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“मेरे मुहल्ले में बेटी से ज़्यादा ज़रूरी उसका दुपट्टा है”

किसका है ये शहर? इस सवाल के सही जवाब के लिए हमें पैसे, रुतबे या ज़मीन जायदाद से ऊपर उठकर इस शहर में एक घर को तलाश करना होगा जिससे हम खुद को जोड़कर देख सकें। दिल्ली के ये कुछ युवा हैं जो अपनी कहानियां इस कॉलम के ज़रिये हम सभी से साझा कर रहे हैं। दिल्ली एक ऐसा शहर जो संकरी गलियों से, चाय के ठेलों से और न जाने कितनी जानी अनजानी जगहों से गुज़रते हुए हमें देखता है, महसूस करता है और हमें सुनता है। इस कॉलम के लेखक, इन्हीं जानी-अनजानी जगहों से अंकुर सोसाइटी फॉर अॉल्टरनेटिव्स इन एजुकेशन के प्रयास से हम तक पहुँचते हैं और लिखते हैं अपने शहर ‘दिल्ली’ की बात।

अर्शी:

बस्ती में हवा का पता ही नहीं चलता, लेकिन छत पर बहुत तेज़ आंधी चल रही थी। मैं आंधी का मज़ा लेने लगी। मुझे देख पड़ोस में रहने वाली सहेलियां भी अपनी-अपनी छत पर आ गईं। हमने एक दूसरे से आंखें मिलाई, मुस्कुराए और फिर बातें करने लगे। हमने अपने हाथों को हवा में फैलाया और ठंडी हवा का मज़ा लेने लगे। नीचे दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई। मैं समझ गई कि भाई काम से वापस आ गए हैं।

अब हल्की-हल्की बूंदें भी आने लगीं। मुझे याद आया कि रस्सी से कपड़े उतारने हैं और मैं कपड़े उतारने लगी। अम्मी ने बहुत ज़ोर से आवाज़ लगाई। उनकी आवाज़ सुनकर मैं डर गई।

बहुत तेज़ आंधी और बारिश थी, मैं जल्दी-जल्दी कपड़े उतारने लगी। मैं कपड़े लेकर मुड़ी तो देखा कि मेरा दुपट्टा कहीं उड़ गया है। मैंने सारे कपड़े एक तरफ रखे और अपना दुपट्टा देखने के लिए छत पर यहां से वहां भागने लगी। मैंने सभी जगह नज़रें दौड़ाई, मगर दुपट्टा कहीं नहीं दिख रहा था। मेरे मन में डर और दिल में घबराहट समां गई कि अब क्या करूं और अम्मी लगातार आवाज़ दिए जा रही थी।

मैं इधर-उधर घूमने लगी और सोचने लगी, तभी देखा तो दुपट्टा हवा में घूम रहा था। वह कभी नीचे तो कभी ऊपर हो रहा था। पहले सामने वाले घर की रेलिंग पर अटक गया फिर हवा से नीचे की ओर गया, फिर एकदम से ऊपर आ गया। मैं बस उसे देख सकती थी, ना तो उसे छू सकती थी और ना ही पकड़ सकती थी। एक क्षण ऐसा आया कि वह अचानक गायब हो गया।

मेरी सहेलियों के चेहरे पर डर या घबराहट नहीं थी। वे बारिश की बूंदों को हाथों में पकड़ रही थी और यहां मैं थी कि ना तो बारिश में रह सकती थी और ना ही दुपट्टे के बिना नीचे जा सकती थी। मैंने सहेलियों को आवाज़ दी। आवाज़ सुनकर वे मेरी तरफ आईं और इशारे से पूछा, ‘क्या हुआ?’ मैंने कहा, “मेरा दुपट्टा कहीं उड़ गया है, मैं बिना दुपट्टे के नीचे कैसे जाऊं? नीचे भाई आए हुए हैं। अम्मी भी डांटेंगी। तुम मुझे अपना दुपट्टा दे दो प्लीज़…” कुछ ही देर में वह चुपके से मेरे लिए दुपट्टा लाई। मैं कपड़े लेकर नीचे चली आई। मैं पूरी तरह भीग चुकी थी, मैं चेंज करके आई और किचन में काम करने लगी।

मेरा मन अब भी ठंडी हवा और बारिश की तरफ ही था। मेरे दिमाग में हवा में नाचता मेरा दुपट्टा एकदम से अटक गया था, जैसे कोई पतंग कटकर चली जा रही हो। बहुत अच्छा लग रहा था। मैं यह सब सोच ही रही थी कि तभी किसी ने दरवाज़े को ज़ोर से खड़काया। मैंने दरवाज़ा खोला तो हमारे पड़ोस वाली रानी चाची थी। वो मुझे हंसते हुए देख रही थी।

रानी चाची अम्मी को देखते ही “अस्सलाम वालेकुम बाजी” बोली। अम्मी ने भी उसी अंदाज़ में जवाब दिया और पूछा, “अरे रानी, आज हमारे घर का दरवाजा कैसे याद आ गया?” रानी चाची बोली, “बस बाजी, ऐसे ही आई हूं, तुम्हारी याद सता रही थी तो सोचा आज मिल ही लूं।”

अम्मी मुझसे बोली, “अर्शी, जरा दो कप चाय तो बना दियो। रानी आई है।” फिर, अम्मी ने उनकी तरफ देखकर कहा, “तू कभी ऐसे ही थोड़ी आती है? और सुना कुछ।”

कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोली, “आजकल की लड़कियां बाजी… क्या बताऊं… हमारे मोहल्ले की एक लड़की है, जो बस्ती से अपना मुंह ढककर निकलती है और बस बाहर निकलते ही चेहरे से कपड़ा हट जाता है।” अम्मी बोली, “तो तुम्हारा क्या जाता है? होने दे।”

वह फिर से बोली, “वह घर से तो दुपट्टा पहनकर जाती है और बाहर जाकर उतार देती हैं। घर से सलवार-कमीज़ पहनकर निकलेगी और बाहर जींस-टॉप पहन लेगी। बाज़ी आजकल की लड़कियों से अपना दुपट्टा ही नहीं संभलता।” अम्मी बोली, “सही कह रही हो बहन। आजकल मैं भी देख रही हूं यह सब। मगर तू किसकी बात कर रही है?”

वह बोली, “अरे बाजी है कोई, तुम नहीं जानती उसे। पता है बाजी, पहले हम घर का काम करते थे तब भी दुपट्टा सिर पर होता था। मगर अब तो लड़कियां छत पर भी नंगे सिर जाती हैं।” अम्मी बोली, “भईया… हमारे घर में ऐसा नहीं होता।” उन्होंने कहा, “अरे बाजी, आपने अपने घर को खूब अच्छे से संभाल रखा है, मैं जानती हूं। कल की ही बात है, रोशनी अपनी छत पर खड़ी थी। कुर्ता पहनी थी और दुपट्टा नहीं, पड़ोस का लड़का भी छत पर ही था। मैं भी छत पर ही थी, उसने मुझे देख लिया तो नीचे भाग गई।”

मैंने उन्हें चाय दी। वह कप को हाथ से पकड़ते हुए बोली, “कैसी हो? बाल गीले हैं, नहाई हो क्या?” मैंने कहा, “हाँ चाची… आप सुनाओ, रुखसार कैसी है? तुम उसे स्कूल नहीं भेज रही?” उन्होंने कहा, “क्या करेगी पढ़कर?” मैंने कहा, “पढ़ लेगी तो काम ही आएगा।” वह बोली, “कुछ काम नहीं आता।” मैं उन्हें देखते हुए बोली, “चाची, पिछली बार मालूम है ना क्या हुआ था? आपके घर में सरकारी चिट्ठी आई थी और आप उसे पढ़वाने के लिए यहां से वहां घूम रही थी। रुखसार पढ़ी होती तो तुम्हें दौड़ना पड़ता क्या?”

वह मुझे मुंह टेढ़ा कर देखती रही, लेकिन कुछ नहीं बोली। फिर अम्मी की तरफ देखते हुए बोली, “बाजी, कल कुछ लड़के गली में खड़े थे। एक लड़का गले में किसी लड़की का दुपट्टा पहने हुआ था और वह उसे बार-बार नाक से लगा रहा था। पता नहीं इतने में कहीं से खेरू आ गया और उनमें लड़ाई होने लगी। वह दुपट्टा उसकी बहन खुशनुमा का था। पूरे मोहल्ले में हल्ला मच गया।” मेरी तरफ देखते हुए बोली, “क्यों अर्शी? तुझे तो पता होगा? तेरी बगल वाली सहेली भी तो जानती है।” मैंने उनकी ओर गौर से देखा और कहा, “चाची, दुपट्टा है, क्या मालूम उड़कर चला गया हो।” वह बोली, “आजकल लड़कियों के दुपट्टे बहुत उड़ रहे हैं। बाजी, मैं अब चलती हूं। बारिश बंद हो गई है, मोहल्ले में कीचड़ हो गई होगी।”

वह मेरी तरफ आई और चुपके से मेरे हाथ में नीले और पीले कलर का दुपट्टा थमा दिया। फिर धीमे से बोली, “देखियो तो यह किसका है? उड़कर मेरे दरवाजे पर आ गिरा था। एक लड़का उठाने ही वाला था कि मैंने देख लिया।”

मैं सोचने लगी कि अगर इन्होंने अम्मी को बता दिया होता तो! मैं मन ही मन सोचने लगी और खुद ही बता दिया कि यह मेरा दुपट्टा है और कैसे उनके पास पहुंचा। मैं हैरान थी। वह मुझे दरवाज़े से निकलते हुए देखती रही और हंसती रही। शायद जिन भावों को वह मेरे चेहरे पर देखना चाहती थी, वह उन्होंने देख लिया था।


अर्शी 2 सालों से युवती समूह की नियमित रियाज़कर्ता है। वो एल.एन.जे.पी. कालोनी में रहती हैं और नवीं कक्षा में पढ़ती हैं। अपने इर्दगिर्द घटती घटनाओं को देखना, सुनना और उन्हें दोहराना इन्हें भाता है। पिछले 2 सालों में इन्होंने अपने आसपास को कभी टुकड़ों में तो कभी लंबी कहानियों में लिखा है।

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