सामाजिक जीवन जीने के अपने तरीके में भारतीय समाज ने मौजूदा सामाज व्यवस्था में उन्हीं पक्षों की पैरवी अधिक की, जिसकी दुहाई या जिसके गलत होने का राग हम सार्वजनिक रूप से मर्सिया के रूप में गाया करते है। समाज को जिन-2 धार्मिक-सांस्कृतिक और सामाजिक व्यवहारों के साथ संघर्षशील होना था, उसको अपनाने में हमने कोई गुरेज़ नहीं किया है।
ज़ाहिर है कि रोज़मर्रा के सामाजिक जीवन में जाति आज भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इसलिए घरों में कभी चाय की प्यालियां बदली जाती है, तो कभी शिक्षा के मंदिरों में बच्चों के नाम जानने के बहाने उपनाम (सरनेम) जानने की कोशिश होती है। अगर नाम के साथ उपनाम या ‘सरनेम’ नहीं है तो पिता का नाम और फिर दादा का नाम पूछ लिया जाता है। जबकि जेपी आंदोलन के दौरान जाति के ‘सरनेम’ से मुक्ति के लिए ‘भारती’ सरनेम इस्तेमाल करने जैसे प्रयास किए गये थे, ‘भारती’ का मतलब था भारतीय। लेकिन ये प्रयास अधिक सफल नहीं हो पाया क्योंकि कुछ ‘जाति विशेष’ के लोग सत्यधर्मी होते है और इस तरह यह मान्यता खत्म नहीं हो सकी। इसलिए रोज़मर्रा के सामाजिक जीवन में जाति से कुछ नहीं होता है, पर पूछ ज़रूर लिया जाता है।
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर राजानीतिक समानता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता को समाप्त करने की बात करते थे। निर्मला यादव का हालिया मामले ने राजनीतिक समानता और सामाजिक जीवन में असमानता की बहसों को सतह पर लाने का काम किया है। ज़ाहिर है कि आधुनिक भारत में हमने उस तरह के समाज का निर्माण ही नहीं किया है, जो पढ़ने-लिखने के बावजूद दकियानूसी स्वभावों और जातीय घमंड से बाहर निकलने में सक्षम हो सका हो।
लोकतांत्रिक अधिकारों के संदर्भ में देश का कानून अस्पृश्यता को अपराध मानता है परंतु, निर्मला यादव के मामले में अस्पृश्यता निवारण कानून प्रभावी नहीं हो सकता। क्योंकि निर्मला यादव अस्पृश्य समुदाय से आती ही नहीं है। कानून के लिए यह पेशोपेश की स्थिति है क्योंकि यादव समुदाय ना शूद्र/अस्पृश्य है और ना ही क्षत्रिय। पर गौरतलब बात यह भी है कि भारत के किस कानून के तहत जातीय श्रेष्ठता के आधार पर मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता है। इस मामले में संवैधानिक रूप से निर्मला यादव जातीय उत्पीड़ और बदतमीज़ी की शिकायत करने की हकदार हैं।
कानून को निर्मला यादव की मदद करने के लिए सामने आना चाहिए। इस बदलते हुए आधुनिक भारत में डॉ. मेधा विनायक खोले ने निर्मला यादव पर विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज कर एक नई बहस ज़रूर छेड़ दी है। हालांकि निर्मला मामले में मेधा खोले ने अपना मुकदमा वापस ले लिया है और इसका आधार यह है कि यह उनका व्यक्तिगत मामला है और उनका इरादा कतई भी किसी की जाति भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है।
इस मामले का एक पक्ष यह भी है कि आज भी समाज में आर्थिक और सामाजिक समानता पाने के लिए लोगों को अपनी जाति छुपानी पड़ती है। अपनी जातीय अस्मिता या पहचान के साथ आप सम्मान के अधिकारी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि समाज का व्यवहार वर्ण और धर्म पर आधारित है।
वर्ण और धर्म पर आधारित सामाजिक संरचना लोकतांत्रिक समानता का विकास नहीं कर सकती है, क्योंकि वर्ण और धर्म आधारित सामाज रोज़मर्रा के जीवन में इससे बंधा हुआ है या इसका नैतिक गुलाम है।