1946, के अंत तक ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के शामिल हो जाने से भारत में अंतरिम सरकार उसी रूप में आ गयी थी जिस तरह अंग्रेज़ हकूमत चाहती थी। लेकिन सरकार बनने के बाद भी AIML और जिन्ना का कहना था कि उनके मंत्री अंग्रेज़ सरकार के प्रति जवाबदेह है ना कि नेहरू के प्रति। वहीं नेहरू का कहना था कि इस तरह सरकार किस तरह अपना कामकाज कर सकती है? इस सरकार में नेहरु एक तरह से प्रधानमंत्री का दर्जा रखते थे।
सरकार की आपसी समझ और तालमेल इस तरह नहीं बैठ पा रहा था कि कांग्रेस और AIML या हिंदू और मुस्लिम समुदायों में आपसी विश्वास का रिश्ता बन सके। नतीजन जिन्ना पाकिस्तान की मांग पर अडिग रहे। जिन्ना का मानना था कि संख्या में अधिक हिंदू, चुनावों में हिंदू बहुल सरकार ही चुनेंगे जिससे मुस्लिमों से अन्याय होने की गुंजाइश बनी रहेगी। जिन्ना का ये भी मानना था कि एक देश भारत के रह जाने से मुस्लिम समुदाय अंग्रेज़ सरकार की गुलामी से निकलकर हिन्दुओं के गुलाम हो जाएंगे।
जिन्ना अक्सर अपनी तकरीरों में कहते थे कि वक्त आने पर मुसलमान एक वक़्त भूखा रह लेगा लेकिन पाकिस्तान बनाकर ही दम लेगा। अंग्रेज़ सरकार भी इससे चिंतित थी और इस गतिरोध को खत्म करने की एक आखिरी कोशिश 1946 में की गई। दिसम्बर 1946 में हिंदू, मुस्लिम और सिख सुमदाय के नुमाइंदों के रूप में नेहरू, जिन्ना और बलदेव सिंह को लंदन बुलाया गया, ये मुलाकात 2 से 6 दिसम्बर तक चली लेकिन बेनतीजा रही।
विशेष बात यह है कि बलदेव सिंह और जवाहर लाल नेहरू के रिश्ते बहुत अहम थे, सरदार बलदेव सिंह ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहते थे कि उनके रिश्ते नेहरू से बिगड़ जाएं। नेहरू से रिश्ते बिगड़ने का मतलब मंत्री पद खोना भी था, इसलिये नेहरू और बलदेव सिंह साथ में ही लंदन गये और साथ ही भारत वापस आए। जबकी जिन्ना और उनके सहयोगी वहीं रुक गए। सिख समुदाय की नुमाइंदगी करते हुए बलदेव सिंह का कहना था कि फिलहाल हमें इतना ही चाहिए कि अंग्रेज़ सरकार भारत छोड़ दे, बाकी हम अपने मसले खुद कांग्रेस के साथ सुलझा लेंगे।
इन हालातों को समझते हुये अक्सर नेहरू और गांधी हर सार्वजनिक और राजनीतिक मंच से यही कहा करते थे कि आज़ाद एकजुट भारत में कहीं भी और कभी भी धर्म और जाति के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ कोई नाइंसाफी नहीं होगी। हर नागरिक को उसकी आस्था और धर्म को मानने की पूरी आज़ादी होगी।
इस बात के बहुत ज़्यादा प्रमाण नहीं मिलते लेकिन जिन्ना और AIML का मानना था कि पंजाब में सिखों और मुस्लिमों को भाईचारे के साथ रहना चाहिये। मतलब सिख समुदाय को आज़ाद भारत के बंटवारे में पाकिस्तान के साथ रहना चाहिए। इसके लिये सिख समुदाय को कई तरह के आश्वासन दिए जा रहे थे। इस तरह अलग मुस्लिम देश की पैरवी कर रही AIML जॉइंट पंजाब की बात कर रही थी, वहीं कांग्रेस भी सिख समुदाय से लगातार संपर्क में थी।
जिन्ना अलग देश पाकिस्तान तो चाहते थे लेकिन किसी भी सूरत में पंजाब और बंगाल को बांटना नही चाहते थे। इन्हे वह पाकिस्तान में शामिल करना चाहते थे, खासतौर पर पंजाब को क्यूंकि आर्थिक और भौगोलिक रूप से उस समय पंजाब एक रईस सूबा था। इसी तथ्य को समझकर जिन्ना ने सिख समुदाय को पाकिस्तान से अलग ना होने का अपना प्रयास अंत तक जारी रखा था।
डायनामिक्स ऑफ़ पंजाब सूबा मूवमेंट किताब के पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब अध्याय के 27वें पेज पर इस तथ्य का जिक्र है कि जिन्ना ने एक चिठ्ठी मास्टर ताराचंद को लिखी थी। जिन्ना ने लिखित रूप में ये आश्वासन दिया था कि आज़ाद पाकिस्तान में सिख समुदाय की आज़ादी और क़ानूनी हक उसी तरह होंगे जिस तरह कि एक मुसलमान के। साथ ही सिख समुदाय को पाकिस्तान में राजनीतिक, नौकरशाही, रक्षा क्षेत्र और उच्च सामाजिक पदों को देने का भी आश्वासन दिया गया था। ऐसा भी कहा जाता है कि अकाली नेता करतार सिंह, जिन्ना की पेशकश से सहमत थे लेकिन उस समय वास्तव में सिख समुदाय की पैरवी कर रहे मास्टर ताराचंद ने इसको कबूल नहीं किया।
धीरे-धीरे अब साफ़ होने लगा था कि बंटवारा होकर ही रहेगा, सभी आम और खास इस कथन को समझ चुके थे कि अब बंटवारे को टाला नहीं जा सकता। लेकिन कौन सा इलाका किस देश में यह अभी भी साफ़ नहीं हुआ था। इसी बीच बंटवारे का दोषी कौन है, इसकी भी ज़ुबानी जंग छिड़ चुकी थी। कांग्रेस जिन्ना को दोष दे रही थी, लेकिन जिन्ना मुसलमानों के लिये अलग देश की मांग के साथ यह भी कह रहे थे कि पाकिस्तान बनने का मतलब हिंदू समुदाय के लिए ब्रिटिश भारत के तीन चौथाई हिस्से पर काबिज़ होना भी है।
1946 के अंत में नेहरू, जिन्ना और बलदेव सिंह की लंदन यात्रा बेनतीजा निकलने के बाद कयास लगाए जा रहे थे कि बंटवारे के बाद पंजाब किसके हिस्से में जाएगा? इसका पूरा जिम्मा सिख समुदाय पर था, अगर ये पाकिस्तान से मिल जाता तो पंजाब को बांटा नहीं जाता, लेकिन अगर सिख समुदाय पाकिस्तान के साथ मिलने से मना कर देता तो यकीनन पंजाब का बंटवारा तय था।