2011 में मैं गुड़गांव शहर में एक पीजी तलाश रहा था। इसी खोज में पुराने गुड़गांव की गलियों से गुज़रना हुआ, जहां कुछ पुराने गांव भी हैं और घर भी बड़े हैं। लेकिन अब ये घर भी कमाई का साधन बन चुके हैं। छोटे-छोटे कमरे बनाकर और एक सार्वजनिक शौचालय बनाकर, आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को यहां किराए पर ही सही, लेकिन आशियाना दिया जाता है। मुझे याद है उस दिन बारिश हो रही थी और जब मैं इसी तरह के एक मज़दूर के आशियाने के भीतर गया, तो वहां सिर्फ बदहाली थी। मुझे पता नहीं कि यहां कैसे ज़िंदगी पनपती होगी? शायद यहां ज़िंदगी पनपने से पहले ही मुरझा मुरझा जाती होगी।
इसी साल नोएडा में एक घटना घटी। एक पॉश सोसाइटी के सामने एक कच्ची बस्ती थी जिसे उजाड़ दिया गया। यहां भी वही गरीब मज़दूर वर्ग ही रहता था। मीडिया में ये खबरें आईं कि ये लोग बांग्लादेशी हैं, पहचान पत्र दिखाए जाने पर ही मीडिया ने इनकी भारतीय पहचान की पुष्टि की। परंतु ये कैसी विडंबना है कि गरीब समाज से आज भारतीय होने की पहचान भी छीनी जा रही है? उसे प्रमाण देना होता है कि वह भारतीय है। लेकिन सवाल केवल यही नहीं है। जिस देश में आर्थिक घोटालों की लंबी चौड़ी लिस्ट है वहां इतनी बड़ी संख्या में लोग गरीबी में ज़िल्लत भरी ज़िंदगी जीने के लिए क्यूं मजबूर हैं? अमीर और गरीब की खाई आज ज़मीन और आसमान की तरह क्यों हो गयी है?
इसके कारण बहुत से हो सकते हैं, जैसे- अशिक्षा। लेकिन इस समस्या की तह तक जाएं तो जवाब मिलता है भेदभाव, उसमें भी सबसे जटिल है जाति आधारित भेदभाव। आज भारत का भविष्य कही जाने वाली नई पीढ़ी आरक्षण की लकीर के दोनों तरफ खड़ी है, इनमें विशेष रूप से ऊंची जाति के लोग समझना ही नहीं चाहते कि वास्तव में जातिवाद एक गंभीर समस्या है।
बचपन से हमारे घर की गली में झाड़ू लगाने एक महिला आती थी, अब उसकी दूसरी पीढ़ी भी यही काम कर रही है। कई बार देखा है कि इनके साथ कभी-कभी इनके बच्चे भी आते हैं, सवाल पूछने पर कि ये स्कूल क्यों नहीं गए तो जवाब चौंकाता नहीं है। शायद इनकी नई पीढ़ी का भविष्य अभी से लिखा जा रहा है, जो कहीं से भी उज्वल नज़र नहीं आता है। इसी तरह की एक बस्ती से अमूमन हर हफ्ते गुज़रता हूं, यहां भी तस्वीर कुछ ज़्यादा अलग नहीं है। इनमें भी वही लोग हैं जो ज़्यादातर साफ-सफाई का काम करते हैं या किसी और तरीके से मज़दूरी से अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं। ज़्यादातर बच्चे या तो सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं या नहीं पढ़ते हैं। गौर करने वाली बात ये है कि समाज के इस हिस्से के ज़्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से ही आते हैं। जातिवाद के षडयंत्र ने इन लोगों के लिए अपना हक मांगने या विद्रोह करने की कोई गुंजाइश भी नहीं छोड़ी है।
अब सवाल ये है कि गरीबों में पिछड़ी जाति के लोगों की ही संख्या ज़्यादा क्यों है? ऐसा लगता है कि खास वर्ग को गरीब बनाए रखने के लिए ही जाति व्यवस्था को बनाया गया। बाल काटना, जूते बनाना, सफाई का काम इत्यादि इन सभी कामों की मज़दूरी नाममात्र की ही होती है। हमारे आस-पास कई ऐसी कॉलोनियां और बस्तियां होंगी, जहां जाति के आधार पर ही मकान किराए पर दिये जाते हैं या बेचे-खरीदे जाते हैं।
विडम्बना देखिये कि इन्हीं निचली जातियों से आने वाला मज़दूर, ऊंची जातियों के ये बड़े-बड़े महल बनाता है, उनका रंग-रोगन करता है, लेकिन एक बार इमारत तैयार हो जाए तो उनके लिए यहां के दरवाज़े बंद हो जाते हैं। जीडीपी के आधार पर एक विश्व शक्ति बनने की तरफ बढ़ रहे भारत में जात-पात और छुआ-छूत जैसी गंभीर समस्याओं को सिरे से नकारा जा रहा है।
अब, अगर इस समस्या के हल की बात करें तो शिक्षा, सुरक्षा, कानून व्यवस्था में ईमानदारी, राजनीति में साफ-सुथरा व्यवहार आदि पहलुओं पर सोचने की ज़रूरत है। लेकिन इनमें भी सबसे ज़्यादा शिक्षा पर ध्यान देने की ज़रूरत है। शिक्षा का मतलब किताबों में खींची गई कुछ लकीरों से ही नहीं है, जिनमें बताया जाता है कि शून्य की खोज भारत में हुई, जहां एक ही वर्ग बुद्धिमान होने का सम्मान रखता है। यह शिक्षा भी उसी जातिवादी समाज का प्रतीक है। इतिहास के माध्यम से धर्म का ज्ञान दिया जाता है जिनमें ज़्यादातर महान हस्तियां राजा, राजपूत, क्षत्रिय, ब्राह्मण, संत या मुनी तक ही सीमित रहता है। अगर मान लें कि इस शिक्षा व्यवस्था में जात-पात को बढ़ावा नहीं दिया जाता तो भेदभाव कैसे मिटाया जाए, इस पर भी शिक्षित नहीं किया जाता।
अगर जातिवाद का अध्ययन ईमानदारी से करें तो समझ आता है कि शिक्षा का अधिकार उच्च जाति के लोगों ने हमेशा अपने तक ही सीमित रखा है और पिछड़ी जातियों को खासतौर पर शिक्षा से दूर ही रखा गया है। इस शिक्षा और जाति पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था से पनप रही हमारी समाज की व्यवस्था की कार्यशैली से कहीं भी नहीं लगता की ये छुआ-छूत और जात-पात को खत्म करने के प्रति वचनबद्ध है।
हम सभी जानते हैं कि जातिवाद किस आस्था की देन है और कैसे तर्क दिए जाते हैं। कैसे बताया जाता है कि कौन सी जाति परमात्मा के किस अंग से पैदा हुई है। सदियों पुरानी इस जाति आधारित व्यवस्था, जिसे हमारे समाज का सबसे बड़ा सांस्कृतिक समर्थन और संरक्षण मिला हुआ है, इसमें से कई ऐसे छोटे समाज और संस्कृतियां भी पैदा हुई, जिन्होंने जात-पात को सिरे से नकार दिया। लेकिन या तो इन आस्थाओं का भारत से पतन हो गया या फिर ये जातिवाद को खत्म करने के प्रयास में कहीं ना कहीं धर्म तक ही सीमित रह गईं।
जब किसी नए समाज की रचना होती है तो वह, मौजूदा बहुसंख्यक समाज की नकल पर जातिवाद को अपने में भी शामिल कर लेता है। अंत में जातिवाद जैसी व्यवस्थाओं से अमीर और अमीर बन जाता है, जिसकी गरीब और वंचित तबके को लेकर ना कोई चिंता होती है और ना उनके प्रति कोई जवाबदेही। जातिवाद का अगर भारत में अध्ययन करें तो किसी ना किसी रूप में इसकी मौजदूगी हर समाज में मिलती है, चाहे धर्म कोई भी हो।
ऊंची जाति के लोग भी आज इससे परेशान दिखते हैं, इनका मानना है कि आरक्षण के चलते पिछड़ी जातियों के लोगों की स्थिति बदली है। लेकिन इसी आरक्षण से ये लोग ज़्यादा भयभीत दिखाई देते हैं और इसे तो खत्म करना चाहते हैं लेकिन जातिवाद को नहीं।
कारण बस एक है कि अमीर, अमीर ही रहना चाहता है या और अमीर बनना चाहता है और ये तब ही संभव है जब गरीब, गरीब बना रहे या और गरीब होता जाए।
एक और अहम बात ये है कि ऐसा नहीं है कि ऊंची जातियों के लोग, इस व्यवस्था से देश और समाज को हो रहे नुकसान से पूरी तरह अवगत नहीं हैं। समाज का विकास, बराबरी और सुरक्षा इनमें प्रमुख हैं। सदियों पुरानी सभ्यता का अभिमान लादकर चलने वाले हमारे समाज से भेदभाव हट नहीं पाया, बराबरी आ नहीं पाई और आएगी भी कैसे? यहां तो सतयुग और त्रेतायुग में ही ब्रह्मास्त्र बनाने की घोषणा सदियों पहले की जा चुकी है, यानि हम सदियों पहले से ही सर्वश्रेष्ठ हैं। अब ऐसे समाज में किसी भी नई सामाजिक या वैज्ञानिक खोज की क्या ज़रूरत है?
सही मायनों में समाज जब तक जाति आधारित भेदभाव से मुक्त नहीं होता, तब तक विकास कहीं दूर खड़ा हम पर हंसता ही रहेगा। असुरक्षा और जातिवाद के बोझ के तले दबा हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा बालात्कार, हिंसा ओर हत्या जैसे अपराधों का दंश झेलता रहेगा।