों के बनने बिगड़ने का समय था। हर राजनीतिक दल और हर नेता का अपनी ढपली अपना राग जैसा रवैय्या था। सभी कह रहे थे कि बुरा हो रहा है, लेकिन इस बुराई से बचने के लिए, इससे बाहर निकलने के लिए उपाय किसी के पास नहीं थे।
ये वह समय था जब नेहरू और महालनोबिस का सशक्त भारत का सपना डूब रहा था। वह सपना जो उन्होंने अर्थव्यवस्था के सहारे देश की तरक्की के लिए देखा था, लेकिन महान लोगों के सपने कभी डूबा नहीं करते वो बस अपना स्वरूप बदलते हैं। उनके क्रियान्वयन के तरीके बदलते हैं और बदल जाते हैं उनको क्रियान्वित करने वाले। ये वही समय था जब भारत की तरक्की का सपना नेहरू-महालनोबिस से निकलकर नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह के हाथ आ गया था, जिसे राव-मनमोहन मॉडल कहा गया।
इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता थी, हमारे पास विदेशी माल के आयात लायक पैसे भी नहीं थे। जितने बचे थे उनसे बमुश्किल 15 दिन तक ही आयात किया जा सकता था और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से उधार भी नहीं मिल रहा था। जो दानवीर थे उनकी अपनी शर्तें थी कि ऐसा करो, ऐसा ना करो। ऐसे में राव-मनमोहन की जोड़ी ने एक फैसला किया, फैसला भी छोटा नहीं था। उनके इस फैसले के बाद सबकुछ बदलने वाला था, हमेशा के लिए।
ये फैसला था उदारीकरण का, निजीकरण का। इस फैसले के सहारे भारत की अर्थव्यवस्था समूचे विश्व के साथ जुड़ने जा रही थी। लंदन का आम आदमी जो कपड़े पहनता था, वही कपड़े भारत के आम आदमी को पहनाने की कवायद शुरू हो गई थी। ये शुरुआत थी भारत को तीसरी दुनिया से अलग कहलाने की होड़ से। इस जोड़ी के कर्ताधर्ता डॉ. मनमोहन सिंह ने ही पहली बार पैसे को रुपए में बदला। उन्होंने ही एहसास कराया कि रुपया आखिर होता क्या है। डॉ. सिंह ने ही हमें विश्व से जुड़ने के तमाम साधन उपलब्ध कराए। कोक पीकर लीवाईस की जीन्स पहनने वाली पीढ़ी के हाथ में स्मार्टफोन देकर उन्हें कूल बनाने का सपना मनमोहन सिंह ने ही दिखाया।
1984 के सिख दंगों के बाद राजनीति की समझ रखने वालों को कतई उम्मीद नहीं थी कि कभी कोई सिख, भारत का प्रधानमंत्री बन सकता है। लेकिन ऐसा हुआ और इसकी शुरुआत उसी समय हो गई थी जब समूचे सिख समुदाय को शक की निगाहों से देखा जा रहा था, दूसरी तरफ डॉ. मनमोहन सिंह अपनी समझ के सहारे राजनीति पर अपनी पकड़ मज़बूत कर रहे थे। 1984 में हुए सिख विरोधी नरसंहार के बाद और तमाम विरोधाभासों के बावजूद, 20 साल के भीतर एक सिख भारत के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा और लगातार 10 साल तक प्रधानमंत्री रहा। डॉ. मनमोहन सिंह से पहले नेहरू और इन्दिरा ही इतने लम्बे समय इस पद पर रहे थे।
डॉ. सिंह द्वारा किए गए सुधार अकेले कॉंग्रेस और स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह तक ही सीमित नहीं थे। कांग्रेस के बाद 1998 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई बीजेपी (एनडीए) जो तब देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल था, उसकी विचारधारा और आर्थिक नीतियां सब कुछ अलग था। पहली बार सरकार में आने के बाद बीजेपी (प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी) ने भी डॉ. सिंह के दिखाए रास्ते पर ही आगे बढ़ना मुनासिब समझा। यही डॉ. मनमोहन सिंह की कमाई साख है, यही उनका हासिल है।
डॉ. मनमोहन सिंह यह सब प्रधानमंत्री बनने से पहले कर चुके थे और जब वो खुद प्रधानमंत्री बने तो उन्हें अपनी नीतियों पर अमल करने का पूरा मौका मिला, जिसका भरपूर लाभ उठाते हुए उन्होंने देश को एक नई दिशा दी। डॉ. सिंह की पहचान एक पूंजीवादी अर्थशास्त्री के तौर पर की जाती है, बाज़ार की नज़रों से देखें तो यह सत्य के नज़दीक भी दिखाई देता है। लेकिन सत्य इसके विपरीत और इससे कहीं थोड़ा सा उजला है।
उन्होंने बाज़ार को बढ़ावा दिया क्योंकि वो जानते थे कि बिना आर्थिक मज़बूती के देश का विकास सम्भव नहीं है। अर्थव्यवस्था की मज़बूती के लिए ज़रूरी है की बाज़ार से जुड़ा जाए अकेले रहकर तरक्की संभव नहीं है। बाज़ार से जुड़ने के लिए ज़रूरी था देश को उस लायक बनाया जाए। उन्होंने अमीर को, अमीर बनने का मौका तो दिया और उनके हिसाब से नीति निर्माण भी किया, लेकिन गरीब तबके को साथ लेकर। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने नरेगा जैसी योजना दी जो विश्वभर में रोज़गार गारंटी का सबसे बड़ा सरकारी कार्यक्रम था। रोज़गार गारंटी योजना, नेहरू और गांधी का दर्शन था, जिसमें ग्रामीण भारत को लक्ष्य कर उसके उत्थान की बात की गई थी।
उन्हीं के कार्यकाल में सूचना के अधिकार से लोकतन्त्र को मज़बूत करने का प्रयत्न किया गया, जिसके अंतर्गत सरकार से किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त की जा सकती है। खाद्य सुरक्षा कानून एक और समाजवादी योजना थी जिसके तहत गरीब तबके को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराना था, ताकि कोई भूखा ना सोए। मुक्त बाज़ार के अगुवा का यह एक घोर समाजवादी कदम था।
डॉ. सिंह व्यक्तिगत रूप से चाहे जितने ईमानदार रहे हों लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में लगे बड़े-बड़े घोटालों के आरोपों से वह बच नहीं सकते। वर्तमान का तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतिहास उन्हें उनका हक ज़रूर देगा या शायद उन्हें दो हिस्सों में याद करेगा। पहला सबसे सफल वित्तमंत्री जो आर्थिक सुधारों का अगुआ था और दूसरा एक बौद्धिक अर्थशास्त्री और असफल प्रधानमंत्री। तो आपको क्या लगता है डॉ. मनमोहन सिंह इतिहास में कैसे दर्ज होंगे, सबसे सफल वित्तमंत्री के रूप में या फिर एक असफल प्रधानमंत्री के रूप में।
फोटो आभार: getty images और flickr