मेरे यहां काम करने वाली शकुंतला का रोज़ कोई ना कोई व्रत रहता है। कभी तीज का, कभी एकादशी का, कभी काली माई तो कभी विषहरी देवी की पूजा तो कभी किसी देवता की पूजा। वो निर्जल व्रत भी रखेगी और दिनभर कई घरों में काम करेगी, लेकिन ये धर्म की डोर नहीं छोड़ सकती है। यह पूछने पर कि कितना व्रत करती हो तो कहेगी, “हां दीदी अब हफ्ते में एक या दो व्रत तो होइए जाता है, अब देवी देवता ही तो सहारा है। उहे लोग रूठ जाएंगे तो फिर तो अनर्थे न हो जाएगा। हम गरीब लोगन का उहे तो सहारा है। उहे खुश ना रहेगा तो हमारे जीने का क्या मतलब।”
ईश्वर को लेकर इतना डर! अपनी इतनी ऊर्जा, इतना समय और जो कुछ भी कमाते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा भगवान के नाम पर होने वाले तमाम कर्मकांडो में खर्च करते हुए मैंने यहां भागलपुर की सामाजिक रूप से पिछड़ी निम्नवर्ग की महिलाओं में खूब देखा है। होता तो हर जगह है, पर शायद यहां थोड़ा ज़्यादा है। वो अपने परिवार को पालने के लिए या घर के खर्चे के लिए दिनभर भागदौड़ कर स्वस्थ या बीमारी की हालत में काम करती हैं। फिर भी यह उनके घर के खर्चे के लिए पर्याप्त नहीं पड़ता है, साथ ही इस कमाई का एक हिस्सा हर हफ्ते की किसी ना किसी पूजा में ज़रूर खर्च हो जाता है।
एक पूजा में कम से कम दो से तीन सौ रुपये खर्च होते हैं पर फिर भी इनको लगता है कि ये ज़रूरी है। लेकिन इस व्रत और उपवास का क्या मतलब जो उनकी बुद्धि की तार्किक क्षमता को मारकर उनको दिन ब दिन कुंद बनाता जाए। अपने प्रति होने वाले अन्याय को भी वो भगवान की पूजा और श्रद्धा में अपनी कमी या खामी मानकर खुद को ही ज़िम्मेदार माने। समाज और परिवार में फैली हुई विषमताओं को वो स्वाभाविक मानने लगे। घर में महिलाओं की दोयम दर्ज़े की स्थिति और पुरुष की श्रेष्ठता को बिना सवाल उठाए स्वीकार कर ले। कभी पिता, कभी भाई और कभी पति की आश्रिता मात्र बनना उसको सहज स्वीकार्य हो। यहां तक कि पति-पत्नी के बराबरी और सामंजस्य के रिश्ते में आज भी ये पति की मालिक की स्थिति को श्रेयस्कर मानती हैं। चाहे वह इन्हें कितना भी मारे-पीटे, चाहे वह इनकी ज़िन्दगी का केवल जल्लाद ही क्यों ना हो। पर तार्किक रूप से सोचकर उस पर आवश्यक प्रतिक्रिया देना धर्म और रिवाज़ के विरुद्ध है।
पहली बार मैंने किसी स्त्री को बड़े सुकून के साथ ये कहते हुए सुना, “अच्छा हुआ दीदी हमरा आदमी खत्म हो गया। जब से वो गया हम आज़ाद हो गए और गया भी तो तीन छोटी छोटी बेटियां छोड़ के। लेकिन दीदी फिर भी हम दोनों बेटी लोग की शादी कर दिए हैं, दोनों अपने अपने घर हैं, दोनों के दो-दो बच्चे हैं। सब भगवान की पूजा-पाठ और धर्म-कर्म का ही फल है ना, नहीं तो हमे बस का कहां था इतना सब करना।”
अब उसको लगता है कि उसके साथ जो कुछ हुआ, वो उसके धर्म-कर्म, कर्मकांडो और अंधविश्वासों के कारण हुआ है, जबकि इससे उसकी ऊर्जा ही ज़ाया हुई है। मैंने पूछा कि आपने अपनी बेटियों को क्यों नहीं पढ़ाया? इतनी जल्दी शादी क्यों कर दी? तो इस पर उसका जवाब था, “दीदी इतना पैसा कहां था कि बेटी लोग को पढ़ाते।”
उसके पास हर पूजा पर खर्च करने के लिए तीन सौ रूपये थे, पर अपनी बेटियों को स्कूल भेजने के लिए कुछ पैसे नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि अगर वो पूजा ना करती तो अनर्थ ही हो जाता। इस अनर्थ के डर ने उसे वो सब नहीं करने दिया जो उचित और ज़रूरी था, बल्कि वो सब करवाया जो अनुचित और गैरज़रूरी है। अपनी सभी बेटियों की उसने 13-14 साल की उम्र में शादी करा दी और ये सब उसने अकेले किया। जो स्त्री अपने पति की लाखों गालियां सुनती, उससे पिटती थी पर जुबान नहीं खोल पाती थी, क्योंकि उसे समाज का डर था कि पति के सामने कैसे आवाज उठा सकती है।
इस तरह से देश के अमूमन सभी हिस्सों में डर का बहुत बड़ा धंधा चल रहा है। कहीं ये डर सालों से चली आ रही अतार्किक धार्मिक मान्यताओं के नाम का है, तो कहीं झूठे आडम्बरों और कर्मकांडो के नाम का- जो सबसे ज़्यादा स्त्रियों के ही जीवन को प्रभावित करता है। सारे उत्तरदायित्वों को निभाने का ज़िम्मा स्त्रियों को जो मिला है और सारे अधिकारों को भोगने का हक़ पुरुषों को।
स्त्रियों में भी निम्न वर्ग (पिछड़े वर्ग) के कम पढ़े-लिखे समाजों की महिलाओं पर ये ज़िम्मेदारी सबसे ज़्यादा है। पहले तो इन वर्गों को धर्म-कर्म और शिक्षा-दीक्षा से दूर रखने की कोशिश की गई। सदियों तक वे इसके पात्र ही नहीं माने गए और जब अपनी लड़ाइयां खुद लड़कर उन्होंने इसे हासिल किया तो भी इन्हें धर्म के नाम पर कर्मकांडो और आडम्बरों के जाल में फंसा दिया गया। कुछ को संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में उन्होंने खुद अपनाया पर उसमें तार्किकता के अभाव के कारण वे आज भी लकीर के फकीर बने हुए हैं।
यही कारण है यहां आज भी धर्म के नाम पर अतार्किकता बहुत देखने को मिलती है। दैनिक पारिश्रमिक (दिहाड़ी) पर काम करने वाले या अस्थायी छोटी-मोटी नौकरी करने वाले इस वर्ग के लोगों को भले ही कितनी मुश्किल से उनकी नौकरी मिली हो पर सावन का महीना आते ही कांवड़ यात्रा के लिए एक महीने देवघर में बाबा के धाम लेट-लेट के या नंगे पांव बम-बम भोले करते हुए जाना ही है। चाहे भले ही वो नौकरी छूट जाए। भले ही वापस आने के बाद वो बिस्तर पर पड़ जाए। भले ही 2-4 महीने उनके परिवार को पेट काटकर जीना पड़े पर धर्म के नाम पर यह झूठा ढकोसला उनको करना ही है।
मैंने बिहार के इस भागलपुर अंचल में देखा है कि कांवड़ यात्रा मे महिलाएं भी उतना ही जाती हैं जितना कि पुरुष। जैसे-जैसे देश और समाज आगे बढ़ रहा है यहां और ऐसी तमाम जगहों पर इस तरह का अंधानुकरण बढ़ता ही जा रहा है। स्त्रियों में पुरुषों से समानता का ये तरीका तो बिल्कुल ही अतार्किक लगता है। यहां औरतें बाहर निकलती हैं, काम करती हैं चाहे वह काम छोटा हो या बड़ा। ये आर्थिक रूप से स्वनिर्भर है पर कहीं वो पुरुषों के अधीन हैं तो कहीं धार्मिक अतार्किकता के। गुलामी का उनका ना खत्म होने वाला सिलसिला चलता ही जा रहा है, क्योंकि उनको इन दोनों से डर है। उनको लगता है पुरुष की सत्ता के बगैर वो इस समाज में नहीं रह सकती और तथाकथित धर्म-कर्म के बिना इस दुनिया में। ये दोनों ही खासतौर से इस वर्ग की स्त्रियों के लिए डर का एक भयावह खेल, खेल रहे हैं जिससे इनका वर्तमान और भविष्य दोनों खतरे में दिखाई दे रहा है।
अमिता, Youth Ki Awaaz Hindi सितंबर-अक्टूबर, 2017 ट्रेनिंग प्रोग्राम का हिस्सा हैं।
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