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बुलेट भी और पटरी पर ट्वायलेट भी, अहमदाबाद की विकास वाली आयरनी

बुलेट ट्रेन का शिलान्यास हो चुका है और ऐसा कहा जा रहा है की ये ट्रेन 15 अगस्त 2022 से भारत में फर्राटे भरना शुरू कर देगी। लेकिन शिलान्यास के वक़्त से ही सबसे तेज़, हर खबर और सब पर नज़र रखने वाली हमारा मीडिया, बुलेट ट्रेन की खबर को वास्तव में ही बुलेट ट्रेन की तर्ज पर दौड़ाने लग गया था। प्राइम टाइम की बहस से लेकर अखबारों की सुर्खियां इसी खबर से सजाई जा रही थी।

आज-कल मीडिया हर मुद्दे पर दो तरह के विरोधी रुख पेश करता है मानो पक्ष और विपक्ष का असली काम हमारा मीडिया ही कर रहा है। इसी तर्ज पर एक पक्ष का कहना था कि बुलेट ट्रेन से देश को नई ऊंचाई और ऊर्जा मिलेगी, वहीं दूसरा पक्ष इस बात पर ज़ोर दे रहा था कि बुलेट ट्रेन की लागत से भारतीय रेल को और सुरक्षित और किफायती बनाया जा सकता था। अब बुलेट ट्रेन हो या नर्मदा पर बना विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बांध, सरदार सरोवर का उदघाटन करना हो, इन सभी योजनाओं के तहत एक ज़मीनी सवाल तो ज़हन में उभर कर आ ही जाता है, कि क्या यहां सही में विकास होगा? और अगर होगा तो किसका विकास होगा?

इस सवाल के जवाब के लिये अहमदाबाद शहर का उदाहरण बहुत सटीक साबित हो सकता है, खासकर जब बुलेट ट्रेन का शिलान्यास इसी शहर में किया गया हो तो इसके मायने और भी बढ़ जाते हैं। शिलान्यास के पहले, मेरे दफ्तर से घर जाते समय दिखने वाले एक अंडरब्रिज को रौशनी से नहला दिया गया था, यह नज़ारा बहुत खूबसूरत था। दूसरे दिन जब सुबह उसी अंडरब्रिज से होते हुए वापस ऑफिस पहुंचा तो देखा, बड़ी-बड़ी लाइटें नीचे रखी हुई हैं और इन्हें ऑन करने के लिए पास में ही एक जनरेटर को एक ट्रक पर लाद कर रखा गया था। मतलब यह विकास अस्थाई था।

कुछ इसी तर्ज पर सोशल मीडिया पर रिवर फ्रंट की दिलमोहक तस्वीरें देखने को मिली। कुछ दोस्त इस मनमोहक दृश्य को देखने भी गए थे। अंधरे में रिवरफ्रंट को रौशनी में जिस तरह सजाया गया था, वह एक शानदार नज़ारा था। मुझे याद नहीं कि कभी पहले इस तरह अहमदाबाद को सजाया गया हो। इसका एक कारण ये भी था कि भारत और जापान के प्रधानमंत्री का रोड शो इसी रिवरफ्रंट के किनारे से होकर जाने वाला था।

रिवरफ्रंट, साबरमती नदी पर बनाया गया एक फ्रंट है। मोदी जी के गुजरात के मुख्यमंत्री कार्यकाल में इस योजना का शिलान्यास भी हुआ और उदघाटन भी। इसमें साबरमती नदी के बहाव की ज़मीन को सीमित कर उसके दोनों तरफ बहुत बड़ी दीवार बना दी गयी है और बाकी की जमीन पर सड़क यातायात के साथ, बाग बगीचे और बहुत कुछ बनाया गया है।

साबरमती नदी, अहमदाबाद शहर को दो हिस्सों में बांटती है। एक वह जो पुराना शहर है, इसके कई इलाके जैसे लाल दरवाज़ा, कालूपुर, दुधेस्वर, राखियाल, नरोडा, इत्यादि में आज भी ज़िंदगी आसान नहीं है। इस भाग में ऊंची-ऊंची बिल्डिंग नहीं हैं, लेकिन चाल, झुग्गी और गरीबी बहुत है। सड़कें भी ज़्यादा खूबसूरत नहीं हैं और ना ही स्वच्छ भारत की तस्वीर यहां देखी जा सकती है। वहीं साबरमती नदी के दूसरी तरफ- साबरमती, वासणा, बोपल, प्रहलादनगर, सी.जी.रोड, इत्यादि ऐसे इलाके हैं जिनसे आज अहमदाबाद शहर को पहचाना जाता है। यहां बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स, दफ्तर, मकान, होटल, क्लब और गोल्फ कोर्स इत्यादि विकास के चिन्ह बन चुके हैं।

नदी के इस तरफ सड़कें खूबसूरत हैं। हां गाड़ियां ज़्यादा होने से ट्रैफिक की समस्या ज़रूर है, लेकिन शहर के इस हिस्से में ज़िंदगी बहुत खूबसूरत है और हो भी क्यों ना, शहर का सारा विकास इसी हिस्से को जो मिला है। जहां शहर का एक हिस्सा भोजन को ज़िंदगी की ज़रूरत समझता है, वहीं शहर के इस दूसरे ‘विकसित’ हिस्से में आहार एक शौक है। शहर के इन दोनों हिस्सों में सुरक्षा, शिक्षा, भाषा और ज़िंदगी के स्तर के बीच आसमान और ज़मीन का अंतर महसूस किया जा सकता है। ये उदाहरण आज सिर्फ अहमदाबाद शहर का नहीं है, भारत की हर मेट्रो सिटी, शहरों, कस्बों और गांवों की दशा कुछ इसी तरह की है, जहां एक जगह विकास देखने को मिलता है, वहीं दूसरी तरफ ज़िंदगी का स्तर सामान्य से भी नीचे बना रहता है।

ऐसा भी नहीं है कि रिवरफ्रंट से पुराने शहर को कुछ फायदा नहीं हुआ। रिवरफ्रंट बनाने से पहले अक्सर सूखी रहने वाली साबरमती नदी, जो अमूमन हर बारिश के समय उफान पर होती थी, बाढ़ की स्थिति में पुराना शहर और इसकी झुग्गी झोपड़िया अक्सर पानी में डूब जाया करती थी। लेकिन रिवरफ्रंट बन जाने से बाढ़ से इस क्षेत्र का बचाव हो गया है। वहीं दूसरी तरफ शहर के ‘विकास’ वाले हिस्से में, रिवरफ्रंट के किनारे ऊंची इमारतों का शिलान्यास बहुत ज़्यादा हो रहा है, जिनकी पहचान बालकनी से दिखने वाले सुंदर रिवरफ्रंट की तस्वीर है। यही विकास का पैमाना है कि आज इनकी कीमत आसमान छू रही है और लोग इसे खरीद भी रहे हैं। अब आपको समझ ही जाना चाहिए कि मोदी जी और जापान के प्रधानमंत्री का रोड शो, शहर के किस हिस्से से, रिवर फ्रंट के किस किनारे से होकर निकला होगा और इसी साबरमती नदी के किनारे स्थित महात्मा गांधी के विश्व विख्यात साबरमती आश्रम पहुंचा होगा।

बुलेट ट्रेन के शिलान्यास को विकास से जोड़ने के लिए, बुलेट ट्रेन का शिलान्यास साबरमती स्टेशन के पास एक एथलेटिक स्टेडियम में किया गया, जो विकास के विस्तार की एक जानी मानी पहचान है। जबकी शहर का मुख्य रेलवे स्टेशन जिसे अहमदाबाद जंक्शन के नाम से जाना जाता है, वह शहर के पुराने और भीड़भाड़ वाले इलाके कालूपुर में है। यहां फटे कपड़ों में गरीब भीख मांगता दिखाई देता है और मानव मल भी रेल की पटरियों पर फैला दिखाई देता है। यही वजह है कि यहां ज़मीनी स्वच्छ भारत भी कहीं नहीं दिखाई देता। दूषित हवा भी यहां सांस लेने में परेशानी पैदा करती है। खासकर कि विकसित अहमदाबाद क्षेत्र के लोगों के लिए ये ऐसा भारत है जो वह कभी स्वीकार नहीं करते।

अहमदाबाद एक ऐसा शहर है जहां आज भी अंग्रेज़ों की बिछाई हुई मीटर गेज की पटरी मौजूद है। उसके बाद आस्तित्व में आयी बड़ी बोगी की रेल लाइन जो अहमदाबाद को भारत के ज़्यादातर शहरों से जोड़ती है। जब 2022 में इसी शहर में एक तरफ बुलेट ट्रेन दौड़ रही होगी और दूसरी तरफ मीटर गेज पर पुरानी ट्रेन, तो इस नज़ारे को विकास तो नहीं कहा जा सकता। शायद ये हमारे उस समाज की सच्चाई होगी जहां गरीब और गरीब हो रहा है और अमीर और अमीर हो रहा है।

आज़ादी के 70 साल के बाद भी ‘विकास’ समाज में बराबरी का एहसास नहीं लेकर आ पाया। खासकर जिस रूट पर बुलेट ट्रेन दौड़ेगी, उस हर शहर की शुरुआती हिस्सा और स्टेशन इन्हीं झुग्गी झोपड़ियों से घिरा हुआ है। वहां के लोग ज़रूर ये सवाल हमारी व्यवस्था से करेंगे कि आज भी उन्हें साफ पानी और शौचालय की सुविधा क्यूं नहीं है? ऐसे में अगर यही ‘विकास’ है तो यह किसका विकास हो रहा है?

जब विकास को समाज और देश से जोड़ दिया जाता है तो ये एक आस्था का रूप ले लेता है और हमारे देश की ये एक कड़वी सच्चाई है कि हम आस्था के नाम पर बनाए जा रहे समाज पर सवाल नहीं उठा सकते। मोदी जी ने अपने जन्मदिन पर सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन तो किया लेकिन बांध की ये ऊंचाई मध्यप्रदेश के कई गांवों को जल समाधि लेने के लिए मजबूर कर देगी।

विकास के नाम पर हो रहे इस छल का समाजसेवी मेधा पाटकर और उनके नर्मदा बचाओ आंदोलन के सहयोगी अहिंसा के माध्यम से विरोध कर रहे हैं। लेकिन विकास की राजनीति, इस आंदोलन को बांध के विरोध में दिखा कर लोगों की भावना को इस आंदोलन से जुड़ने नहीं देती। वास्तव में मेधा पाटकर और उनके सहयोगी, विस्थापित परिवारों के उचित पुनर्वास की मांग कर रहे हैं, वह भी कानून की मर्यादा में रहकर। वो चाहते हैं कि जो ज़िंदगी आज ये परिवार व्यतीत कर रहे हैं, इसी तरह इन्हें कहीं और बसाया जाए। लेकिन पुनर्वास के नाम पर घरों की छत ही टीन की चादर से बना दी जाए तो इसे छल ही कह सकते हैं, विकास तो बिल्कुल भी नहीं।

जहां बुलेट ट्रेन का शिलान्यास किया गया, वहां पास ही में साबरमती आश्रम में गांधी जी के तीन बंदर, एक मूर्ती के रूप में रखे गए हैं। ये चिन्ह के तौर पर कहते हैं कि बुरा मत सुनो, मत कहो और ना ही देखो। मेरा मानना है कि आज़ादी से पहले देश को अंग्रेज़ों के खिलाफ एकजुट करने के लिए ये ज़रूरी था कि आम आदमी व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों से ऊपर उठकर गांधी जी की अहिंसा की लड़ाई में उनका साथ दे।

लेकिन भारत की आज़ादी के बाद इन तीन मूल्यों का अर्थ ही बदल दिया गया। मतलब ये कि हमारी सरकारी व्यवस्था के प्रति बुरा कहना, सुनना और देखना मना है। खासकर सवाल करना तो बिलकुल भी मंज़ूर नहीं है। ऐसे में हमें इस विकास को बस एकटक निहारते रहना चाहिए, ना कि इस पर कोई व्यंग या सवाल करना चाहिए। याद रखिये व्यंग, विरोध करने का एक बड़ा और असरदार तरीका है।

खैर सरखेज गांधीनगर हाईवे पर जिस अंडरब्रिज को कुछ दिन पहले रौशनी से सजाया गया था, जगह-जगह मोदी जी और जापान के प्रधानमंत्री आबे जी की तस्वीरें लगाई गयी थी। जहां जापानी भाषा में भी विकास की परिभाषा लिखी गयी थी। वहीं आज भाजपा की झंडिया लगाई गयी हैं।

मैं कोई सवाल नहीं कर रहा और ना ही कोई इशारा कर रहा हूं।बस समय की तस्वीर बता रहा हूं कि गुजरात में कुछ ही महीनों बाद विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। आगे आप खुद ही अंदाज़ा लगा लीजियेगा कि ये विकास किसका और क्यों हो रहा है।

फोटो आभार: getty images 1 & 2 

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