फिल्म का दूसरा दृश्य लीबिया को दिखाता है जहां एक वृद्ध, शांत व्यक्ति पर निर्देशक का कैमरा कुछ पल के लिये रुक जाता है, ये शख्श और कोई नहीं, खुद ओमर मुख्यतार है, जो धर्म से मुसलमान है, कुरान का बहुत बड़ा जानकार है, और एक मदरसे में बच्चो को कुरान की जानकारी देता है। इसी बीच एक धार्मिक पक्ति के संदर्भ में, वह पाठक को रुकने के लिये कहता है और बच्चों से कुछ सवाल करता है, अंत में वह अपने हाथ में अपना ही आंखों का चश्मा रखकर इस बात की जानकारी देता है कि खुदा ने जो सबसे महफूज़ चीज बनाई है वह है बैलेंस। इस एक लफ्ज़ में मुझे गुरु नानक की गुरुबानी का एक शब्द याद आ गया जिसका मतलब कुछ इसी तरह है कि पृथ्वी, नदी, पहाड़, सारा ब्रह्मांड परमात्मा की रज़ा से ही चल रहा है यानी कि बैलेंस है।
इसी दृश्य में, स्कूल से बाहर, लीबिया की रीति रिवाज़ के तहत एक शादी का समारोह चल रहा है, जहां लीबिया के समाज के पहनावे, नाच गान, को दिखाया गया है जो की इटली के समाज से बहुत भिन्न है। इस दृश्य के कुछ पल बाद, इसी गांव में इटली की सेना हमला कर देती है। इटली के तानाशाही रवैय्ये को भी बखूबी यहां दिखाया गया है, लीबिया के आदमियो को एक कतार में खड़ा कर दिया जाता है और इटली का सिपाही हर दसवें आदमी का कत्ल कर रहा होता है। सैनिक जाते जाते, घरों से अनाज की बोरियों को इकट्ठा कर आग लगा देते हैं, यहां ध्यान देने की ज़रूरत है कि लीबिया एक रेगिस्तान है जहां आनाज की पैदावार बहुत कम होती है, ऐसे में अनाज को जला देना जनता को भूख से मारने की एक सोची समझी साज़िश लगती है, जाते जाते सैनिकों द्वारा कबीले की एक लड़की को भी जबरन उठाया जाता है। इस सीन से निर्देशक, कम्यूनिस्ट सरकार की दरिन्दगी को उजागर करता है और दबी ज़ुबान में एक पैगाम भी देता है कि इस तरह की बर्बरता का जवाब, आत्म रक्षा है ना की हिंसा।
ओमर मुख्यत्यार, लीबिया के रेगिस्तान से बहुत अच्छी तरह वाकिफ है, और सैनिकों की इस टुकड़ी को रास्ते में खुले मैदान में घेर कर मारे जाने की तरकीब बनाई जाती है, घोड़ों के पैरों के निशान इस तरह बनाये जाते हैं कि इटली की सेना इनके पीछे अपने आप कूच करके चली आएय और बीच मैदान में ओमर मुख्यत्यार अपने लड़ाकों को रेती की आड़ में छुपा देता है, मुकाबला एक तरफा रहा जहां इटली की सारी टुकड़ी मारी गई और कुछ जान-माल का नुकसान ओमार मुख्तार के लोगों का भी हुआ। यहां एक इटली का नौजवान सैनिक बच जाता है जिसे ओमार मुख्तार ज़िंदा छोड़ देता है और अपने जनरल को एक पैगाम देने के लिये कहता है कि ये धरती इटली की नहीं है।
दूसरे ही दृश्य में ओमार मुख्तार, अपने साथियों के साथ अपने कबीले में वापस पहुचता है तब एक बच्चा और उसकी मां अपने पिता और पति की तलाश कर रहे होते हैं जिन्हें मायूसी ही मिलती है। वही ओमार की आंखें बहुत कुछ कहती है, मसलन वह कभी भी हिंसा का पैरोकार नहीं रहा लेकिन जब हिंसा थोप दी जाए तो आत्मरक्षा करना ज़रूरी हो जाता है।
यहां लीबिया में इटली तानाशाह है और अपनी सत्ता को कायम रखने के लिये लीबिया की प्रजा पर बेइंतहा ज़ुल्म ढाये जा रहा है, और ओमर मुख्तार अपने चंद दोस्तो के साथ एक तरह की गोरिल्ला युद्ध से इटली की सरकार को मुंहतोड़ जवाब दे रहा है। फिल्म एक मोड़ तब लेती है जब इटली की सरकार ओमार मुख्तार से बातचीत की पेशकश करती है, और इस मुलाकात के दौरान, मुख्तार जो सबसे पहली मांग रखता है वह थी कि ओमार मुख्तार के संगठन के पास लीबिया में आज़ाद मुस्लिम शिक्षा का अधिकार होगा, यहां इस तथ्य को समझने की ज़रूरत है। दरअसल इस समय लीबिया में मुस्लिम आबादी ही मौजूद है और यहां शिक्षा का मतलब इस्लामिक मदरसे हैं जहां अरब की लिपी के साथ-साथ कुरान की आयतों की शिक्षा भी दी जाती है, वास्तव में ओमार मुख्तार पूर्णतः शिक्षा का अधिकार मांग रहा था, यहां हम समझ सकते हैं कि एक कम्युनिस्ट तानाशाह इस मांग को कैसे मंज़ूर कर सकता था।
फिल्म आगे चल कर करवट लेती है जहां ओमार मुख्तार द्वारा दी जा रही चुनौती से इटली की सेना धवस्त दिखाई देती है और एक समय ऐसा आता है जब इटली की सेना का मुख्य अफसर भी की युद्ध नीति की तारीफ करने से खुद को नही रोक सकता जहां इटली के लोहे के टैंक भी ओमार की युद्ध नीति के सामने कांच के टुकड़े की तरह बिखरते हुए दिखाई दे रहे थे। फिल्म अपनी अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ती है जहां घायल ओमार मुख्तार इटली की सेना से घिर जाता है और उसे पकड़ लिया जाता है। पहले से तय सुदा सजा का ऐलान होता है जहां ओमार मुख्तार को उसी के लोगों के बीच फांसी लगाने की सज़ा दी जाती है।
1931 का साल शहीदों के जलाल का साल कहा जा सकता है अगर मैं व्यक्तिगत रूप से 23-मार्च-1931 के दिन राजगुरु, सुखदेव ओर 23 साल के भगत सिंह को फांसी पर चढ़ते हुए देख सकता तो यकीनन कहता कि इसी साल सिंतबर के महीने में 73 साल की उम्र में फांसी लगाकर शहीद किये गए ओमार मुख्तार के चेहरे पर भी वह रौशन नूर था जो मार्च के महीने में लाहौर की जेल में रौशन हुआ था।
मुझे ये फिल्म कई विशेष कारणों से पसंद आई जैसे मदरसों का चित्रण, जिस तरह हमारा मीडिया आज मुस्लिम मदरसों की छवि को एक गलत ढंग से उभार रहा है उसे ये फिल्म पूरी तरह से नकार देती है। दूसरा ओमार खुद एक शिक्षक था और उसे शिक्षा का मोल पता था कि किस तरह से शिक्षा के तहत आने वाली पीढ़ियों की मानसिकता को बचाया जा सकता है। तीसरा ओर सबसे अहम सरकारी आंतकवाद, हम अक्सर इस्लामिक ओर सिख आंतकवाद का नाम अपने देश में सुनते हैं लेकिन ये फिल्म सरकारी आंतकवाद को भी दिखा रही है। अगर आप इस बात से मुझ से ताल्लुक नहीं रखते तो एक गुज़ारिश है कि गूगल करके जरा उन आकड़ों को देखिये जो अमेरिका की सेना द्वारा 2016 में पूरी बमबारी करने की गणित को दिखाते हैं, इन आंकड़ों को देखकर इस बात से हैरानी नहीं होनी चाहिए कि आज के इस मॉडर्न युग में भी सरकारी आंतकवाद ज़िंदा है, फलफूल रहा है और बहुत शक्तिशाली है। जिसे समझने के लिये ये फिल्म एक बार जरूर देखनी चाहिये।