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सत्ता से आंख मिलाकर नेहरू से सवाल करने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया

एम.फिल. की क्लासेस में भारतीय चिंतकों को पढ़ते हुए राम मनोहर लोहिया से मेरा परिचय इस रूप में हुआ कि लोहिया का पूरा चिंतन बराबरी के मूल्यबोधों में डूबा हुआ चिंतन है। बराबरी का यह लोकतांत्रिक विचार और स्त्री-पुरुष के बीच असमानता के मूल कारणों की खोज की जिजीविषा, लोहिया को और पढ़ने और खंगालने के लिए उकसाती है। और इस तरह धीरे-धीरे लोहिया अपने समकालीन चिंतकों से कोसों आगे निकलते नजर आते है।

लोहिया के स्त्री विमर्श को समझने से पहले उनसे मेरा परिचय मधु लिमये के इन शब्दों से हुआ, “राम मनोहर लोहिया और जवाहर लाल नेहरू इस देश में गरीब आदमी की पक्षधरता की राजनीति की बुनियाद रखने वाले व्यक्ति थे।” मैंने राम मनोहर लोहिया को वहां से पढ़ना शुरू किया जब वो भारतीय राजनीति में नेहरू के आलोचक के रूप में उभरे, जहां-जहां सभाएं की नेहरू को मात दी और लोकसभा में सत्ता की आंखों में आंख डालकर नेहरू के खर्चे तक पर सवाल उठाया।

फिर जब राम मनोहर लोहिया के संदर्भ में किताबों की सलटवों और तहों में झांकना शुरू किया तो यह भी पाया कि लोहिया ने 1939 के दौर में कॉंग्रेस की टूट का खतरा देख कई लेख भी लिखे और कॉंग्रेस को टूटने से बचाना राष्ट्रहित में माना। मैंने यह भी जाना कि नेहरू और लोहिया की मुलाकात 1936 में कॉंग्रेस के टेंट में हुई थी। लोहिया ने अॉल इंडिया कॉंग्रेस कमेटी के विदेशी मामलों के सेक्रेटरी के रूप में पूरी दुनिया के प्रगतिशील आंदोलनों से संपर्क कायम किया। लोहिया और नेहरू दोनों ही एक दूसरे से अत्यधिक प्रभावित भी थे और दोनों एक दूसरे का सम्मान भी करते थे।

नेहरू और लोहिया में मतभेद के लक्षण पहली बार दूसरे विश्वयुद्ध के समय नज़र आने शुरू हुए। राम मनोहर लोहिया की अगुवाई में कॉंग्रेस के विदेश विभाग ने एक परचा तैयार किया था जिसमें लोहिया ने कहा- “दुनिया को चार वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले में पूंजीपति, फासिस्ट और साम्राज्यवादी ताकतें और दूसरे में वे देश हैं जो साम्राज्यवादियों के प्रजा देश हैं और उनसे छुटकारा चाहते हैं। तीसरा वर्ग रूस के साथियों का है, जिसके साथ आमतौर पर समाजवादी हैं और चौथा वर्ग वह है जो साम्राज्यवादियों, पूंजीवादियों और फासिस्टों के शोषण का शिकार होने के लिये अभिशप्त हैं।” बस इसी सोच में नेहरू और लोहिया के विवाद की बुनियाद है।

यूरोप के पूंजीवादी देशों के वामपंथी, अरब देशों और पूर्वी एशिया के संघर्षों को भी फासिस्टों का समर्थक मानते थे और जवाहर लाल नेहरु का झुकाव इन यूरोपियन वामपंथियों की तरफ था। बहरहाल यहां से विवाद शुरू हुआ तो वह आखिर तक गया और दुनिया जानती है कि बाद के वर्षों में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने नेहरू की आर्थिक नीतियों की धज्जियां बार-बार उड़ाई। आखिर में कॉंग्रेस पार्टी के खिलाफ जो आंदोलन सफल हुए उन सबकी बुनियाद में डॉ. लोहिया की राजनीतिक आर्थिक सोच वाला दर्शनशास्त्र ही स्थायी भाव के रूप में मौजूद रहा।

मैं व्यक्तिगत रूप से राम मनोहर लोहिया का मुरीद तब हुआ जब वो कहते हैं, “भारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपनी औरतों को वह पीटता है। सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैं, लेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैं, इतनी और कहीं नहीं। हिंदुस्तान का मर्द सड़क पर, खेत पर या दुकान पर इतनी ज़्यादा जिल्लत उठाता है और तू-तड़ाक सुनता है, जिसकी सीमा नहीं। इसका नतीजा होता है कि वह पलटकर जवाब तो दे नहीं पाता, दिल में ही यह सब भरे रहता है और शाम को जब घर लौटता है, तो घर की औरतों पर सारा गुस्सा उतारता है।

राम मनोहर लोहिया का स्त्री विषयक चिंतन, स्त्री मात्र पर विचार नहीं करता है। यह भारतीय संस्कृति में द्रौपदी को आदर्श चरित्र में खोजता है, यह स्त्री को एक अलग इकाई के रूप में नहीं, वरन समाज के अभिन्न हिस्से के रूप में देखता है। उस समय जब बाबा साहब अंबेडकर के अलावा कोई भी इसे नहीं देख पा रहा था। गांधी जहां महिलाओं को एक इकाई मानते थे, वहीं लोहिया उन्हें जातिग्रस्त समाज का हिस्सा मानते थे। ज़ाहिर है लोहिया महिलाओं के सन्दर्भ में पितृसत्ता के साथ-साथ जातिग्रस्त पितृसत्ता को भी पहचान रहे थे। इसलिए वो महिलाओं की आर्थिक भागीदारी के अवसरों की पैरवी भी कर रहे थे। लोहिया उस दौर में अंतरजातीय विवाहों पर अपनी सहमति जताते हैं, क्योंकि इससे महिलाओं को खुद को अभिव्यक्त करने का मौका मिलेगा और वो तमाम वर्जित क्षेत्रों में पहुंच सकेगी।

लोहिया यौन-व्यवहार के दोहरे मापदंडों का भी कड़ा विरोध करते हैं और कहते हैं- “‘यौन-पवित्रता की लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद आमतौर पर विवाह और यौन संबंध के बारे में लोगों के विचार सड़े हुए हैं। सारे संसार में कभी न कभी मर्द व औरत के संबंध शुचिता, शुद्धता, पवित्रता के बड़े लम्बे-चौड़े आदर्श बनाए गए हैं। घूम-फिरकर इन आदर्शों का संबंध शरीर तक ही सिमट जाता है और शरीर के भी छोटे से हिस्सों पर।”

राम मनोहर लोहिया, राष्ट्रवादी आंदोलन में पुरुषों और महिलाओं के संदर्भ में पुरानी बोतल में नई शराब की चाल को समझते हैं। पर लोहिया के स्त्री-चिंतन की सीमा भी उभर कर आती है, जब वह भारतीय स्त्री को प्रतीक मानते हुए अन्य संस्कृतिचितंको की तरह महिलाओं को राष्ट्रवादी चेहरों से बाहर नहीं ला पाते हैं। हालांकि राम मनोहर लोहिया कुछ मामलों में अलग खड़े भी हो जाते है, उनकी मान्यता के अनुसार कोई भी समाज तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक कि उसकी महिलाओं को विकास की प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने की स्वतंत्रता और अवसर प्राप्त नहीं होंगे।

मौजूदा अर्थव्यवस्था और समय में राम मनोहर लोहिया के विचार के मूल्यांकन में कई लूप-होल्स दिख सकते है पर “हिंदू बनाम हिंदू”, “कृष्ण”, “राम, कृष्ण और शिव”, “सुंदरता और त्वचा का रंग”, “भारत माता धरती माता” और कई लेख गैर-बराबरी के धरातल पर नई ऊर्जा के साथ उनके विचारों की प्रासंगिकता और संघर्ष का रास्ता भी दिखाते हैं।

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