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“क्या वंशवाद के खात्मे के लिए छात्र राजनीति बेहतरीन विकल्प है?”

पिछले कुछ दिनों से देश में खासकर कि मीडिया में, सत्ता-पक्ष और विपक्ष नेताओं द्वारा लगातार भारतीय राजनीति में ‘वंशवाद’ पर काफी कुछ कहा और सुना जा रहा है। देश के बड़े नेता, ‘वंशवादी राजनीति’ पर अपने-अपने फायदे के अनुसार कुछ ना कुछ ज़रूर बोल रहे हैं। गुजरात में चुनावी सरगर्मी काफी तेज़ होती जा रही है और वहां भी इसे एक बड़े मुद्दे की तरह पेश किया जा रहा है। वहीं पिछले कुछ वर्षो से भारत के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति को कुचलने की कोशिशें भी लगातार होती रही हैं। इसी बीच ये बहस भी छिड़ी कि ‘क्या कॉलेज और यूनिवर्सिटीज़ में छात्र-राजनीति पर रोक लगनी चाहिए?’

अब सवाल यह है कि वंशवादी राजनीति से छात्र राजनीति का कैसा रिश्ता? जवाब है देश में वंशवादी राजनीति को खत्म करने में छात्र राजनीति काफी अहम रोल अदा कर सकती है खासकर भारत जैसे देश में जहां की लगभग 50% आबादी 25 साल से कम उम्र की है। अगर उन्हें मौका दिया जाए और सही से दिशा प्रदान की जाए तो शायद वंशवाद की राजनीति से देश को छुटकारा दिलाने में छात्र अहम योगदान कर सकते हैं।

अपनी एक किताब ‘विद्यार्थी और राजनीति’ में डॉ. लोहिया लिखते हैं, “जब छात्र राजनीति नहीं करते तो दरअसल वो सरकारी राजनीति को चलने देते हैं, जो देश के लिए बहुत खतरनाक है।” किसी भी विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव को ना होने देना या चुनाव समय से ना होने देना उस विश्वविद्यालय प्रशासन की मंशा को दर्शाता है। ज़ाहिर सी बात है कि आज के छात्र नेता ही कल के भारत के अच्छे नेता बनेंगे, ऐसे में उन्हें आज सीखने से रोकना कितना उचित है?

अब ज़रा सत्तर के दशक के छात्र आंदोलनों के बारे में सोचिए, अगर वो नहीं हुए होते तो आज देश में नेताओं की संख्या कितनी होती और वो नेता कैसे होते? देश के पास शायद आज कई नामचीन नेता नहीं होते। लेकिन विडम्बना ये भी है के उनमे से कई नेताओं ने इसे अपना पारिवारिक धंधा बना लिया है। सवाल यह भी है कि वंशवादी राजनीति भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए कितनी सही है?

शशि थरूर भारत में जातिवादी प्रथा का हवाला देते हुए कहते हैं, “वंशवाद लोकतंत्र विरोधी नहीं है, यह तो वोटर की लोकतान्त्रिक समझ और इच्छाशक्ति का विषय है। (DYNASTY IS NOT ANTI DEMOCRACY, IT IS THE SUBJECT TO THE DEMOCRATIC WILL OF THE VOTERS)” आप उनकी इस बात से सहमत हों या ना हों लेकिन एक बड़ा सवाल ये भी है कि भारत में वंशवादी राजनीति की परम्परा एक मजबूरी है या फिर एक आदत?

एक रिपोर्ट के अनुसार 2014 में जब भाजपा की सरकार बनी तो उसमें तब 15 प्रतिशत सांसद तथा 24 प्रतिशत कैबिनेट मंत्री वंशवादी राजनीति का हिस्सा थे। वहीं एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार 34% से अधिक सांसदो के ऊपर आपराधिक मामले भी दर्ज हैं। एडीआर आगे कहता है “साफ रिकॉर्ड वाले लोगों की तुलना में आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले उम्मीदवारों के जीतने की संभावना लगभग दुगनी होती है।”

अगर बात हम महिला सांसदों कि करें तो 2014 में 11.23% सांसद महिलाएं हैं, जिनमें से ज़्यादातर महिलाएं किसी ना किसी प्रकार से वंशवादी राजनीति का हिस्सा हैं। आंकड़ा देखें तो 61 में से 29 महिला सांसद ऐसी हैं जिनके परिवार में उनसे पहले कोई ना कोई राजनीति में था, तो वहीं लगभग 8% महिला सांसदों का ताल्लुक फिल्मी जगत से है। भारत की पहली महिला प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी, पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल और पहली महिला लोकसभा स्पीकर भी इसी वंशवादी राजनीती से ही हमें मिली हैं।

2014 में छपी एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 46% भारतीयों को वंशवादी नेताओं से कोई दिक्कत नहीं थी। लगभग हर दूसरे भारतीय का कहना था कि वो वंशवादी राजनेता को वोट देना ज़्यादा पसंद करते हैं, बनिस्बत किसी गैर वंशवादी नेता के। लेकिन पिछले कुछ वर्षो में ये सोच काफी बदली है, खासकर कि युवा पीढ़ी की। अब जब युवा पीढ़ी की सोच बदल रही है तो ऐसे में किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज के छात्रों को कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तरीय राजनीति का हिस्सा बनने से रोकने की वकालत करना कहां तक उचित है? उन्हें बार बार यह क्यूं सुनना पड़ता है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी पठन-पाठन की जगह है ना कि राजनीति की?

देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री पेमा खांडू भी (जिनकी आयु 37 वर्ष है) वंशवादी राजनीति का एक हिस्सा हैं। इतिहास गवाह रहा है कि छात्र राजनीति के फलसवरूप ही देश में पहली बार नॉन-कांग्रेसी सरकार बनी थी। अन्ना हजारे के मूवमेंट में भी छात्रो का काफी बड़ा योगदान रहा था, 1970 के दशक में गुजरात के छात्र आन्दोलन और फिर बिहार से शरू हुए जे.पी. मूवमेंट को कौन भूल सकता है? दोनों ही आन्दोलनों में छात्रो की सबसे बड़ी भूमिका रही थी।

भारत में वंशवादी राजनीति की परंपरा भी छात्र राजनीति जैसी ही काफी पुरानी रही है। मोती लाल नेहरु से लेकर राहुल गांधी तक, राजनाथ सिंह से लेके पंकज सिंह तक, लालू से लेके तेजस्वी और तेज प्रताप तक, या मुलायम से अखिलेश तक या कश्मीर के फारूक अब्दुल्लाह और उमर अब्दुल्लाह… यह लिस्ट काफी लम्बी है। आप अगर नज़र उठाकर देखेंगे तो शायद ही कोई राज्य होगा जो वंशवादी राजनीति का हिस्सा ना बना हो। ऐसे में खासकर पिछले कुछ सालों से जैसे स्टूडेंट्स एक्टिविज्म या स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स को विश्वविद्यालय स्तर पर लगातार ख़त्म रने की और कुचलने की कोशिश के साथ वंशवादी राजनिति को ख़त्म करने की जो बातें कही जा रही हैं, आखिर उसमे कितना दम है?

भारत में छात्र राजनीति का इतिहास लगभग डेढ़ सौ साल से भी ज़्यादा पुराना रहा है और छात्र राजनीति ही एकमात्र विकल्प है जो देश में वंशवादी राजनीति के सामने चुनौतीपूर्वक ढंग से खड़ा है। छात्र राजनीति ही है जो भारत को वंशवादी राजनीति से छुटकारा दिला सकती है। लेकिन विडम्बना ये भी रही है की छात्र राजनीति से ही आए नेता भी उसी वंशवादी राजनीति का हिस्सा बन जाते हैं, फिर चाहे वो लालू हो, मुलायम सिंह हो, रामविलास पासवान हो या अन्य कोई और नेता।

विश्वविद्यालय तथा कॉलेज के कैंपसों ने भारत को कई नामचीन राजनेताओं से नवाज़ा है, जिसके कई उदाहरण आज भी मौजूद हैं। छात्र आन्दोलनों ने ही देश को जाकिर हुसैन, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, लालू प्रसाद, नितीश कुमार, मुलायम सिंह, शंकर दयाल शर्मा, शिवानन्द तिवारी, चन्द्रशेखर और शरद यादव जैसी कई हस्तियां इनमे शामिल हैं। मौजूदा दौर में देखें तो शेहला राशीद, अलका लाम्बा, कन्हैया कुमार, अब्दुल हफीज गाँधी आदि को भी इसी छात्र राजनीति ने ही जन्म दिया है। अगर आप देखें तो इनमें से किसी भी नेता का कोई राजनैतिक इतिहास छात्रसंघ से पहले का नहीं रहा है।

जिस देश की 65% आबादी 35 वर्ष से कम की हो वहां 60 साल से अधिक उम्र के सांसदो की संख्या आखिर इतनी ज़्यादा क्यूं है? बाकी सरकारी क्षेत्र की तरह चुनाव आयोग को चुनाव लड़ने की अधिकतम उम्र की समय-सीमा भी तय करनी चाहिए।

वंशवाद की राजनीति के मुद्दे को उठाने का असली मकसद कुछ भी हो, इसके पीछे की मंशा किसी बड़े मुद्दे को दबाने की कोशिश हो या ना हो, लेकिन सरकार को ये आंकड़े भी जारी करने चाहिए कि जिस लोकसभा क्षेत्र में वंशवादी नेता या सांसद हुए हैं, विकास की गति उस इलाकों में गैर वंशवादी सांसद या नेता के मुकाबले कैसी रही है? आपराधिक मामले और भ्रष्टाचार के मामले किस पर ज़्यादा हैं?

फोटो आभार: getty images  

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