शिक्षकों के सम्मान में पढ़े जाने वाले कसीदे, शिक्षकों का अभिनंदन और ‘गुरूर बह्मा-गुरूर विष्णु’ कहने की रस्म अदायगी, शिक्षक दिवस का पर्याय बन चुकी है। ऐसे समय में जब सशक्त भारत के लिए राज्य (state) अपनी जिम्मेदारियों को निगरानी और नियंत्रण के तरीकों के साथ निभाना चाहता है, शिक्षकों की पेशेवर स्थिति के सामाजिक-राजनीतिक मूल्यांकन की ज़रूरत है।
आधुनिक संदर्भ में औपनिवेशिक शिक्षा की शुरुआत एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसने शिक्षकों की स्वतंत्र स्थिति के बदले उन्हें राज्य के अधीन एक सरकारी कर्मचारी की हैसियत प्रदान की। इसकी वजह से शिक्षक बनने के मूल में शिक्षण और सीखने-सिखाने की जिजीविषा के बदले सरकारी नौकर बनने की इच्छा को स्थान मिला। इस भूमिका में उन्हें अंग्रेज़ों द्वारा परिभाषित वैध ज्ञान और उसे प्रदान करने के तरीकों को अपनाना पड़ा।
चूंकि यह ज्ञान और तरीके उनके अपने परिवेश से जुड़े नहीं थे, इसलिए एक ऐसा ढांचा विकसित हुआ जिसमें शिक्षकों को बकायदा प्रशिक्षित किया जाने लगा। इस प्रशिक्षण के प्रभाव को दीर्घकाल में जांचने के लिए ‘इंस्पेक्टर राज’ का आगमन हुआ। उस दौर की कहानियों और उपन्यासों में ऐसे इंस्पेक्टरों का उल्लेख मिलता है, जो शिक्षक के शिक्षण कर्म का आंकलन करने के लिए नियुक्त थे। इस व्यवस्था में शिक्षक की सामाजिक और व्यवसायिक स्थिति लगातार कमज़ोर होती चली गई।
ज्ञान की राजनीति ने, शिक्षण के मूल सवालों जैसे कि क्या पढ़ाना है? कैसे पढ़ाना है? के निर्णय को शिक्षकों के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया। ‘क्या उसने सही तरीके से पढ़ाया है?’ जैसे सवालों ने ‘नौकरी’ के बहाने उसकी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा को घेर लिया और उसकी वैयक्तिक अस्मिता में जानने और सिखाने वाले के बदले राज्य पर निर्भर एक कर्मचारी होने के ठप्पे को मढ़ दिया। इस तरह से विकसित शिक्षण व्यवसाय में साल की शुरुआत के साथ कक्षा में पढ़ाना, परीक्षा लेना, परिणाम घोषित करना और फिर से नए साल की प्रवेश प्रक्रिया प्रारंभ करने का चक्र ही शिक्षक का दायित्व बन गया।
वर्तमान में भी उसकी स्वतंत्र भूमिका की इबारतें केवल नीतियों की आदर्श परिकल्पना मात्र है। विडंबना देखिए कि एक ओर उसे आप केवल पाठ को पढ़ाने वाले का अधिकार देते हैं और दूसरी ओर यदि शिक्षा अपने लक्ष्यों को पाने में असफल होती है तो इसका ज़िम्मेदार भी आप शिक्षक को ही सिद्ध करते हैं। इस विरोधाभासी स्थिति में शिक्षक ‘कारीगर’ (क्राफ्टमैन) ना होकर ‘कामगार’ बनकर रह गए हैं। इस तर्क के पक्ष में एक सरकारी विद्यालय के अध्यापक के विचार का उल्लेख करना चाहता हूं, जिसके अनुसार वह ‘ऊपर’ से आए सर्कुलर के अनुसार हर गतिविधि का आयोजन करते हैं।
सर्कुलर, ऑफिस ऑर्डर और मेमो में उलझकर कार्यालयी दक्षता निश्चित रूप से आती है, लेकिन यह भी समझने की ज़रूरत है कि सीखने-सिखाने के लिए सीखने की इच्छा और जिज्ञासा से इसका कोई लेना-देना नहीं है। इसी तरह निजी विद्यालयों में शिक्षकों की स्थिति डेलीवेज वर्कर जैसी है। उन्हें श्रम के निर्धारित मूल्य से कम मूल्य पर कार्य करना पड़ता है। विडंबना यह है कि शोषण की स्थिति में काम कर रहे इन कामगारों को हमारी ‘सिविल सोसाइटी’ अधिक प्रभावी मानती है। इसी तर्क के आधार पर हममें से ज़्यादातर अपने बच्चों का प्रवेश निजी संस्थानों में करवाना चाहते हैं।
स्थिति तो यहां तक पहुंच चुकी है कि नीति आयोग भी सिफारिश कर रहा है कि ‘असफल हो रहे’ सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए इन्हें निजी हाथों में सौंप दिया जाए। ज़ाहिर है कि यह कदम, शिक्षक की स्थिति को कमज़ोर करने का एक हथियार बनेगा। साथ ही इससे यह भी स्थापित होगा कि शिक्षा की गुणवत्ता के लिए शिक्षकों की आज़ादी के बदले उन पर दबाव और निगरानी ज़रूरी है। यह व्यवस्था एक बार फिर से इंस्पेक्टर राज की ओर बढ़ने का पहला कदम होगी।
निगरानी और नियंत्रण की जाल में फंसे अध्यापक के लिए उसकी ज़िम्मेदारी की चेकलिस्ट को पूरा करना महत्वपूर्ण हो जाता है। इस कार्यदबाव और ‘कारण बताओ’ जैसे नकारात्मक तरीकों से बचने में तत्पर व्यक्ति से यह पूछना कि उसने पाठ्यक्रम की नीरसता को कैसे तोड़ा? उसने विद्यार्थियों की सृजनशीलता के लिए क्या किया? बेईमानी है। हां यह ज़रूर है कि हर साल वह पाठ्यक्रम पूरा कर रहा है।
विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की स्थिति भी ज़्यादा बेहतर नहीं है। ‘कैरियर एडवांसमेंट स्कीम’ को रोकने की धमकी, सीनियर-जूनियर की परंपरा का कट्टरता से पालन, यहां भी चुप्पी की संस्कृति को पैदा कर रहा है। विश्वविद्यालय परिसरों में यह चलन आम होता जा रहा है कि वे शिक्षक जिन्हें प्रशासनिक पद मिला हुआ है, वह अपने सिवाय अन्य अध्यापकों के वृत्तिक विकास के अवसरों को रोकने के लिए तत्पर रहते हैं। कई घटनाएं तो ऐसी भी आई, जहां कि वरिष्ठ होने के डर दिखाकर किसी दूसरे के काम को अपना काम बताकर प्रकाशित और प्रस्तुत किया गया।
कुल मिलाकर लालफीताशाही (अफसरशाही) के प्रभाव में प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक व्यवस्था के मठाधीश, अपने मातहत अध्यापकों के अधिकारों के हनन और उत्पीड़न के सुख का आनंद ले रहे हैं। दुःखद तो यह है कि जिन शिक्षकों को बौद्धिक जागरण का दूत माना जाता है, वे भी चुप्पी की संस्कृति को ओढ़े हुए हैं। ‘चुप्पी की संस्कृति’ का प्रसार शिक्षकों की भूमिका के साथ उनकी सामाजिक और वैयक्तिक पहचान को लगातार कमज़ोर कर रहा है। इसका एक उदाहरण ‘सरकारी’ शिक्षकों पर अक्सर लगाया जाने वाला आरोप है कि वे विद्यालय और महाविद्यालय में अक्सर अनुपस्थित रहते हैं। जबकि हाल में ही अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन द्वारा किया गया एक सर्वे सरकारी विद्यालयों में अध्यापकों की अनुपस्थिति के तर्क को खारिज करता है।
शिक्षकों के दायित्व को आदर्शवादी नजरिए से देखना और उनकी भूमिका पर सवाल खड़ा करना एक आम चलन है। इस परिपाटी में मान लेते हैं कि विद्यालय की बौद्धिक गतिविधियों का उद्देश्य केवल विद्यार्थियों के विकास के लिए है। शिक्षकों का बौद्धिक विकास का प्रश्न नहीं पूछा जाता है, उनके पेशेवर विकास की बात की जाती है और इसे पढ़ाने की नयी विधियों के ज्ञान द्वारा पूर्ण मान लिया जाता है। जबकि शिक्षक की सृजनात्मकता का संवर्धन, उसके विषय ज्ञान का अध्ययन करने की सुविधाएं जैसे- कितनी पत्र-पत्रिकाओं की उपलब्धता, स्वतंत्र अध्ययन के अवसर आदि पर व्यवस्था मौन है।
शिक्षा में सुधार के लिए सरकारी निवेश बढ़ा है, लेकिन आंकड़ें यह भी बताते है कि शिक्षकों के संदर्भ में विगत वर्षों से नियमित शिक्षकों की तुलना में अस्थायी शिक्षकों की भागीदारी बढ़ती जा रही है। बिहार और उत्तर प्रदेश में निश्चित मानदेय पर बड़े पैमाने पर शिक्षकों की नियुक्ति इसका उदाहरण मात्र है। इसी तरह दिल्ली में भी हर वर्ष ‘कॉन्ट्रैक्ट’ पर विद्यालयी शिक्षकों की नियुक्ति होती है। विश्वविद्यालयों में एक लंबे समय तक ‘एड-हॉक’ और ‘गेस्ट लेक्चरर’ के तौर पर काम करना एक मानक (मजबूरी) बन गया है। ये प्रवृत्तियां इस अर्थ में प्रासंगिक ठहरती हैं कि शिक्षकों की सरकारी कर्मचारी की हैसियत भी बैसाखी के सहारे खड़ी है। शिक्षा व्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कर्ता इन उपेक्षाओं और अस्थिरताओं के बाव़जूद अपनी ज़िम्मेदारी को निभा रहा है। जान पड़ता है शिक्षक होने की सामाजिक स्वीकृति उसकी इस ऊर्जा का मूल होगी।
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