अमिताभ बच्चन ने यश चोपड़ा के साथ पहली बार ‘दीवार’ (1975) और अंतिम बार ‘सिलसिला’ (1981) में काम किया। 1975 से 1981 के बीच अमिताभ और यश चोपड़ा की जोड़ी ने दीवार, कभी कभी, त्रिशूल, काला पत्थर और सिलसिला जैसी सफल फिल्में दी। ऋषिकेश मुखर्जी की तरह यश चोपड़ा ने भी अमिताभ को विविध एवं रोचक भूमिकाओं का अवसर दिया। व्यवसायिक हिंदी सिनेमा में यश चोपड़ा और अमिताभ बच्चन की फिल्में खासा महत्व रखती हैं। इन्हें आज भी गर्मजोशी से याद किया जाता है, दर्शकों में इन फ़िल्मों को लेकर खासा उत्साह देखा गया है। दीवानगी कुछ यूं कि मानो ये तीस-चालीस बरस पुरानी नहीं बल्कि आज की फिल्में हों।
दरअसल दर्शक जब भी पुराने दौर की फिल्में देखते हैं तो हर बार कुछ सकारात्मक बातें निकलकर आती हैं, बेहतरीन सिनेमा कभी निराश नहीं करता। अमिताभ और यश चोपड़ा की उपरोक्त फिल्मों के बहुत से पक्ष दमदार नज़र आते हैं। इन पात्रों में विविध भावनाओं की बानगी देखते ही बनती है और अमित जी का किरदार इन फिल्मों को खास बनाता है। ज़ाहिर है कि यश चोपड़ा के साथ अमित जी एक परिपक्व एटीट्युड कायम करने में सफल हुए।
दीवार, त्रिशूल और काला पत्थर की कहानी सलीम-जावेद की लिखी है, जबकि सिलसिला और कभी-कभी सागर सरहदी और यश चोपड़ा की कलम से निकली कहानियां हैं। यश जी की फिल्मों में अमिताभ का कोई भी किरदार एकपक्षीय नहीं है, उनके हर एक किरदार में विविध परतें देखने को मिलती हैं। इन सभी किरदारों में निगेटिव छवि का अंश भी आवश्यक रूप से प्रकट हुआ। कह सकते हैं कि ‘किस्मत’ में अशोक कुमार का अदा किया गया ‘निगेटिव हीरो’ का किरदार हिंदी सिनेमा में अब चलन में था।
यश चोपड़ा ने अमित जी को सामान्य से हटकर भूमिकाएं दी। यह फिल्में हीरो को अच्छाई व नैतिकता से परे एक अलग ही छवि में ले जाती हैं। इन फिल्मों में हीरो नीच प्रवृत्ति का, स्वार्थी और कभी-कभी खलनायक समान भी प्रतीत होता है।
‘मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता (दीवार)’, ‘मेरी जेब में पांच पैसे नहीं हैं, पर मैं पांच लाख का सौदा करने निकला हूं (त्रिशूल)’ और ‘दर्द मेरी तक़दीर है (काला पत्थर)’ जैसे अमिताभ बच्चन के सभी लार्जर दैन लाईफ वाले संवाद यश चोपड़ा की फिल्मों से ही हैं।
दीवार, त्रिशूल और काला पत्थर ने अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन की छवि बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। हिंदी सिनेमा के इन क्रांतिकारी पात्रों ने क्रोध को अपना आवरण बना लिया। इस पीड़ा में भीतर ही भीतर जल रहा यह आंतरिक क्रोध ही दरअसल बाहरी व्यवहार को एंग्री यंग मैन की छवि में ढाल रहा है। कभी-कभी तो वह एक ऐसे जहरीले आदमी के समान नज़र आता है जो अपने आस-पास की हर चीज को मिटाने पर आमदा है।
दीवार अमिताभ को एक क्रोधित लेकिन बेहद संवेदनशील व्यक्ति की छवि में प्रस्तुत करती है, जिसे अपने पिता और परिवार की बेईज्ज़ती की पीड़ा को चुपचाप सहन करना पड़ा है। समाज से मिले अपमान को वह अपने दिल में लेकर ही घूम रहा है। दरअसल वह लोगों और समाज से बदला लेने की ओर अग्रसर है।
त्रिशूल में भी वह एंग्री यंग मैन छवि में नज़र आए हैं, जिसे अपने पिता से मां का बदला लेना है। प्रेमिका को दुख, गरीबी और बदनामी के अंधेरे में छोड़कर चला आया व्यक्ति दरअसल उसका पिता है और पिता से हरेक अपमान का जवाब उसका जायज़ अधिकार है।
काला पत्थर में उनका किरदार एक हारे हुए युवा का है। हालात का मारा हुआ शख्स जिसके साथ वक्त ने बड़ा अन्याय किया है। वह कायर नहीं है लेकिन वक्त रहते सही फैसला लेने में विफल रहा है जिस वजह से वह आत्मसम्मान नहीं हासिल कर सका। इन्ही वजहों से उसकी बहादुर पिता की छवि को भी नुकसान हुआ। इसके लिए खुद को उत्तरदाई ठहराते हुए वह खुदकुशी भी करना चाहता है, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता। खुद को असहाय महसूस करते हुए वह क्रोध की चरमसीमा को प्राप्त कर चुका है।
क्रोध का यह जानलेवा स्तर समय व समाज को हानिकारक रूप से बदलने का इच्छुक है। दरअसल वह खोल में रह रहा एक sadist व्यक्तित्व बन चुका है। आत्म-निर्धारित ‘एकाकीपन’ में रहने वाला यह शख्स दुनिया से बेगाना है, हांलाकि वह कोयला खदान के मज़दूरों में से एक है। शारीरिक रूप से ज़रूर वह वर्तमान में जी रहा लेकिन वह इस दुनिया में अजनबी सा मालूम होता है।
इन सभी फिल्मों में एक पीड़ित आत्मा का आवरण लिए हुए अमिताभ का हर किरदार अच्छे दिल का इंसान है जिसका इतिहास बहुत न्यायपूर्ण नहीं है। अतीत ने इस इंसान को एक ऐसी खास शख्सियत दी है जो ऊपर से तो झुलस कर निष्ठुर हो चुका है, लेकिन भीतर में अब भी आग धधक रही है। किसी के हवा देने पर यही आग भड़ककर उग्र अंजाम तक पहुंचती है।
दीवार, त्रिशूल एवं काला पत्थर ने हिंदी सिनेमा को एक नया सुपरस्टार दिया। इन फिल्मों में अमित जी ने अपने किरदारों को दमदार तरीके से सजीव किया। अमिताभ की बहुमुखी क्षमता को विस्तार देने की सकारात्मक योजना भी यश चोपड़ा के मन में पल रही थी । फिल्म ‘कभी-कभी’ और ‘सिलसिला’ को उसी की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है ।
फिल्म कभी-कभी में अमिताभ को एक संवेदनशील कवि का किरदार मिला। फिल्म रूमानी व्यक्तित्व के एक ऐसे कवि की दास्तान बयान करती है जिसे अतीत में उसके रूमानी और संवेदनशील नज़रिए को तिलांजली देने के लिए इसे बाध्य किया गया। अब वह एक बेटी का बाप है जिसकी भावनाएं केवल किशोर बिटिया तक ही सिमट कर रह गयी हैं। बिटिया के प्यार में वह दूसरों के प्रति रुखा व कर्कश हो चला है। दरअसल इस कवि का प्यार प्रेमिका और बेटी के लिए ही उमड़ता है। कहा जा सकता है कि एक हद तक संवेदनशील आदमी होकर भी वृहद रूप से वह स्वार्थी और आत्मकेंद्रित है।
कभी-कभी वह बहुत नीच और स्वार्थी हो जाता है। पहले प्यार को हसरत से याद करने से उसे परहेज़ नहीं, क्योंकि वह खुद को अतीत का पीड़ित शख्स मानता है। कभी खुद प्यार में होने पर भी वह पत्नी (वहीदा रहमान) के पूर्व प्रेम को लेकर बेहद नाराज़ है। पत्नी का पूर्व प्रेम संबंध उसे अस्वीकार है, लेकिन इस संबंध में खुद का मामला उसे नागवार नहीं गुज़रता। दरअसल यह किरदार के आत्मकेंद्रित नज़रिए को दर्शाता है। प्रेमिका के लौट आने बाद उसके किरदार में नाटकीय बदलाव देखने को मिलता है।
कवि जो पहले कभी था वो दरअसल अब बदल चुका है। कभी हरेक पहलू में जीवन की खोज करने वाला उसका नजरिया अब बहुत ही संकुचित हो चला है। उसे पूरी दुनिया स्वार्थी नज़र आती है। इस पूर्वाग्रह को तकरीबन सही समझकर वह इसे अपने जीवन में अपना चुका है। प्रेमिका से दूर रहने का कठिन निर्णय लेकर वह बहुत ज़्यादा खुश नहीं है। मजबूरी में लिया हुआ यह फैसला उसे स्वीकार नहीं, पर यही सच है। यह पीड़ा समय के साथ उसे एक तल्ख आदमी में ढाल देती है। ज़ाहिर है कि वह इस निर्णय को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर नहीं सका है। दरअसल वह अपने ही फैसले पर कायम ना रहने वाला कमज़ोर इंसान है।
तमाम पात्रों के बीच अमिताभ सबसे कमज़ोर व्यक्ति नज़र आते हैं। अमिताभ को छोड़कर फिल्म के सभी पात्र यथार्थ जीवन के स्वरूप को स्वीकार कर आगे बढ़ चुके हैं। अमिताभ का पात्र एक पाश्चाताप के साथ अतीत में पड़ा हुआ है। उसकी भावनाएं सार्वजनिक ना होकर बहुत ही निजी हैं, जिन्हें अपनी बेटी के सिवाए किसी और से बांटने से वह परहेज़ करता है। यह व्यवहार उसे एक ‘बंद व्यक्तित्व’ में तब्दील कर चुका है।
हिंदी फिल्में अभिनेता को आमतौर पर प्रभावी तरीके से पेश करती है, ताकि शुरू से ही उसकी ‘हीरो’ की एक दमदार छवि स्थापित हो सके। लेकिन यश चोपडा ने ‘कभी-कभी’ में इसके विपरीत करने की हिम्मत जुटाई। उनकी यह फ़िल्म हीरो (अमिताभ) को एक कमज़ोर शख्स के रूप में पेश करती है, यह किरदार ‘हीरो’ जैसा महान ना होकर बेहद ‘साधारण’ है।
सिलसिला में यश जी ने अमिताभ के कवि पात्र को खोई हुई पहली मुहब्बत की ओर जाने का अवसर दिया है। प्रेमिका से विवाह ना होने के बावजूद अमिताभ के भीतर का लेखक-कवि जीवित है। वह अपनी प्रेरणा को जीवन का अमूल्य स्रोत मानकर चला है। वह लेखन क्षेत्र में कैरियर बनाने को संकल्पित है लेकिन वह सामान्य से परे स्तर का लेखक है। दुनियावी उसूलों से लेकर प्रबंधन की श्रेष्ठ समझ रखने वाला यह व्यक्ति कुछ खास है। प्रेमिका द्वारा ज़िंदगी में फिर से दस्तक देने बाद इस आदमी के व्यवहार में नाटकीय बदलाव देखने को मिलता है।
अब वह पत्नी एवं मित्रों के प्रति बहुत ही रूखा हो चला है। दरअसल वह प्रेम की भावनाओं को रोकने में विफल है। उसकी यह दीवानगी खतरनाक स्तर की और अग्रसर है। मनचाहे परिणामों के लिए वह हालात एवं लोगों की भावनाओं से मनमाफिक खेल रहा है। दर्शकों को पुराने मित्र (देवन वर्मा) प्रति लेखक (अमिताभ) का खुश्क व्यवहार नागवार गुज़रेगा।
इन्ही मानवीय अक्षमताओं ने कभी-कभी और सिलसिला के किरदार को विशेष बना दिया है। इन जटिल अंदाज की भूमिकाओं ने इन पात्रों को दरअसल यादों में ज़िंदा रखा है।
मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा एवं अन्य द्वारा निर्मित सुपरहिट फिल्मों की तरह यश चोपड़ा की अमिताभ के साथ बनाई फिल्में ज़बरदस्त हिट रही। जहां सिलसिला और कभी-कभी में अमिताभ का किरदार वास्तविकता के करीब है तो दीवार, त्रिशूल और काला पत्थर जैसी फिल्में अमिताभ बच्चन के किरदारों का ‘लार्जर दैन लाईफ’ की तर्ज़ पर चित्रांकन करती हैं।
अमिताभ द्वारा निभाए गए इन पात्रों का ‘रीमेक’ लगभग असंभव सा है। यदि कोई अभिनेता इन्हें पुनर्जीवित करने की योजना पर विचार करता है तो यह एक बड़ी भूल होगी क्योंकि अमिताभ ने इन किरदारों को ज़बरदस्त परफेक्शन के साथ पहले ही अमर बना चुके हैं। रीमेक के लिए उन्होंने कोई संभावना छोड़ी नहीं है। किसी अभिनेता की इससे बढ़िया करने की कोई गुंजाइश दिखाई नहीं देती। दरअसल अमिताभ की लार्जर दैन लाईफ वाली भूमिकाएं अदाकारी से आगे अभिनेता के दमदार व्यक्तित्व की भी उपज थी।
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